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दो कविताएँ

An old Rajasthani building with a lot of pillars and arches

चारपाई

कई रंगों की चारपाई,
लोहे के उसके पैर,
अलग सी थी कुछ,
लकड़ी की चारपाई से ज़्यादा मज़बूत,
ज़्यादा अल्हड़।

कोई उस पर हमारा सिर पटक देगा,
तो मुड़ेगी नहीं,
तस से मस भी नहीं होगी,
बस रहेगी
जैसी थी।
हुनर है उसमें,
बदलते मौसम के साथ
संचारात्मक अखंडता बनाए रखने का।

लकड़ी वाली चारपाई तो जैसे उसके सामने मुरझा सी गई हो,
जैसे उसे कभी किसी कारीगर ने अपने कोमल कमलों से गढ़ा हो,
और यह – मैनचेस्टर की फैक्ट्रियों की उपज,
कोई मुक़ाबला ही नहीं।

आओ, बैठते हैं,
तुम लोहे वाली चारपाई ले लो,
हम लकड़ी वाली।

या फिर साथ बैठें?
तुम्हें इधर आना होगा,
सात समंदर पार,
जहाँ जूट के रेशे
हमारे सूती कपड़ों की इस्त्री खराब करें,
जहाँ प्लास्टिक के पक्के बाल का सहारा न हो,
जहाँ हमारे बैठने का सबूत दो पलों का मोहताज न हो।

चलो फिर,
बैठते हैं,
बकैन के नीचे।
तुम्हें जाने से पहले
नींबोली की चुभती फटकार भी खानी है।

हवेली।

हवेली
टूटी हुई।
पेंट, जैसे जली हुई चमड़ी की तरह उखड़कर गिर रहा हो।
सिर पर भी गिरा हमारे,
और समा गया
बाल सफ़ेद हो गए,
ग्रे सेल्स ने खुदकुशी कर ली।

अतीत के अवशेष,
फैले पड़े हैं चारों ओर।
ईंट दर ईंट पुनर्निर्माण होगा,
कुछ ईंटों को फेंकना भी पड़ेगा,
और कुछ को संजोकर रख लिया जाएगा
अटारी पर मूंगफली खाने के लिए।

बाज़ार के बीचों-बीच,
दुकानों से घिरी हुई।
खेत बहुत दूर निकल गए।
अब ये दूरी कैसे पाटें?
नहर जितना फासला,
बिना तैराकी किए कैसे तय करें?

नेता बचाने का अभिनय कर रहे हैं।
यह संरक्षण नहीं,
यह अतीत को जकड़कर रख लेने की थकी हुई ज़िद है।
जाने दो,
मुक्त करो।
उस पिछड़े अतीत की याद में
एक गुंबद बनवा दो।

बचाने का परचम
इंटरनेट के अपने साथियों तक पहुँचा दिया गया है।
हवेली पर नया पेंट चढ़ेगा।
अंदर जमी फफूंदी को छुपाने का,
भीतरी दरारों पर परदा डालकर
एक नई शुरुआत करने का अच्छा तरीका है।

Cover image by Vikram Chouhan Udaipur Web Designer on Unsplash