सहमति को समझने के लिए हम किस तरह के ढाँचे का इस्तेमाल करते हैं?
हम भाषा पर निर्भर करते हैं। “हाँ” का मतलब इजाज़त देना, और “ना” का मतलब मुकरना। आसान और सरल शब्दों में हमें बताया जाए तो सहमति का मतलब इन्हीं दो अल्फ़ाज़ों से आता है। बाइनरी इतनी स्पष्ट, इतनी पक्की कि इसमें भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं है। आसान है, है न?
पर यह काफ़ी नहीं है।
“हाँ”, जिसे सहमति का सार्वलौकिक विवाचक कहा जाता है, वह शायद ही कभी उतना सरल होता है जितना लगता है। यह इसे परिभाषित करने वालों की समझ के अनुसार फैलता है, बदलता है और रूपांतरित होता है।
“हाँ” की परिभाषाएँ अलग-अलग हैं। चुप्पी का मतलब “हाँ” है। सहनशीलता का मतलब “हाँ” है। पूर्व सहमति का मतलब “हाँ” है। यौन अनुभव का मतलब “हाँ” है। विवाह अनुबंध का मतलब “हाँ” है। लैंगिक असंगति का मतलब “हाँ” है। भेद्यता का मतलब “हाँ” है। सब कुछ “हाँ” हो सकता है। कोई भी चीज़ “हाँ” हो सकती है।
अगर “हाँ” एक आकार परिवर्तक है, तो “नहीं” एक भूत की तरह है।
यतक कि जब “नहीं” एक डरावनी उपस्थिति के रूप में सामने आता है – मंडराता हुआ, निर्विवाद, कमरे में एक हाथी की तरह – तब भी नज़रें फेर ली जाती हैं, और साथ ही साथ उस दौरान एक तरह की उदासीनता प्रचलित हो जाती है। जब “नहीं” नरम और कम प्रभावशाली होता है तो उसे बेझिझक नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। और जब “नहीं” केवल शब्दों के बीच के खाली जगहों में, जोश की ग़ैरहाज़िरी में, अनकही असहजता में मौजूद रहता है तो उसे सख़्ती से नकार दिया जाता है।
इन सबका मतलब यह है कि सहमति की भाषा तटस्थ नहीं है। जहाँ इसे सूक्ष्म होना चाहिए वहाँ यह कठोर है, तथा जहाँ इसे दृढ़ होना चाहिए वहाँ यह नरम है। “हाँ” एक सर्वव्यापी रूह है, जो लगातार विस्तारित होती रहती है – “नहीं” निराशाजनक रूप से जकड़ा हुआ है, जो कि मुश्किल से दिखाई देता है। हालाँकि हाँ/नहीं की बाइनरी शारीरिक स्वायत्तता की रक्षा करने का सम्मानपूर्वक इरादा रखती है, वहीँ दूसरी ओर सहमति की जटिलता को ध्यान में न रखने से इसका उल्टा नतीजा प्राप्त होता है। हमने मिलकर बातों के पीछे छिपे मतलब को समझने से इनकार किया है, और उसकी जगह सीमाओं वाली भाषा को और मज़बूत किया है।
साफ़ तौर पर कहें तो सहमति का मतलब है किसी भी गतिविधि में – चाहे यौन हो या कुछ और – अपनी इच्छा और उत्साह से हामी भरना। सिर्फ़ “ना” का न होना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि “हाँ” का साफ़ और सक्रिय रूप से होना ज़रूरी है। यह एक चलती रहने वाली बातचीत है – यानी इसे कभी भी दोबारा तय किया जा सकता है, बदला जा सकता है, या रोका जा सकता है, भले ही पहले हामी दी गई हो। सहमति जानकारी के साथ और बिना किसी दबाव के दी जानी चाहिए। ज़बरदस्ती, दबाव, ताक़त का फर्क, या सोचने-समझने की क्षमता का कम होना (जैसे नशे, डर या बाहरी असर की वजह से) – इन सबकी मौजूदगी में सहमति सही नहीं मानी जाती है।
भाषा कोई अलग या खाली जगह में नहीं होती है।
भाषा हमारे समाज और संस्कृति की बनावट से बनती और कई बार बिगड़ती भी है। शादी जैसे ढाँचे अब भी हिंसा को बढ़ावा देते हैं – क्योंकि पति या पत्नी होने के नाते यह मान लिया जाता है कि वह हमेशा सहमति देने वाले लोग हैं। इसका नतीजा यह होता है कि करीबी रिश्तों में होने वाली हिंसा बिना रोक-टोक जारी रहती है। हाशिए पर जीने वाले समुदायों के साथ उनके शरीर की आज़ादी से जुड़ी कई तरह की ज़्यादतियाँ होती हैं – उनकी सहमति को अक्सर चिकित्सा क्षेत्र, कानून या समाज में नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। बहुत से बचे लोगों के लिए न्याय अब भी दूर की बात है, क्योंकि जिन संस्थाओं को उनकी मदद करनी चाहिए, वही कई बार नुकसान पहुँचाती हैं।
तो फिर, ये थोड़े-से शब्दों का इस्तेमाल करने का हक़ किसे मिलता है? जब बोलकर किया गया विरोध ही नहीं सुना जाता, तो हम और गहरी बातों को कैसे समझ पाएंगे?
प्रांजलि शर्मा द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।
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