Scroll Top

पहचान और समावेशिता – क्वीयर समुदाय में द्वार पालन का चलन

A close-up of chainmesh fencing.

अपनी हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए मेरा दाखिला एक लड़कियों के स्कूल में हुआ। यहाँ, मुझ जैसी लड़की के लिए, जिसने अपने जीवन के पिछले दस वर्ष सह-शिक्षा वाले को-एड स्कूल में बिताए हों,सब कुछ नया-नया सा था। मैं ख़ुद को यहाँ बिलकुल अलग-थलग पाती थी क्यूंकि मुझे लड़कियों के साथ बात करना या दिन में लगातार 6 घंटे लड़कियों के बीच रहना बिलकुल नहीं आता था। अपने पाठकों की जानकारी के लिए बता दूँ कि पटना, एक छोटा सा शहर जहां मेरा बचपन बीता, दिल्ली या मुंबई से बिल्कुल अलग था। हमें ‘कूल’ या ‘फैशनेबल’ बनने के बारे में पता नहीं होता था। हम ऐसे परिवेश में बड़े हुए थे जहां आपके संगी-साथी दीपा मेहता की फिल्म,‘फायर’, पर चर्चा नही करते थे। अब जब मैं पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो सोचती हूँ कि कैसे अंजान थे हम, कैसा था हमारा बचपन, धत – यहाँ तक कि अगर दो लड़कियों को भी हाथ पकड़े चलते देख लेते तो यहीं समझते कि वे ‘प्रेमी जोड़ा’ है। शायद मेरे अंदर के ये क्वीयर भाव ही थे जो मन ही मन कल्पना करता थे कि काश ऐसा होता।

दो साल बाद, दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय, मैंने पहली बार प्राइड मार्च का झण्डा देखा था। तब मुझे समझ नहीं आया था कि वो किस चीज़ का प्रतीक है, लेकिन मुझे बहुत देर तक खड़ी उस झंडे को निहारते हुए ख़ुशी मिली। न जाने क्यों मुझे इस प्राइड मार्च को देख कर अच्छा लगा था, जैसे कि मुझे यहाँ से बहुत अपेक्षाएं हों – एक ऐसा वातावरण जहां मैं अपनी इच्छानुसार व्यवहार बहुत अच्छे से कर सकती थी। यौनिकता के साथ मेरे अनुभवों का बहुत बड़ा भाग क्वीयर लोगों के समुदाय के साथ मेरे मेल-जोल पर ही निर्भर था। यहाँ मुझे दूसरी महिलाओं के साथ अपने सम्बन्धों की सार्थकता का पता चला। मेरे जीवन में ऐसा क्षण कभी नहीं आया जब मैंने ये कहा हो कि “हाँ, मैं क्वीयर हूँ”! दिल्ली में क्वीयर लोगों के समुदाय का भाग होना भयभीत करने वाला अनुभव तो है लेकिन बहुत ही मज़ेदार भी होता है। न जाने क्यों, एक सत्रह वर्ष की लड़की के तौर पर मुझे ऐसा लगा कि हाँ, यही वो वातावरण है जहां मुझे होना चाहिए और खुद को इस लायक सिद्ध करना चाहिए। मुझे ज़रूरत थी कि अपने इन क्वीयर भावों के बारे में सबको बताऊँ – एक ऐसा क्वीयर व्यवहार जिसके बारे में केवल कुछ महीने पहले मुझे खुद कोई आभास तक न था।

ना जाने क्यों, लेकिन मेरा जितना भी मन होता था कि मैं इस क्वीयर इंद्रधनुष का भाग बन सकूँ, ऐसा लगता था कि यह इंद्रधनुष ऐसा नहीं चाहता था। इसका कारण यह था कि क्वीयर लोगों का यह संसार ऐसे ‘कूल’ लोगों का संसार था जिन्हे तमाम सुविधाएं हासिल थीं, विशेषाधिकार थे और अनुकूल शब्दों से भरी शब्दावली का ज्ञान था। मैं तो यह भी सोच नहीं पा रही थी कि क्या मुझमे इस समाज का हिस्सा बनने के लिए ज़रूरी काबिलियत है भी या नहीं। अपने जीवन के अनुभवों को साझा करना तो दूर की बात थी क्योंकि मेरा लालन-पालन एक विषमलैंगिक समाज के तौर तरीकों के अनुसार हुआ था।

मुझे लगता है कि एक लंबे समय तक मैं खुद को यह समझा नहीं पाई थी कि इस समाज का हिस्सा होना भावनात्मक रूप से कितना कष्टदायी होता है और किस तरह से इस समाज में समावेशिता का अभाव रहता है जो आज भी ऐसे ही बना हुआ है। ये बिलकुल ऐसा ही था जैसे मीन गर्ल्स की रेजीना जॉर्ज आपसे कह रही हो कि उसे आपकी स्कर्ट बहुत अच्छी लगी जबकि हम सभी ये जानते हैं कि रेजीना को आपकी स्कर्ट बिलकुल बेहूदा और बेकार लगी थी। अगले तीन सालों तक मैं जेंडर के बारे में अपने विचारों को व्यक्त करते समय अपने मन की बात को दबाए रखने का असफल प्रयास करती रही। मुझे याद है कि मैंने 2018 की प्राइड परेड में भाग लिया था और वहाँ केवल दस मिनट रहने पर ही मुझे यह आभास हो चला कि ये जगह मेरे लिए बिलकुल नहीं है और मैं परेड छोड़कर निकल आई थी। मुझे यह भी याद है कि कैसे घर जाते समय मैं अपने फोन पर बार-बार ये टाइप करके खोजने की कोशिश कर रही थी कि कैसे जाने कि आप वाकई बाइ-सेक्सुअल हैं’? शायद ये मेरा ख़ुद को यह समझाने और भरोसा दिलाने का प्रयास था कि हो न हो, मैं क़्वीयर लोगों के इस समाज का अभिन्न अंग हूँ और अगर मैंने परेड में लगने वाले सभी नारे याद कर लिए, उनकी बोलचाल के शब्द रट लिए, तो अगले साल की परेड मेरे लिए बहुत अलग होगी और मैं इसमें बढ़-चढ़ कर भाग ले पाऊँगी। शायद अपनी कॉलेज की पढ़ाई के आखिरी साल, यानी के 2019, में मुझे यह समझ में आ गया था कि एक ही समय पर मैं बिहारी और बाइ-सेक्सुयल दोनों नहीं हो सकती थी।

बिहार में बड़ी हो रही एक बाइ-सेक्सुयल महिला के तौर पर मैं हमेशा यही सोचती थी कि मेरे सामने अनेक विकल्प उपलब्ध नहीं होंगे, कुछ संभावनाओं के द्वार तो मेरे लिए कभी नहीं खुल पाएंगे। प्राइड परेड का हिस्सा बनना शायद मेरे लिए वो मौक़ा था जहां रहकर मैं कुछ बड़ा सोच सकती थी, जहां मैं आकर्षक बन सकती थी, और मुझे लगता था कि यही वो जगह है जहां मैं आसानी से अपनी जगह बना सकती थी और जहां ऊंच-नीच या कोई दूसरा भेद बिलकुल भी नहीं होगा। लेकिन मेरी उम्मीदों के विपरीत मुझे गाली-गलौच का सामना करना पड़ा, अंतरंग प्राइड पार्टियों और महंगे कॉफी हाउसों में होने वाली मीटिंग और वार्ता चर्चा से मुझे अलग रखा गया। उन लोगों के लिए जो फर्राटेदार अंग्रेजी न बोल पाते हो, जो बहुत पैसे वाले न हो या फिर उस समुदाय के प्रभावी लोगों से जिनकी दोस्ती न हो, ऐसी प्रगतिशील संस्थाओं का हिस्सा बन पाना बहुत कठिन होता है। ये सब देखने के बाद मैं लंबे समय तक ख़ुद को यही कह कर समझाती रही कि इस समुदाय में मुझे कभी भी स्वीकार नहीं किया जाएगा। बहुत लंबे समय तक मुझ पर यह आरोप लगाया जाता रहा कि मैं प्रेम और अपनेपन के इस समुदाय में दूरियाँ पैदा करने की कोशिश कर रही थी। मुझे कई बार अपमान का सामना भी करना पड़ा और अनेक बार गालियां भी खानी पड़ीं। वहाँ रहते हुए मुझे हमेशा यही लगा जैसे कि मैं एक पराये की तरह से इस जगह पहुंची हूँ जो बाहर से अंदर झाँकने की कोशिश कर रहा है। ऊपरी तौर पर मुझे यही कहा जाता था कि चूंकि मैं बहुत दूर रहती हूँ इसलिए मेरे घर पर बैठक आयोजित करने का कोई औचित्य नहीं था, मुझे क़्वीयर पार्टियों में और मीटिंग में भी नहीं बुलाया जाता था और हर कोई ऐसा मान लेता था कि ऐसे आयोजनों में जाने में मेरी कोई रुचि नहीं थी। इस क्यीयर समाज के लोगों में से किसी के साथ भी मेरी दोस्ती नहीं हो पायी क्योंकि सबने पहले ही यह मान लिया था कि मैं उनकी दोस्त बनने के क़ाबिल नहीं थी। मेरी पृष्ठभूमि के बारे में और यहाँ तक कि मेरे बात करने के लहजे के बारे में भी सभी कानाफूसी करते थे। मुझे कभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाता था। यह जान लेने पर कि मेरे रुझान किस दिशा में जा रहे थे और मेरे साथ क्या हो रहा था, मुझे यह एहसास हुआ कि किसी भी समुदाय में आपको अपना लिए जाने का कितना महत्व होता है, और किसी छोटे शहर से आने वाले क्वीयर लोगों के लिए इन विशिष्ट समुदायों में अपने लिए सहयोगी वातावरण तैयार करना कितना ज़रूरी होता है।

अगले कुछ सालों तक, मैंने खुद को इस समुदाय में स्वीकार न किए जाने की समस्या पर काम किया ताकि मैं समुदाय का अभिन्न अंग बन सकूँ। मैंने क्वीयर रीडिंग क्लबों में सेंध लगाई और उन्हे यह आभास कराया कि किस तरह से वे बस नाम के समावेशी समुदाय हैं। मैंने उन्हें यह एहसास करवाया कि हम भारतीय क्वीयर क्यों अपनी तुलना विदेश के क्वीयर लोगों से करते हैं? मैं हमेशा से एक ऐसे माहौल का हिस्सा बनना चाहती थी जो मेरे ख़ुद के परिवेश के समीप हो और जो छोटे शहरों से आने वाले क्वीयर लोगों की अलग आदतों को भी स्वीकार कर सके। प्रेम कैसे प्रेम बना रह सकता है अगर उसमें वर्ग, धर्म, जाति या जेंडर के आधार पर भेद किया जाता हो? एक समुदाय के रूप में हम क्वीयर लोग इसी सिद्धांत पर चल रहे होते हैं कि हम सब के जीवन अनुभव एक जैसे होते हैं। हमारे इन अनुभवों की बारीक बातों को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।

हमारे जैसे विविधता भरे और वैचारिक रूप से बंटे हुए लोगों के देश में, जहां क्वीयर व्यवहार को पूंजीवाद व्यवस्था के अंतर्गत केवल सांकेतिक महत्व भर मिलता है, हम कभी भी एक समावेशी समुदाय तब तक नहीं बना सकेंगे जब तक कि हम छोटे शहरों के ट्रांस सेक्स वर्कर्स के श्रम को याद नही करें क्योंकि वो सबसे सार्वजनिक तरीके से मान्यता के लिए लड़ते रहे हैं। । यहाँ मेरे लिए यह स्वीकार करना भी बहुत महत्व रखता है कि, एक हिन्दू “ऊंची जाति” से संबंध रखने के कारण मुझमें भारत के मेट्रो शहरों में आयोजित होने वाली इन प्राइड परेड में वर्ग के महत्व को पार कर पाने की बौद्धिक और सांस्कृतिकक्षमता है। छोटे शहरों और गांवों से आने वाले और अँग्रेजी न बोल पाने वाले दलित/आदिवासी/मुस्लिम/विकलांगता के साथ जीने वाले दूसरे क़्वीयर लोग इस तरह की सफलता पाने की कल्पना नहीं कर सकते। इसका परिणाम यह होता है की क़्वीयर समुदाय का एक बड़ा भाग समुदाय की मुख्यधारा से ख़ुद को अलग समझने लगता है और अंत में एक बड़े आंदोलन में केवल सदस्य लोगों की संख्या बढ़ाने का काम करता है। इसके अलावा इस समूह का समुदाय में अन्य कोई योगदान अथवा महत्व नहीं रहता है।

समुदाय में हर वर्ग के लोगों के बीच बराबर की भागीदारी और तालमेल तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि प्रत्येक सदस्य अपने अभिन्न मित्र और साथी खोज पाने में सफल नहीं होंगे। आंदोलन के सदस्य किस तरह से यह सुनिश्चित करें कि अलग-अलग लोगों के बीच का गठबंधन केवल लाभ की दृष्टि से तैयार न हुआ हो और न समुदाय में समावेशिता केवल दिखावे मात्र के लिए हो? हमें यहाँ भारत में अपने इन समुदायों के लिए ऐसे नए विचार तैयार करने होंगे जो भारत के छोटे शहरों में पले-बढ़े लोगों के जीवन की वास्तविकताओं को भी दर्शाते हों। केवल अपने विदेशी श्वेत क्वीयर मित्रों के विचार अपना लेने से हमारे लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो सकती। हमारे इस आंदोलन में ऐसे विचारों की आवश्यकता है जो केवल सैद्धांतिक न होकर वास्तविक हों और जिन पर जीवन आधारित किया जा सकता हो। यह यथार्थ है कि हम सभी लोगों के जीवन अनुभव एक समान नहीं हो सकते और केवल क्वीयर होने से ही हम सभी की जीवन वास्तविकताएँ एक जैसी नहीं हो जाती हैं। मेरा मानना है कि दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे बड़े शहरों में प्राइड परेड में ऐसा वातावरण तैयार किए जाने की ज़रूरत है कि छोटे शहर से आने वाला कोई क्वीयर लोग इन आयोजनों में शामिल होने पर भयभीतन हो इस समुदाय में भी कुछ विशेष व्यवहारों को महत्व दिये जाने की यह चौकीदारी की प्रथा को दूर करना इसलिए भी और महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि अपने मूल शहरों में हम में से कई लोग अब भी खुल कर सामने नहीं आ पाएँ हैं और उनका क्वीयर व्यवहार अभी भी दूसरे लोगों पर उजागर नहीं हुआ है क्योंकि लोगों के सामने ख़ुद उजागर कर देने पर अक्सर तकलीफ, शर्मिंदगी और अपमान या कलंक का सामना करना पड़ता है।

जब तक यह सब संभव नहीं हो जाता, मैं संभवत: ऐसे सहयोगपूर्ण वातावरण की कल्पना करना जारी रखूंगी जहां हम अपने जीवन की सच्चाई का खुल कर सामना करने की हिम्मत रखते हों और समुदाय के लोगों से बातचीत के दौरान हम छोटा, निराशा और उलझन न महसूस करें बल्कि हमें अपने मानसिक घावों को भर पाने में मदद मिले और हम अपने निजी क्वीयर जीवन उल्लास के साथ व्यतीत कर पाएँ।

शुभांगी दिल्ली में रहने वाली एक लेखिका/कार्यकर्ता/शोधकर्ता हैं। उन्हें आशा है कि वे क्विअर भारतीय अनुभव के बीच की खाई को पहचानेंगी और उसे पाटेंगी। वह क्विअर सकारात्मक चिकित्सा प्राप्त करने, कॉफी पीना बंद करने और पीएचडी शुरू करने की उम्मीद कर रही है। साथ ही वह बेपैसा हो चुकी है।

सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित

To read this article in English, click here.