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भाषा, एक इच्छा

Bhasha-ek-iccha-2

मैं 38 साल की हूँ, शहर में पली-बढ़ी हूँ, अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल से पढ़ाई की है, आज अपने पैरों पर खड़ी हूँ, जेंडर के मुद्दों पर वर्कशॉप और रिसर्च करती हूँ फिर भी प्यार, चाहत, इच्छा के बारे में अपनी माँ और अपने परिवार से बात करने में एक शर्म महसूस करती हूँ, एक झिझक है। पता नहीं वो समझेंगे या नहीं और अगर बताऊँ तो कैसे बताऊँ, क्या कहूँ? इसी शर्म और झिझक की वजह से शायद मेरे अंदर एक चुप्पी है। क्या आपने अपनी माँ के साथ ऐसी बातें की हैं, उनके प्यार, चाहत, इच्छा के बारे में कभी बात हुई है? कैसा था आपका अनुभव? मुझे लगता है कि परंपरा, संस्कृति, इज़्ज़त ने मेरे अंदर एक डर बैठा दिया है और मैं अपनी इच्छा के बारे में बात करने के लिए शब्द और जगह दोनों ही ढूंढती रहती हूँ।

मुझे अपने अंदर ये चुप्पी तोड़ने का मौका मिला जब मैंने और मेरी दोस्त एकता ने मिलकर एक नाटक बनाया – लिफ़ाफ़िया। इस शब्द का मतलब है, जो बाहर से देखने में तो बहुत सुन्दर है, भव्य और अंदर से खोखला। ये नाटक खासकर समाज द्वारा ‘ऊँचे’ माने वाली जातियों के अंदर परंपरा के नाम पर हो रहे दिखावे और रोक-टोक पर सवाल उठाता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी रिश्तों के बीच कैसे कहे-अनकहे तरीके से हमें समाज के दायरे समझा दिए जाते हैं। इस नाटक की कहानी मेरी कहानी है। मेरे अनुभवों पर आधारित ये नाटक बनिया समुदाय के अंदर परंपरा और इज़्ज़त के ढांचे पर सवाल उठाने की कोशिश करता है।

इस तरह की बात-चीत कई बार मेरे और मेरी माँ के बीच हुई है। अब इसे बात-चीत कहें, झगड़ा या कुछ और। मेरे और मेरी माँ के बीच एक उम्र के बाद से हमारी इच्छाओं के बारे में बात करने की जगह ही नहीं है। समाज के दायरे और रीती-रिवाज़ के भोज ने हम दोनों को एक रोल में फिक्स कर दिया है जिसके चलते एक-दूसरे को समझना हम दोनों के लिए ही बहुत मुश्किल है। और फिर माँ-बेटी के बीच प्यार और चाहत की बात करने की भाषा ही कहाँ है? जबकि एक लड़की के ऊपर समाज के प्रेशर को दोनों ने ही अपनी-अपनी उम्र में झेला है, लकिन फिर भी बात करने के लिए शब्द नहीं है और शायद इसलिए दोनों के बीच एक खिंचाव, गुस्सा और चुप्पी है।

और कई बारे चाहे-अनचाहे में माँ यही खिंचाव, गुस्सा और चुप्पी पीढ़ी-दर-पीढ़ी लड़की में आगे बढ़ा देती है, बिना इस पर सवाल उठाये। कहते हैं ना, “ऐसा ही तो होता आया, तुम लड़की हो भूलना मत”। एक माँ ही अपनी बेटी को ये बोलती है, समाज में उसे अपना दायरा समझाती है। वो उसे सपने तो देखने को कहती पर समाज के इस दायरे में रह कर। बेटी के सपनों की कल्पना पर रोक, क्या ये उसकी सेक्सुअलिटी पर रोक नहीं है? सेक्सुअलिटी सिर्फ एक पहचान नहीं है बल्कि रोज़ की ज़िन्दगी के अनुभव भी हैं जिसको पितृसत्ता हर दिन कंट्रोल करने की कोशिश करती है। पर परिवार के अंदर इस पर बात करने के लिए भाषा और जगह कहाँ है? और जिस शरीर पर ये रोक-टोक हो रही है, उस शरीर के बारे में ही बात करने में इतनी शर्म है। क्यों? मुझे ऐसी भाषा और जगह की तलाश हैं जहाँ मैं अपने परिवार से, अपनी माँ से, अपने शरीर और इच्छाओं के बारे में खुलकर बात कर पाऊं, बिना शर्म और झिझक के।

मरा कलेक्टिव2 में हमने फ्रीडा थिएटर ग्रुप के साथ मिलकर नाटक बनाया। फ्रीडा थिएटर मध्य प्रदेश से महिलाओं का नाटक का ग्रुप है जो दलित और आदिवासी समुदाय से आती हैं। ग्रुप का मकसद है कि अपनी कहानी खुद नाटक के माध्यम से दुनिया के सामने रखने का मौका मिले। फ्रीडा के साथियों ने हम से एक सवाल पूछा था, “तथाकथित ऊँची जातियों में लड़की के साथ हिंसा नहीं होती क्या? आपके घर में सब औरतें खुश हैं? अखबार तो हमारी ही हिंसा की कहानियों से भरे पड़े हैं। आपके यहाँ से तो हिंसा के बारे में कुछ नहीं सुनते। आपके घरों में ऐसा नहीं होता क्या?” शायद ऐसे सवाल ने ही मुझे लिफ़ाफ़िया बनाने के लिए प्रेरित किया। मेरी इच्छाएं क्या है, इसके बारे में मैंने कभी बात क्यों नहीं की?

A woman putting on her ghungru before or after her performance

आपको नाचना पसंद था क्या?
फिर ये घुंघरू क्यों उतार दिये?

इच्छा में कल्पना, कल्पना में इच्छा

This is an excerpt from the play that acts out the death of a woman's desire and how it haunts and elludes her over time.

ज़िन्दगी में जिन औरतों से मैं मिली हूँ, उनको मन में रख कर मैंने ये कहानी लिखी। शायद सच है कि सेक्सुअलिटी और इच्छा की बात करते वक़्त कल्पना की ज़रूरत पड़ती है। क्यूंकि असल ज़िंदगी में इसके लिए ज़्यादा जगह नहीं है। एक 38 साल की कुंवारी औरत के साथ क्या करें, मेरे परिवार और समुदाय को ये समझ नहीं आता। रीति-रिवाज़, पूजा-पाठ में मेरे साथ क्या करना है, कहाँ बैठाएं मुझे, कोई रोल नहीं है मेरा। अपने परिवार को मैंने दूसरों के सामने शर्मिंदा होते हुए देखा है क्यूंकि मेरी शादी नहीं हुई। लेकिन सब कुछ दबा-ढ़का है, तथाकथित ऊँची जाति में इज़्ज़त का डर ज़्यादा है, हर छोटी बात पर तो नाक कट जाती है। समुदाय की अपनी अलग एक भाषा है, बिना बोले सबको मालूम होता है कि कब क्या बोलना है, कब चुप रहना है। और जाति के ये नियम अनकहे तरीकों से अगली पीढ़ी को सीखा दिए जाते हैं।

An excerpt from the author's play, showing the financial burden placed on a bride's family under the pretext of liberal, dowry-free values, via ritualistic demands.

तथाकथित ऊँची जाति में बहुत प्रेशर है सब कुछ बाहर से सुन्दर दिखाने का, अंदर से चाहे सब कुछ खोखला क्यों न हो। घर की बात बाहर नहीं जानी चाहिए। इसलिए बाहर से सब अच्छा है, सोने के गहने, नए कपड़े, आलीशान दावत, और अंदर से चाहे कर्ज़ा उतारने की परिस्तिथि ही न हो। ये जो गिफ्ट रैप में पैक करके इज़्ज़त आती है, ये भी जाति का भोज है, जिसके लिए तथाकथित ऊँची जाति के सभी सदस्य ज़िम्मेदार हैं। अगर मैं इस पर सवाल नहीं उठाउंगी तो मैं भी इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार हूँ। परिवार और समुदाय के अंदर ये सवाल उठाने के लिए कौन तैयार है? इस परंपरा और दिखावे के बोझ के बीच मेरी इच्छा के बारे में बात करने के लिए जगह कहाँ है?

Play excerpt featuring a conversation where a young girl tells her sister applying kohl (kajal) will make all her wishes come true.

ज़िन्दगी में कभी-कभी हम ऐसी औरतों से मिलते हैं जो हमें हौंसला देती हैं, जो याद दिलाती हैं की इच्छाओं को ज़िंदा रखना कितना ज़रूरी है। मैं खुशनसीब हूँ कि काजल जैसी और भी दोस्त मेरी ज़िन्दगी में आयीं जिन्होंने मेरी इच्छाओं के लिए जगह बनायी। और शायद जब एक विश्वास और उम्मीद की जगह बनती है तो भाषा अपने आप बहने लगती है।

परंपरा और अकेली लड़की का खतरा

क्यूंकि मैंने शादी नहीं कि तो समुदाय और परिवार के अंदर कई अधिकार मुझे नहीं दिए गये, जैसे कि परिवार के फैसलों में मेरी राय ना लेना, रीती-रिवाज़ में मेरे लिए कोई जगह ना होना। मैंने शादी नहीं की तो समाज मुझे बिगड़ी हुई लड़की, चरित्रहीन, एक शक़ की निगाह से देखता है। मुझे एक तरह से ख़तरा मानता है। लेकिन मेरे परिवार में किसी ने आज तक सच्च में समझने के इरादे से मेरे से कभी नहीं पूछा कि मुझे शादी क्यों नहीं करनी। हमेशा या तो गुस्से से कहा है या फिर मेरे लिए चिंता से कहा है, एक अकेली लड़की ज़िंदगी कैसे जियेगी। कुछ लोग मुझसे परेशान भी हो गए हैं और प्रॉब्लम का सलूशन बताने लगते हैं, सभी शादियां एक सी नहीं होतीं, थोड़ा एडजस्ट तो करना ही पड़ता है, या फिर तुम्हारे ही नख़रे ज़्यादा हैं, कोई नहीं झेलेगा ये सब। पर मुझे इस बात का ताज्जुब है कि आज तक मैंने अपने परिवार में ये बात किसी से नहीं की कि मुझे शादी क्यों नहीं करनी। ना किसी ने पूछा, ना मैंने बताया। बस एक प्रेशर है कि शादी कर लो, बिना सवाल पूछे, क्यों। ये बात करने के लिए शब्द और जगह कहाँ है? शायद समाज की इस निगाह की वजह से मैं और चुप हो गयी। मेरे लिए रास्ता ख़ुला जब मैं नाचने लगी। मेरे शरीर को शब्दों के बाहर एक भाषा मिली।

This is an instructional dialogue of a Kathak teacher explaining to his cohort how to express with their eyes and frame a movement.

A woman making a turn during her dance performance

इच्छा के बारे में बात करने के लिए
भाषा और जगह कहाँ है?

हर एक कला और भाषा का नियम होता है। और उसपे सवाल उठाने या तोड़ने के लिए हिम्मत की ज़रूरत पड़ती है। जब भी हम परंपरा और रूढ़िवादी सोच को तोड़ने की हिम्मत दिखाते हैं, मुझे लगता है वही से एक नया नज़रिया पैदा होता है। लिफ़ाफ़िया मेरे लिए ऐसा ही एक सफ़र है।

भाषा और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का गहरा रिश्ता है। भाषा के साथ-साथ हमें जगह की भी ज़रूरत है, अपनी बात खुलकर रखने के लिए और पितृसत्ता ने दोनों पर ही कब्ज़ा कर रखा है। नाटक में मैं कहती हूँ –

हर बगावत की एक कीमत चुकानी पड़ती है और ये कीमत चुकाना सबके लिए पॉसिबल नहीं है।

जब हम परंपरा पर सवाल उठाते हैं, तो अड़चन तो आएगी ही, और इसकी कीमत भी चुकानी पड़ेगी। पितृसस्ता हर जगह है, भाषा में, सोच में, इस पर सवाल उठाना मेरा कर्त्तव्य है और हमारा काम भी।

This is a letter from a daughter to her mother. She is explaining her desire of building a life outside of marriage, contrary to what her mother and society wants for her.

काश मैं अपनी माँ के साथ शादी के अलावा भी कुछ बात कर पाती। जो भी बात करो घुमा-फिरा के मेरे चरित्र और शादी पर ही आ जाती है। हम इसके दायरे के बाहर कभी बात कर ही नहीं पाए। मैं चाहती हूँ एक ऐसी भाषा जहाँ मैं अपनी माँ से प्यार, चाहत और इच्छा के बारे में बात कर पाऊं, हम एक-दूसरे को सुन पाएं। शायद दुनिया तैयार नहीं है माँ-बेटी के बीच बातचीत के लिए, जैसे कि अगर दोनों ने एक-दूसरे को अपने मन की सारी बातें बता दीं और दोनों साथ आ गए तो ना जाने क्या हो जायेगा। शायद इस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की जड़ें कांपने लगें। शायद ये मुमकिन भी है और इसका ही डर है। इसलिए परंपरा, समुदाय के नियम के दायरों में दोनों को इतना उलझा के रखा है कि वो एक-दूसरे को सुन ही नहीं पा रहे, बस शब्दों में उलझे हैं – बिगड़ी हुई, हाथ से निकली हुई, चरित्रहीन। तो फिर मैं अपनी माँ से कैसे बात करूँ?


  1. सभी सीन की स्क्रिप्ट लिफ़ाफ़िया नाटक से ली गयी है। ये नाटक एकता और अनुषी ने मरा संस्था की सहयोग से बनाया है। ये नाटक औरतों में पीढ़ियों के बीच बातचीत की झलक देता है, उनकी खुद की जगह ढूंढने की एक कोशिश है। ⤴︎
  2. मरा, मीडिया और आर्ट्स कलेक्टिव रिसर्च, डॉक्यूमेंटेशन और कला के माध्यम से ऐसी कहानियों के लिए जगह बनाने का काम करता है जिन्हे व्यवस्थित तरीके से दबाया या मिटाया गया है। 2008 से वो जेंडर, लेबर और जाति पर काम करते आ रहे हैं। ⤴︎

Cover image credit: Ekta M.