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इंटरनेट की दुनिया मुझे अपने ‘ज़नाना’ शरीर पर पितृसत्ता के क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का मौक़ा देती है।
हम कैसी भाषा का प्रयोग करते हैं, अपने ख़्याल कैसे बयां करते हैं, यहां तक कि बात करते दौरान कैसी आवाज़ का इस्तेमाल करते हैं ये सब हमारी सामाजिक परवरिश पर निर्भर करता है।
मेरा लिपस्टिक और लिपस्टिक के रंगों के साथ हमेशा से एक यौनिक रिश्ता रहा है। लिपस्टिक से मेरी पहचान निशानों और धब्बों के रूप में ही हुई थी।
क्रिस्टिन और सुरभि पितृसत्ता और औरतों के कपड़ों के बीच के संबंध को दिखाकर उनकी यौनिकता के ऊपर हक़ के बारे में कुछ ज़रूरी सवाल उठाते हैं।
ख़ूबसूरती की परिकल्पना अगर एक मिथक है तो इसे नकारने का तरीक़ा भी ग़लत है।
व्यापक यौनिकता शिक्षा एक संवेदनशील मुद्दा है जिसे लोग अनदेखा कर देना ही आसान समझते हैं, चाहे इसकी वजह से किशोरावस्था से गुज़र रहे लोग अपने शरीर के बारे में उपयुक्त जानकारी के न रहते हुए ग़लत फ़ैसले क्यों न ले लें।
ये बड़ी विडंबना की बात है कि आज भी किशोरावस्था से गुज़र रहे लोगों से उनकी ‘हिफ़ाज़त’ के लिए ज़रूरी जानकारी छिपाई जाती है। ग़लत जानकारी और मिथकों का प्रचार बिना किसी रोकथाम के होता रहता है।
बाल यौन शोषण रोकथाम पर शिक्षा को असरदार बनाने के लिए इसके साथ-साथ व्यापक यौनिकता शिक्षा ज़रूरी है। यौनिकता शिक्षा सिर्फ़ ‘सेक्स कैसे करते हैं?’ तक सीमित नहीं है। इसमें सम्मान के आधार पर बने रिश्तों, रज़ामंदी, यौनिक स्वास्थ्य, सुरक्षित संबंध बनाने के सुझावों, गर्भनिरोध, यौनिक रुझान, जेंडर मानदंडों, शारीरिक छवि, यौन हिंसा वग़ैरह पर जानकारी भी होती है।
भारत जैसे देश में सेक्स जैसी चीज़ों के ज़रिए शारीरिक सुख का आनंद उठाने को लालच और कमज़ोरी के रूप में देखा जाता है। हमें आमतौर पर ये सिखाया जाता है कि सुख की तलाश महज़ फ़िज़ूल की ऐयाशी है जो हमें आत्मबोध तक पहुंचने से रोकती है, जिसकी वजह से हमें लुभावों से दूर रहना चाहिए।
समाज में स्वीकृत शादियों को एक तरह से यौनिकता के जश्न के तौर पर देखा सकता है, कम से कम यौनिकता के उन पहलुओं का जिन्हें समाज जायज़ मानता है – जैसे समाज-स्वीकृत यौन संबंध और प्रजनन।
दो साल, कई लेज़र ट्रीटमेंट्स और एक थोड़ी-बहुत ‘स्वस्थ’ ज़िंदगी जीने की कोशिश के बाद भी मेरे लक्षण अभी भी ‘क़ाबू में’ नहीं आए हैं। लेकिन अब मैं इस बात पे संतुष्ट होने लगी हूं कि मुझसे जितना हो पाया, मैंने अपने शरीर के लिए उतना किया।
मैं 9वीं कक्षा में थी, जब लोग मेरे शरीर के बारे में जो कहते थे वह मेरे अंदर उतरने लगा। मैंने पहली बार रुककर ध्यान दिया कि दूसरों की नज़र में मैं कैसी दिखती थी। यह अपने बारे में सचेत होने की शुरुआत थी, और ख़ुद से असहज होने की भी।
वक़्त के साथ मैं समझने लगी कि सिर्फ़ शोषण नहीं, उससे उभरने की प्रक्रिया के साथ मेरा रिश्ता भी मेरा ‘औरत’ होना तय करता है। सदियों से ‘भारतीय नारी’ को हाशिए पर रखा गया है और उसे स्नेह और स्वीकृति सिर्फ़ तब तक दी जाती है जब तक वो अपनी ‘औक़ात’ के बाहर न निकले।
आख़िर यह कहने का क्या फ़ायदा कि मेरा शरीर मेरा है जब असल में हमारा मतलब यह है कि मेरा शरीर आंशिक रूप से मेरा है और बाकी शरीर मेरे माँ-बाप, जिम, मैं जिन लोगों को चाहती हूँ और वे मुझे नहीं चाहते उनका, मीडिया, समाज और अनगिनत अनजान लोगों का है, जिन्हें लगता है कि वे मुझे राय दे सकते हैं और बता सकते हैं कि मुझे कैसा दिखना चाहिए।
अधिकतर अभिभावकों, शिक्षकों और देखरेख करने वालों को बच्चों के साथ यौनिकता के विषय पर बात करने और यौनिकता शिक्षा देने में शर्म आती है। क्या इसे दूर करने के लिए व्यंग का उपयोग किया जा सकता है?