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मेरी उलझी प्रेम कहानी 

अपने बालों से मेरा संबंध हमेशा से ही उलझन भरा रहा है। मुझे याद है बचपन में मेरे बाल बहुत ज़्यादा घने और बिखरे हुए भी थे और मुझे और मेरी माँ को रोज़ इन्हे सँवारने में मशक्कत करनी पड़ती थी। मुझे जानने और मिलने वाली ज़्यादातर लड़कियों के बाल सीधे, नरम और रेशमी हुआ करते थे और उससे मेरी तकलीफ़ें कम होने की बजाए बढ़ जाती थीं। उन लड़कियों के बालों की हर कोई तारीफ़ करता था, उन्हें सुंदर कहा जाता था, लेकिन मेरे बालों किओर तो कोई दूसरी बार मुड़ कर भी नहीं देखता था। बड़े होते हुए मैंने यही सीखा कि लंबे बालों की ज़्यादा कद्र होती है; क्योंकि लंबे बालों वाली लड़कियां ही ‘सुंदर’ होती हैं। मुझे हमेशा यही कहा जाता रहा कि मेरे चेहरे पर भी लंबे बाल ही अच्छे लगते हैं और इनकी वजह से मैं सुंदर दिखती हूँ। मैं आज भी उन दिनों के बारे में सोचती हूँ तो मेरा मन भर आता है कि कैसे मैं हमेशा ही ‘गोरे रंग, लंबे कद, छरहरे शरीर, दुबली पतली लड़की जिसके सिल्की, सीधे लंबे बाल हों’ की दुनिया का भाग बने रहने की कोशिश में लगी रहती थी। 

फिर जैसे जैसे मैं बड़ी होती गई, मेरे सोचने का दायरा बढ़ने लगा और मैंने देखा कि मेरे बचपन के अनुभव के आगे भी एक दुनिया थी जहां लोगों को मेरे घुँघराले और लहरों की तरह बलखातें हुए बाल भी पसंद थे और सुंदर लगते थे। तब मैं बहुत खुश होती कि लोगों को मेरे लंबे घुँघराले बाल देखकर ईर्ष्या होती है। ये सब देखकर मुझे अच्छा लगता था, मैं खुद को सुंदर मानने लगती थी और मेरे आत्मविश्वास का स्तर आसमान से ऊंचा हो जाता था। धीरे-धीरे मेरा अपने बालों से मोह बढ़ने लगा। अब मैं हर समय अपने बालों को लेकर ही सोचती रहती थी। तब मैं अपने इन लंबे घुँघराले बालों के बिना रहने के ख्याल भी मन में नहीं ला पाती थी। 

जेंडर और यौनिकता विषय की फ़ैसिलिटेटर बनते हुए मैंने बहुत परिश्रम किया और यह जाना कि एक अच्छे प्रशिक्षण की सबसे बड़ी खासियत यही होती है कि इसके बाद प्रतिभागियों की सभी बातों के जवाब दे देने से अच्छा है कि उन्हें विचलित कर दिया जाए ताकि वे और ज़्यादा प्रश्न पूछने के लिए विवश होने लगें। ऐसे में खुद मेरे लिए जेंडर और यौनिकता की इस खूबसूरत यात्रा में उठने वाले असंख्य प्रश्नों से परे रह पाना कैसे संभव था? मेरे मन में उठने वाले ये सवाल अब धीरे-धीरे मुझे भी विचलित करने लगे और एक दिन मैंने फैसला ले लिया कि मैं अपने जीवन के अनेक विरोधाभासों को हल करके ही रहूँगी। मैंने यह महसूस किया कि अपनी सुंदरता के बारे में मेरी खुद की समझ कितनी सीमित और कठोर या दृढ़ होती जा रही थी। मैं ‘सुंदरता की अपनी ही परिभाषा’ की कैदी बन कर रह गई थी। ये वो परिभाषा थी जो मैंने खुद अपने लिए दूसरों के विचारों से प्रभावित होकर तैयार कर ली थी। यहाँ तक कि मैंने खुद अपने से जुड़ना छोड़ दिया था, मानों सुंदरता के बारे में मेरे विचार मेरे इन लंबे घुँघराले बालों में ही कहीं खो कर रह गए थे।  

कभी-कभी अनाम होना भी बहुत ज़्यादा सशक्तिकरण के भाव उत्पन्न करता है। मैं एक ऐसे शहर में थी जहां मुझे कोई भी बहुत अच्छे से नहीं जानता था, और यह सोचकर अचानक मुझमें न जाने कहाँ से ऐसा कुछ करने की हिम्मत आ गई जो शायद मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी – मैंने बस खुद से अपने बालों पर कैंची चला दी! शुरू-शुरू में तो मुझे ऐसा कुछ कर गुज़रने पर, जो बचपन से ही मेरे लिए निषिद्ध था, बहुत ही अच्छा लगा। मैं खुद को अपने इस नए रूप, इस नए अवतार में देखकर बहुत उत्साहित थी। मेरे मन में कहीं थोड़ी सी चिंता भी थी कि क्या मेरे ये छोटे कटे हुए बाल मेरे चेहरे पर अच्छे लगेंगे, और क्या मेरे कपड़ों, मेरी काम, मेरे व्यक्तित्व के साथ जाएँगे…… 

कुछ ही दिनों में मुझे इस तरह से ये छोटे-छोटे बाल रखे हुए लगभग एक वर्ष हो जाएगा, और सच कहूँ तो मुझे अभी भी नहीं पता कि क्या ये छोटे बाल मेरे व्यक्तित्व  के साथ उतना मेल खाते हैं जितना मुझ पर बड़े बाल अच्छे लगते थे या नहीं। लेकिन अब मैं इस ‘न जानने’ से भी बहुत संतुष्ट महसूस करती हूँ। उस दिन अचानक मन में आने पर अपने बालों को काट लेने का वो अनुभव सच में मेरे लिए बहुत ज़्यादा मर्मभेदी और स्वतंत्र करने वाला अनुभव रहा है। अब मैं उन विचारों से खुद को दूर ला पाने में सफल हुई हूँ कि दूसरे लोग मुझे किस रूप में सुंदर मानते हैं। ऐसा करने से मुझे खुद अपने अचेतन मन में सुंदरता के नए आयाम खोज पाने और जेंडर मान्यताओं को समझने में मदद मिली है। अब मैं वो सब अनुभव कर पाती हूँ जो मैं अपने प्रशिक्षण सत्रों में अपने प्रतिभागियों को बताती हूँ।  

आज, अभी मुझे नहीं पता कि क्या मैं आगे चलकर अपने इन बालों को लंबा करूंगी या इन्हें इसी तरह छोटा ही रखूंगी; अभी के लिए तो मैं सिर्फ खुल कर सांस लेते हुए खुद को संतुष्ट महसूस करती हूँ। अभी मेरा पूरा ध्यान इस सफर में चिंता छोड़ सफर का मज़ा लेने और अपने गंतव्य तक पहुँचने की उम्मीद करते रहने पर ही है!

लेखिका : इप्सिता 

इप्सिता पिछले 7 वर्षों से डेव्लपमेंट सैक्टर में बाल अधिकारों, जेंडर और यौनिकता के विषयों पर एक काउन्सलर, शोधकर्ता और फेसीलीटेटर के रूप में काम कर रहीं हैं। इससे पहले उन्होनें चाइल्डलाइन इंडिया फ़ाउंडेशन, FACSE, ऊर्जा ट्रस्ट, CEHAT, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोश्ल साइंसीज़, UNICEF और निरंतर ट्रस्ट जैसी संस्थाओं में काम किया है। वर्तमान में वे मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपने काम को सुदृद करने के उद्देश्य से Rational Emotive Cognitive Behavioural Therapy, बौद्ध मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा के क्षेत्र को जानने में लगीं हैं।   

सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित।

To read this article in English click here.

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