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दुनिया एक रंगमंच है

तीन लोगों की छाया-आकृतियाँ एक लाल, रोशन पर्दे के सामने एक दूसरे से कुछ दूरी पर अलग-अलग मुद्राओं में खड़ी हैं।

नारीवाद के प्रति मेरे नज़रिये में समय के साथ बदलाव आता रहा है। मेरा बचपन नृत्य और संगीत से भरे पूरे माहौल में बीता और कुछ बड़े होने पर अलग-अलग जेंडर के शरीरों के विभिन्न विभूषणों या अभिव्यक्ति के अलग-अलग तरीकों के बारे में तब पता चला जब मैंने रबीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित गीत और नाटकों के संग्रह ‘गीतोबितान’ में संकलित गीतों पर अभिनय प्रस्तुतियाँ करना आरंभ किया। इससे पहले के मेरे बचपन में मुझे अपनी जेंडर पहचान के बारे में कोई एहसास नहीं था, लेकिन एक नृत्य कलाकार के रूप में, टैगोर की कविताओं और गीतों के बोलों पर अभिनय और भाव-भंगिमाओं को प्रदर्शित करते हुए अंजाने में ही मैं टैगोर की कहानियों की नायिका बन जाती थी, जो अपने नृत्य की हर थिरकन पर स्त्रीत्व का प्रदर्शन कर सकती थी और वह अभिनय भी जिसकी अपेक्षा मेरे शरीर के बनावट वाले किसी व्यक्ति से नहीं की जाती थी; इसे यहाँ स्थानीय लोग मेयेली कहकर पुकारते थे। मेयेली बांगला में एक आम सम्बोधन है जिसका मतलब है ‘स्त्री सरीखा’ या ‘ज़नाना’।

बड़े होते हुए भी, मेरी जेंडर अभिव्यक्ति का तरीका हमेशा दुनिया के सामान्य माने जाने वाले व्यवहारों से अलग ही रहा। एक पुरुष के शरीर में (जो आमतौर पर पौरुष शरीर माना जाता है) जन्म लेने वाली किसी महिला के स्त्रीत्व को स्वीकार कर पाना, हमारे इस पितृसत्तात्म्क समाज में लोगों को कठिन ही लगता है, जहां जेंडर व्यवहारों को केवल सिसजेंडर पुरुष* और सिसजेंडर* महिलाओं के रूप में ही देखा और समझा जाता है। यह एक ऐसा समय, एक ऐसा वातावरण है, जहां केवल उन्हीं जेंडर भूमिकाओं को स्वीकार किया जाता है जो प्रचलित सामाजिक मान्यताओं और मानकों के अनुरूप होती हैं। समाज में अपनी जेंडर भूमिका का निर्वहन करते हुए, अपनी आंतरिक इच्छाओं की पूर्ति केवल घर के एकांत में संभव थी और मैंने महसूस किया कि मेरे जैसे और अनेक दूसरे लोग भी हैं और हम सबकी मिली-जुली आवाज़ें केवल इसीलिए दब कर रह जाती हैं कि ‘लोग क्या कहेंगे’, या लोगों नें क्या कहा, या क्या कहते होंगे और शायद आगे भी कहते ही रहेंगे।

लेकिन यह हमारी आवाज़ ही है जिसके माध्यम से हम समाज में अपनी मौजूदगी दर्ज़ करवा सकते हैं; अपनी बात कहकर अपने अधिकार पा सकते हैं और बनी हुई व्यवस्था को पलट सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से , मुझे अपने मौलिक आंतरिक भावों को व्यक्त करने में अपनी आवाज़ की अहम भूमिका नज़र आती है। अतः स्त्रीत्व मेरे लिए केवल भंगिमाओं और शैली को अभिव्यक्त करने तक ही सीमित नहीं रहता परन्तु कुछ ऐसा बन जाता है जैसे आपको एक-दो शब्द नहीं, पूरी शब्दावली ही समझनी हो। यह एक ऐसी शब्दावली है जिसे आपके लिए पूरी तरह से खोखले लेक्चर हाल्स और ग्रंथागारों के परे सीखना, समझना और कंठस्थ करना ज़रूरी हो जाता है। जेंडर कोई एक सरल विषय या वास्तविकता नहीं है। यह अनेक पेचीदगियों से भरी एक व्यवस्था है, जिसमें अनेक विविधताएँ हैं और बहुत से व्यवहारों की अंतरभागिता भी। ऐसे में उचित शब्दों का प्रयोग हम अनायास ही करने लगते हैं और बहनों को स्त्रीलिंग और भाइयों को पुल्लिंग संबोधनों से बुलाते हैं। हालांकि सम्बोधन की यह व्यवस्था भी खामियों से परे नहीं है, और सर्वनाम केवल शब्द नहीं होते, इसलिए अपने संपर्क में आने वाले लोगों को किस तरह संबोधित किया जाये, उनके साथ किस तरह के संबंध बने, ये सब हमारे मन में पुरुषत्व और नारीत्व की अवधारणाओं के प्रतिवादों पर अधिक, और उनकी समानताओं पर कम, आधारित होता है।

हालांकि, स्त्रीत्व के सभी लक्षण और संवेदनाएँ मेरे मन-मस्तिष्क में स्वत: ही आती हैं, फिर भी मैं बहुत सोच-समझकर कोशिश करते हुए इनका निर्वहन करती हूँ – और इसी के चलते मेरे मन में खुद को ‘महिला’ की तरह संबोधित किए जाने की इच्छा जागृत होती है। हमने यह पढ़ा है कि वाणी प्रदर्शनकारी होती है, और जब यह कहा जाता है कि यह क्रियात्म्क है तो इसका अर्थ है कि इसे बार-बार दोहराया जाता है; हम अपनी भूमिकाओं और उनसे जुड़ी अपेक्षाओं के अनुरूप खुद को व्यक्त करने के लिए तैयार करते हैं, फिर वो अभिव्यक्ति चाहे घर पर हो, सार्वजनिक स्थानों में या फिर आज की डिजिटल दुनिया में। इसलिए ज़रूरी है कि हमारी यह तैयारी लगातार व्यापक हो रही नई ज़रूरतों के अनुरूप हो, जिसमें स्त्रीत्व की अभिव्यक्ति के अनेक रूपों और तरीकों पर विचार हो जिन्हें हम अपने इर्द-गिर्द मौजूद पाते हैं। भाषा हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम होने के साथ-साथ दूसरों के साथ बात करने और व्यवहार करने का माध्यम भी है। यह बिलकुल मुझे मेरे एक मित्र द्वारा भेंट की गयी नीले रंग की साड़ी की बड़ी-बड़ी लाल रंग की आकृतियों की तरह स्पष्ट है।

अब यह भेंट मेरे लिए सिर्फ एक प्रेम स्वरूप दिया गया उपहार मात्र नहीं है, बल्कि इसे देते हुए कहे गए शब्द भी बहुत महत्व रखते हैं – “तुम अगर इसे पहनोगी तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा, तुम इसमें बहुत सुंदर लगोगी”। यह दो दोस्तों के बीच प्रेमपूर्वक व्यवहार है। यह मेरे लिए एक तरह से ढाढ़स बंधाने वाला भी है कि मेरा स्त्रीत्व, मेरा नारी सुलभ व्यवहार सही है और एक महिला के तौर पर मेरी मौजूदगी उस जगह, जहां महिलाओं ने अपने अनेक शरीरों, अपनी अनेक पहचानों के साथ, जेंडर और यौनिकता के इस लगतार बदल रहे परिवेश पर विविध तरीकों से बराबर पकड़ बनाए हुई है, में एक विपथन नहीं है। अपने जन्म स्थान को छोड़ दूसरे अनेक शहरों में प्रवास कर चुकने पर, जहां मैंने अपने रहने के लिए घर बनाया है, स्त्रीत्व के ये भाव बड़े ही प्रकृतिक रूप से मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। ये मेरी कई चीज़ों के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाते हैं – जो साड़ियां मैं बड़े चाव से पहनती हूँ, जो नेल पॉलिश मैं लगाती हूँ, मेरे ये लंबे बाल और मेरी आँखों में लगा गहरा काजल।

अब टैगोर की नायिकाओं की तरह जीवन जीना मेरी कोई गुप्त इच्छा नहीं रह गयी है। अब टैगोर की वे नायिकाएँ मुझे केवल ख्वाब की तरह नहीं लगती जिनकी कल्पना मैं उनकी कविताओं के बोल सुनकर करती थी। इन नायिकाओं के ये चित्र एक साधारण पाठक की निगाह में भले ही धुंधले अक्स दिखते हों लेकिन मेरे लिए तो वे मेरी उन इच्छाओं का प्रतिरूप हैं जिन्हें मैं हमेशा से पूरा करना चाहती थी। अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति द्वारा और स्त्रीत्व को अपनाकर, मैं अपने मामूली तरीके से ही सही, जीवन की पारंपरिक व्यवस्था को तोड़ पाने की कोशिश में लगी रहती हूँ। एक नृतकी के रूप में मेरा स्त्रीत्व केवल मेकअप किए हुए उन क्षणों तक ही सीमित रहता था जब तक मेरा स्वरूप मंच पर दीदिप्त्यमान हुआ करता था। ये सब वो कुछ अनुभव थे जिन्हें मैं जीना चाहती थी लेकिन अपने जीवन में उतार पाने में खुद को सक्षम नहीं पाती थी। पहले जिन ‘स्त्री सरीखे’ व्यवहारों के कारण मुझमें वो मेएलीपन दिखाई देता था, अब वो मेरे जीवन का हिस्सा बन चुका है। वह अब उन सब कपड़ों में जो मैं पहनती हूँ, जिस अंदाज़ में मैं चलती, सोचती और बात करती हूँ या लोक चर्चाओं में भाग लेती हूँ, परिलक्षित होता है। अगर अब कभी ऐसा समय आए कि मुझे अपने इस वर्तमान स्वरूप और भेष में अपने जन्मस्थल जाना पड़े, तो मैं जानती हूँ कि लोग अब भी मुझ पर हँसेंगे और मेरा मज़ाक उड़ाएंगे । लेकिन अब मुझे यह पता होगा कि मेरा यह स्त्रीत्व मुझे परेशान करने की कोशिश कर रहे लोगों के पुरुषत्व से ज़्यादा मज़बूत है और यह भी कि इसने कई मुश्किलों का सामना करना सीखा है और बेहद संवेदी क्षणों में यह मज़बूत बना रहा है।

*सिसजेंडर वे लोग होते है जिनकी जेंडर पहचान उनके पैदाइशी जेंडर से मेल खाती है।

लेखिका: नील

नील एक लेखिका और सक्रियतावादी हैं। उन्होने दिल्ली के अम्बेडकर विश्वविद्यालय से परफॉरमेंस स्टडीज़ में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की है। वे अनेक गैर सरकारी संस्थाओं और नागरिकों के अधिकार आंदोलनों से जुड़ी रही हैं जो जेंडर और यौनिकता के विषयों पर काम करती हैं।

सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित

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कवर इमेज: Unsplash