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वक़्त के साथ मैं समझने लगी कि सिर्फ़ शोषण नहीं, उससे उभरने की प्रक्रिया के साथ मेरा रिश्ता भी मेरा ‘औरत’ होना तय करता है। सदियों से ‘भारतीय नारी’ को हाशिए पर रखा गया है और उसे स्नेह और स्वीकृति सिर्फ़ तब तक दी जाती है जब तक वो अपनी ‘औक़ात’ के बाहर न निकले।
आख़िर यह कहने का क्या फ़ायदा कि मेरा शरीर मेरा है जब असल में हमारा मतलब यह है कि मेरा शरीर आंशिक रूप से मेरा है और बाकी शरीर मेरे माँ-बाप, जिम, मैं जिन लोगों को चाहती हूँ और वे मुझे नहीं चाहते उनका, मीडिया, समाज और अनगिनत अनजान लोगों का है, जिन्हें लगता है कि वे मुझे राय दे सकते हैं और बता सकते हैं कि मुझे कैसा दिखना चाहिए।
अधिकतर अभिभावकों, शिक्षकों और देखरेख करने वालों को बच्चों के साथ यौनिकता के विषय पर बात करने और यौनिकता शिक्षा देने में शर्म आती है। क्या इसे दूर करने के लिए व्यंग का उपयोग किया जा सकता है?
व्यंग छुपी हुई हंसी को बाहर लाने का अवसर देता है। प्रतिभागी जो आज तक इन मुद्दों को गंदा, कलंकित या महत्वहीन मान कर छुपा रहे हैं अब कम से कम उनपर हंस सकते हैं।
हालांकि यह शो किसी भी तरह से अचूक या सर्वोत्तम नहीं है, लेकिन यह सही तरीके से यौनिकता, कल्पना और यौन अभिव्यक्ति के तत्वों के अंतर्संबंधों को मुख्य कथानक बिंदुओं के रूप में जोड़ता है।
पारंपरिक जेन्डर भूमिकाओं ने हमेशा ही खेलों के स्वरूप को प्रभावित किया है। यह सच है कि एक ऐसी जगह में, जो विशेष रूप से पुरुषों के लिए ही बनी थी, धीरे धीरे महिलाओं के लिए स्वीकार्यता आई है, लेकिन इस स्वीकार्यता ने औरतों को स्वतंत्र रूप से ख़ुद को स्थापित करने के लिए बहुत कम जगह दी है।
अधिकतर लड़कियों के लिए गोल प्रोग्राम वह पहला साधन बनता है जहाँ वे अपने जीवन, घरों में और आसपास हो रहे अपने जेंडर की भूमिका, भविष्य के बारे में सवाल, स्वाधीनता और उसकी चुनौती को समझ सकें।
कई लोगों को नहीं लगता था कि पैरालिंपिक्स वास्तव में एक खेल आयोजन है। लेकिन इन गेम्स ने दिखा दिया कि कैसे विकलांगता के साथ खेलने वाले ऐथलीट्स असाधारण लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं, भले ही उनके आसपास के लोगों को लगता हो कि वे नहीं कर सकते।
हमें ख़ुद को यह याद दिलाना ज़रूरी है कि हराम और आएब को पितृसत्ता की वैश्विक प्रकोप से बढ़ावा मिलता है। वे एक ऐसी क़ैदी संस्था, बाध्यकारी बुनियादी ढाँचे और प्रतिबंधक प्रणाली का हिस्सा हैं जो अपनी प्रजा की स्वतंत्र पहचान और खुली अभिव्यक्ति को नियंत्रण मैं रखते हुए अपनी व्यापकता को बनाए रखता है।
विभिन्न स्थानों पर लड़कियों की उपस्थिति, उनका अनेक मुद्दों पर चर्चा करना, दोस्तों के साथ मसलों पर बातचीत करना और किसी भी कारण के लिए एकत्रित होना स्वयं ही समाज में मानदंड को चुनौती देता है और उनकी सुरक्षा, गतिशीलता और यौनिकता को बढ़ावा देता है।
पल्लवी की सामाजिक (कदाचित) विषमलैंगिक और छिपी हुई लेस्बियन पहचान का यह मिलन, ध्रुवीता से बचने की भरतीय विशेषता की ओर इशारा करता है, जहां एक नई सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत दोनों पहचानों को जगह दी जाती है।
शायद ये मेरा ख़ुद को यह समझाने और भरोसा दिलाने का प्रयास था कि हो न हो, मैं क़्वीयर लोगों के इस समाज का अभिन्न अंग हूँ और अगर मैंने परेड में लगने वाले सभी नारे याद कर लिए, उनकी बोलचाल के शब्द रट लिए, तो अगले साल की परेड मेरे लिए बहुत अलग होगी और मैं इसमें बढ़-चढ़ कर भाग ले पाऊँगी।
सामाजिक तौर पर अनेक उपेक्षित समूहों के लोगों को अपनी यौनिकता सिद्ध करने में अलग-अलग कठिनाईओं, क्षोभ, और दुख का सामना करना पड़ता है, लेकिन मेरे लिए तो यौनिकता के बारे में चर्चा कर पाना एक बौद्धिक कार्यकलाप के तौर पर सामने आया, एक ऐसा विषय जिस पर आसानी से रचनात्म्क चर्चा करना संभव था। सामाजिक विशेषाधिकार कुछ ऐसे ही काम करते हैं।
“इन युवा महिलाओं नें तो हमारे विचारों को और आगे तक पहुंचाया है, और महिलाओं द्वारा सार्वजनिक स्थानों तक पहुँच पाने के नए आंदोलन खड़े किए हैं। इसमें उनका देर रात तक बाहर रहना, महिला हॉस्टल में लगाई जा रही समय की पाबंदियों को ठुकराना, और महिला शौचालयों और सार्वजनिक यातायात तक अधिक सुलभता पाने की मांग करना शामिल है।”
ऐसी जगहों की बहुत कमी है जहां विकलांगता के साथ जी रहे लोग अपने यौनिक अनुभवों या यौनिक जिज्ञासा के बारे में खुलकर बात कर सकें। खास तौर पर विकलांगता के साथ जी रहे युवाओं पर हर वक़्त निगरानी रहती है जिसका मतलब है कि वे यौन अनुभवों से वंचित रह जाते हैं और अपनी यौनिकता को समझ नहीं पाते।