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साक्षात्कार – श्रीनिधि राघवन

A photograph of disability rights activist Srinidhi Raghavan. She is wearing a blue top with a white pattern, black-rimmed spectacles, and a yellow hair-band.

श्रीनिधि राघवन विकलांगता के साथ जी रही एक नारीवादी लेखिका, शोधकर्ता एवं प्रशिक्षिका हैं, जिनका कार्य विकलांगता, यौनिकता, नेतृत्व और प्रौद्योगिकी से संबंधित मानवाधिकार के मुद्दों पर आधारित है और विशेष तौर पर महिलाओं, बच्चों और किशोरों पर केंद्रित है। उनकी विशेषज्ञता  प्रशिक्षण, योजना संरचना, जांच और मूल्यांकन में है और वे ‘राइज़िंग फ़्लेम’ नामक भारतीय विकलांग अधिकार संगठन के साथ कई योजनाओं का सह-नेतृत्व करती आईं हैं। ‘बॉडीज़माइंड्स’ नामक फ़र्स्टपोस्ट में उनका मासिक कॉलम भारतीय संदर्भ में विकलांगता और जेंडर के संयोजन पर आलोचना करता है। शिखा आलेया के साथ इस साक्षात्कार में श्रीनिधि रिश्ते, यौनिकता, विकलांगता के साथ जीने वालों के सामाजिक बहिष्करण जैसे मुद्दों पर बात करतीं हैं, साथ में वे यह भी कहतीं हैं कि, “हर कोई जिन्हें देखभाल की ज़रूरत है, वे दूसरों की भी देखभाल कर सकते हैं। जिन्हें अपनी ज़िंदगी जीने में सहायता की ज़रूरत होती है, वे भी रिश्तों में अपनी तरफ़ से अनोखे योगदान दे सकते हैं।”

शिखा: श्रीनिधि, ‘इन प्लेनस्पीक’ के ‘विकलांगता और यौनिकता’ अंक के लिए हमसे बात करने के लिए शुक्रिया। क्या आप इस विषय पर अपने अनुभव और विचार हमें बता सकते  हैं?

श्रीनिधि: शिखा, मेरे साथ यह बातचीत करने के लिए आपका शुक्रिया। जब मैं विकलांगता और यौनिकता के बारे में सोचती हूं, मुझे इन दोनों शब्दों की विस्तीर्णता का एहसास होता है। इन दोनों शब्दों के अंतर्गत इतनी विविधता, इतनी गहराइयां हैं। ‘विकलांगता’ की परिभाषा ही इतनी विस्तृत है और ‘यौनिकता’ के इतने सारे पहलू हैं, और एक समाज, एक समुदाय के तौर पर हम अभी धीरे धीरे इन्हें पहचान रहे हैं और इनके अलग-अलग मायने निकाल रहे हैं। 

जब इन दोनों शब्दों का इस्तेमाल एकसाथ किया जाता है, कई लोगों को लगता है कि हम विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के सेक्स जीवन की बात कर रहे हैं, और कुछ हद तक वे सही हैं! मगर यह चर्चाएं इससे कहीं ज़्यादा बढ़कर हैं। विकलांगता और यौनिकता से जुड़ी आलोचनाएं इस बात पर रौशनी डालती हैं कि इस दुनिया में हर तरह के शरीर के लिए जगह है, और हर तरह का शरीर अपनी तरह से यौनिक अंतरंगता के अनुभव का आनंद उठा सकता है। 

विकलांगता और यौनिकता पर मेरे काम के आधार पर मैं बता सकती हूं कि यौनिकता के बारे में बहुत-सी जानकारी नॉन-डिसेबल्ड (जो विकलांगता के साथ  जी  नहीं रहे हैं) लोग पर ही केंद्रित है। आकर्षण, अवाचिक संचार, डेटिंग, सेक्स और रिश्तों के मायने इस आधार पर बदल जाते हैं कि इनसे जुड़ी आलोचनाओं का केंद्र कौन है। अब विकलांगता के साथ जी रहे लोगों को इस चर्चा में शामिल करने का मतलब है कि बहुत-सी चीज़ों को हम एक नए नज़रिये से देख पाते हैं। डेटिंग के क्या मायने निकलते हैं? किसी रिश्ते में एक या दोनों व्यक्ति विकलांगता के साथ जी रहे हों तो उस रिश्ते के कौन-कौन से पहलू बाकी रिश्तों से अलग होते हैं? आकर्षण और रोमांस को कैसे परिभाषित किया जाता है?

जैसे, स्पर्श का उदाहरण लेते हैं। विकलांगता के साथ जी रहे बहुत से लोगों के लिए स्पर्श से इस दुनिया में जीने का सहारा मिलता  है। अंतरंगता व्यक्त करने के लिए भी हम स्पर्श का इस्तेमाल करते हैं, जैसे हाथ पकड़ना या एक-दूसरे के शरीर का सहारा लेना। मुझे विकलांग कॉन्टेंट क्रीऐटर ऐंड्रू गुरज़ा का एक  वीडियो याद आता है। इस वीडियो में वे अंतरंग पलों के दौरान अपने साथी को शारीरिक सहारा देने (जैसे पलंग पर लिटाना, कपड़े उतारने में मदद करना वगैरह) के साथ-साथ इन पलों का स्वाद, उनकी शरारत और उनका मिठास बनाए रखने की बात करते हैं। वह क्या है न, विकलांगता के साथ जीने वालों की यौनिकता की बात होती है तो हम एक बड़े तकनीकी रूखेपन के साथ इसकी चर्चा करते हैं। लेकिन जितना हम इस पर बात करेंगे, उतना ही हम विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों के लिए जगह बना पाएंगे और इनसे वाक़िफ़ हो पाएंगे। दीर्घकालिक (क्रॉनिक) बीमारी के साथ जीते दौरान सेक्स का आनंद उठाने पर ऋचा कौल पडते का लेख मुझे इसी वजह से महत्वपूर्ण  लगता है। इसमें बताए गए कई सुझाव अलग-अलग तरह के शरीरों के काम आ सकते हैं, और यह यौनिक अभिव्यक्ति और अनुभव से जुड़ी रूढ़िवादी धारणाएं हटाने में मदद करता है। 

मुझे लगता है आजकल भारत में विकलांगता के साथ जी रहे काफ़ी लोग अपने अनुभवों पर खुलकर बात करने के लिए आगे आ रहे हैं, लेकिन सवाल यह रह जाता है कि कौन सी भाषाओं और किस तरह की विकलांगताओं को हमारे समाज में प्राथमिकता दी जाती है, और किस तरह के नैरेटिव लोगों तक पहुंच पाते हैं। मैं अक्सर सोचती हूं कि क्या शरीर, जेंडर और यौनिकता से संबंधित ज़रूरी जानकारी भारत में उन तक पहुंच पाती है जो सुन नहीं सकते?? रीढ़ की हड्डी की चोट के साथ जी रहे  लोगों और व्हीलचेयर इस्तेमाल करने वालों पर केंद्रित माहवारी, सेक्स और रोमांस संबंधित जानकारी उपलब्ध है क्या? ‘लर्निंग डिसेबिलिटीज़’ और अन्य बौद्धिक कठिनाइयों के साथ जीने वालों के लिए भी यह जानकारी ऐसे रूप में उपलब्ध होनी चाहिए जो सचित्र और पढ़ने में आसान हो। 

इस क्षेत्र में काम करते हुए मुझे यह एहसास हुआ है कि बहुत से लोगों के पास साझा करने के लिए हर तरह के व्यक्तिगत अनुभव हैं, बस उन्हें बात करने के लिए एक महफ़ूज़ जगह की ज़रूरत है। ऐसी जगहों की बहुत कमी है जहां विकलांगता के साथ जी रहे लोग अपने यौनिक अनुभवों या यौनिक जिज्ञासा के बारे में खुलकर बात कर सकें। खास तौर पर विकलांगता के साथ जी रहे युवाओं पर हर वक़्त निगरानी रहती है जिसका मतलब है कि वे यौन अनुभवों से वंचित रह जाते हैं और अपनी यौनिकता को समझ नहीं पाते। फ़िल्मों में भी विकलांगता के साथ जीने वालों के यौन अनुभवों का चित्रण नहीं देखने को मिलता है, जिसकी वजह से कई लोगों को लगता है कि हमारे अनुभव भी नॉन-डिसेबल्ड लोगों की तरह होंगे, जो हमेशा मुमकिन नहीं है। 

शिखा: इतनी स्पष्टता से हमें अपना नज़रिया समझाने के लिए शुक्रिया। लोगों की मानसिकता की बात की जाए तो इस मुद्दे पर बात करने पर आपको अब तक कैसी प्रतिक्रिया मिलती आई है? क्या इतने सालों में बदलाव के  कोई संकेत नज़र आए हैं?

श्रीनिधि: मुझे नहीं लगता इसका कोई सीधा जवाब है। मेरी यह चिंता है कि लोग आज भी विकलांगता को एक ‘कमी’ की नज़र से देखते हैं, और इसी के साथ यौनिकता जैसा मुद्दा मिला दिया जाए तो मामला बहुत जटिल हो उठता है। भारत में विकलांगता के साथ जीने वालों पर ज़्यादातर तरस खाया जाता है और उन्हें समझने और जानने की कोशिशों में भी यह दया की भावना नज़र आती है। नतीजा यह है कि लोग अक्सर “विकलांग लोगों पर आखिर किसका दिल आएगा?” जैसे सवाल करते हैं। 

ऐसी धारणा है कि विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के ‘आवश्यकता पदानुक्रम’ में यौनिकता की अहमियत सबसे कम है। ‘आवश्यकता पदानुक्रम’ की संरचना में ही चाहे कितनी खामियां हों, लोग तो यही मानते हैं। लोग यह भी सोचते हैं कि जो विकलांगता के साथ जीते हैं, उन्हें यौनिकता संबंधित मुद्दों में कोई दिलचस्पी ही नहीं है। हम सिर्फ़ शिक्षा, रोज़गार और सुलभता के बारे में सोचते हैं और यौनिकता के लिए तो हमारे मन में कोई जगह ही नहीं है। 

मुझे लगता है यौनिकता पर मेरा काम आज भी कई लोगों की हैरानी का कारण है क्योंकि इसे ऐसा मुद्दा नहीं माना जाता जिस पर चर्चा खुले में की जा सके। विकलांगता और यौनिकता पर काम करने का मतलब है विकलांगता के साथ जीने वालों के माता-पिता, शिक्षक, डॉक्टर और देखभालकर्ता जैसे लोगों का सामना करना जो मानते हैं कि विकलांगता के साथ जी रहे बच्चों के साथ-साथ वयस्कों को भी इन सब मामलों से दूर रखा जाना चाहिए। हम अक्सर यह सुनते हैं कि, “यौनिकता मेरे बच्चे के लिए नहीं है” जिससे लोग जानकारी और अनुभवों से और भी वंचित रह जाते हैं। 

माता-पिता, शिक्षकों और देखभालकर्ताओं से बात करने के लिए अलग तरीके अपनाने होते हैं। हमें इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि विकलांगता के साथ जी रहे लोगो को यौनिकता से संबंधित कोई गलत जानकारी न मिले। 

शिखा: यह सोचने वाली बात तो है! जब आप आपसी रिश्ते, यौनिकता और विकलांगता के बीच यह संसर्ग देखती हैं, आपको इससे जुड़ी ऐसी कौन सी ज़मीनी हक़ीक़तें नज़र आतीं हैं जो आमतौर पर हम नहीं देख पाते मगर जिन पर ध्यान देना ज़रूरी है?

श्रीनिधि: मुझे लगता है विकलांगता के साथ जीने वालों के व्यक्तिगत अनुभवों का अनदेखा रह जाना ही सबसे बड़ी ज़मीनी हक़ीक़त है। हाल ही में मैंने बधिर और दृष्टिहीन लोगों के जीवन के अनुभवों पर एक लेख लिखा है, जिसके लिए मुझे ऐसे कई लोगों के ट्वीट और वीडियो खंगालने पड़े जो यह मानते हैं कि हेलेन केलर का कोई अस्तित्व नहीं था और उनके जीवन की कहानी ‘फ़ेक न्यूज़’ है! विकलांगता के साथ जीने वाली एक औरत की हक़ीक़त की ऐसी उपेक्षा होते देखना कितना दर्दनाक होता है, खासकर जब उनकी ज़िंदगी का हर एक तथ्य हर जगह उपलब्ध है। लोग विकलांगता के साथ जीने वालों के जीवन की हक़ीक़त से ही वाक़िफ़ नहीं हैं। यह जहालत (या इसे जो कुछ भी कहा जाए) बहुत खतरनाक है और इसी वजह से विकलांगता के बारे में समाज का जो नज़रिया है, उसका आधार सिर्फ़ दया और शारीरिक सामर्थ्य के आधार पर भेदभाव है। 

लोग विकलांगता के साथ जीने वालों और हमारे दैनिक जीवन की हक़ीक़त के बारे में तभी समझ पाएंगे जब हमें भी उनके साथ एक मंच पर बैठकर चर्चा में हिस्सा लेने का मौका मिलेगा। आज भी मैं कई कार्यक्रमों और वर्कशॉप्स में जाती हूं (जो विकलांगता संगठनों द्वारा आयोजित नहीं हैं) तो देखती हूं कि वहां विकलांगता के साथ जीने वालों की संख्या बहुत कम है। हाल ही में फ़्रांस में जेनरेशन इक्वॉलिटी फ़ोरम आयोजित हुआ था जहां दुनियाभर के नारीवादी कार्यकर्ता एक बेहतर भविष्य की उम्मीद लेकर इकट्ठे हुए थे। एक ऐसा भविष्य जहां हिंसा कम हो और हर औरत को उसके यौनिक और प्रजनन अधिकार मिलें। लेकिन इस कार्यक्रम से विकलांगता के साथ जी रहीं औरतें वंचित रह गईं! अगर हम ऐसे कार्यक्रमों में उपस्थित ही नहीं होंगे तो यौनिकता, विकलांगता और रिश्तों के साथ हमारे अनुभवों के बारे में कोई कैसे सुनेगा? जिनके पास हमारी ज़िंदगियों के बारे सीमित जानकारी है हम उन तक अपनी आवाज़ कैसे पहुंचाएंगे? 

शिखा: एक लेख में आपने फ़ाइब्रोमायलजिया की तकलीफ़ के साथ जीने के अपने अनुभव साझा किए हैं। उसमें आपने लिखा है कि — जब भी मैं लोगों से अपनी इस तकलीफ़ की बात करते करते अपने जीवनसाथी का ज़िक्र करती हूं, वे पूछते हैं, “अच्छा, वह करता क्या है? उसे तुम्हारी बीमारी के बारे में पता है? इसके बावजूद वह तुम्हारे साथ है?” क्या सामाजिक रिश्तों और इन रूढ़िबद्ध धारणाओं का संशोधन करना मुमकिन है? ऐसी सोच के बदले में हम किस तरह के वैकल्पिक विचार अपना सकते हैं?

श्रीनिधि: ऐसी टिप्पणियों के पीछे इतने सारे कारण रहते हैं! मुझे लगता है लोग विकलांगता और दीर्घकालिक बीमारियों को आज भी कमियां समझते हैं और इनके साथ जीने वालों को महज़ हमदर्दी के पात्र के अलावा कुछ नहीं समझते। ऐसी धारणाएं इतनी मज़बूत हैं कि लोगों को यह समझने में मुश्किल होती है कि हर कोई जिन्हें देखभाल की ज़रूरत है, वे दूसरों की भी देखभाल कर सकते हैं। जिन्हें अपनी ज़िंदगी जीने में सहायता की ज़रूरत होती है, वे भी रिश्तों में अपनी तरफ़ से अनोखे योगदान दे सकते हैं। 

लोगों की पुरानी पितृसत्तात्मक मानसिकता यह भी कहती है कि हर रिश्ते में सेवा और देखभाल का काम औरतों का ही होता है, इसलिए विकलांगता के साथ जी रही कोई औरत या तो किसी गहरे, प्यारभरे रिश्ते का हिस्सा नहीं बन सकती या उससे प्यार करने वाला मर्द ज़रूर कोई महापुरुष होगा। विकलांगता के साथ जीने वाली औरतों की सच्चाई यही है। पितृसत्ता और शारीरिक सामर्थ्य के आधार पर भेदभाव, दोनों ही हमें दबाकर रखते हैं। 

मुझे लगता है सामाजिक बदलाव के साथ-साथ यह मानसिकता भी बदलेगी और हमें अनदेखा नहीं किया जाएगा। हमें विकलांगता के साथ जी रहे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के विविध और अनोखे अनुभव सुनने को मिलेंगे और आने वाले कल में क्या-क्या हो सकता है इस पर हमारे ख्याल भी बदलते रहेंगे। अपने जैसे बाकी लोगों के अनुभवों से वाक़िफ़ होने से विकलांगता के साथ जीने वालों का भी आत्मविश्वास बढ़ता जाएगा। विकलांगता के साथ जीने वाली औरतें अक्सर कहती हैं कि, “अब मुझसे प्यार और शादी कौन करना चाहेगा?” जो विकलांगता के साथ जीते हैं उनके  इस तरह उपेक्षित होने और उनसे संबंधित रूढ़िवादी नैरेटिव बनने का असर यह होता है कि वे सोच ही नहीं सकते कि उनकी ज़िंदगी में कुछ अच्छा हो सकता है। 

पिछले कई सालों में मेरा काम रहा है विकलांगता के साथ जीने वाले लोगों की आवाज़ और अनुभवों को मुख्यधारा में लाने का। इससे हमारे बारे में नॉन-डिसेबल्ड लोगों के भ्रम तो दूर होते हैं, पर सबसे पहले हमारी ज़िंदगी की हक़ीक़त पर चर्चा के लिए जगह बनती है ताकि लोग हमें देख और सुन पाएं और हम आने वाले कल के सपने देख सकें। मेरे लिए यही सबसे ज़रूरी बात है!

ईशा द्वारा अनुवादित

To read the interview in English, please click here.