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उन्मुक्त स्वछंद व्यवहार और लोगों की प्रतिक्रिया – एक मेट्रो यात्री की नज़र से 

मेट्रो के एक डब्बे के अंदर की तस्वीर। मेट्रो के अंदर लाल रंग की सारी सीट खाली हैं।

मैं नियमित आधार पर मेट्रो से सफर करती हूँ; राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में यात्रा करने और यहाँ वहाँ आनेजाने के लिए मैं इसका उपयोग करती हूँ। हाल के दिनों में मेट्रो में यात्रा करते समय मेरे साथ अनेक स्मरणीय घटनाएँ हुई हैं। इसलिए हैरानी की बात नहीं कि जब मैंने  यौनिकता और मानवाधिकार विषय पर अपने विचार लिखने की सोची, तो मुझे मेट्रो में अपनी यात्रा के दौरान हुई अनेक घटनाएँ याद आने लगी जोयौनिकता और मानवाधिकारविषय पर मेरा नज़रिया बनाने और इसे संपुष्ट करने में सहायक रही हैं। 

एक रात करीब 9 बजे मैं मेट्रो में दिल्ली से गुड़गाँव जा रही थी। मैंने जल्दी में भाग कर मेट्रो पकड़ी थी और जनरल डिब्बे में चढ़ गयी और एक सीट पर बैठी। मैंने पाया की डिब्बा पूरी तरह से आदमियों से भरा हुआ था। मैं थोड़ी असहज होने लगी। समय बीतने के साथ यात्रियों की संख्या कम होने लगी। सुल्तानपुर स्टेशन पर मेट्रो रुकी डिब्बे में केवल 10-15 यात्री ही रह गए थे। तभी डिब्बे में एक सवारी चढ़ी जिसने गुलाबी रंग का टैंकटॉप पहना हुआ था, होंठ गहरे गुलाबी रंग में रंगे थे और उनकी पीठ पर एक टैटू बना हुआ था। उस सवारी के डीलडौल और शरीर की बनावट को देख कर सामाजिक विषमलैंगिक मानकों के आधार पर उसेआदमीही कहा जाएगा। जैसे ही यह व्यक्ति मेट्रो में चढ़े, मुझे यह सोच कर थोड़ी सी चिंता होने लगी कि अब जाने डिब्बे में सवार दूसरे लोग उनके बारे में किस तरह की बातें करेंगे। यही सोचते हुए मैंने आने वाले समय में होने वाली बातों को अनदेखा करने की कोशिश करते हुए अपनी आँखें मोबाइल फोन की स्क्रीन पर गड़ा लीं।    

लेकिन अपने आसपास लोगों की हंसी की आवाज़ सुनकर बहुत देर तक मोबाइल की स्क्रीन पर आँखें लगाए रखना मेरे लिए आसान नहीं था। चेहरा ऊपर उठाकर देखा तो पाया कि अधेड़ उम्र के दो पुरुष जो आमने सामने की सीटों पर बैठे थे, वे ज़ोरज़ोर से हंस रहे थे। उनमें से एक, दूसरे से ज़ोर से कह रहा था, “देख यह छक्का, पिंक पहन के चढ़ा है। देख, देख, सही है, मज़े लेने के लिए मेट्रो में जाना चाहिए। साले कहाँकहाँ से जाते हैं। उसकी लिपस्टिक तो देख! उसका साथी वो दूसरा आदमी भी बिना मतलब हंस रहा था। डिब्बे में दूसरी सवारियों पर तो मानों इस तरह की बेहूदा बातें सुनकर बिलकुल भी असर नहीं हो रहा था। लोग बिलकुल परवाह किए बगैर अपने में मस्त थे। ज़ोरज़ोर से काही गयी ऐसी ही कुछ और बातें सुनकर मेरे अंदर गुस्से के मारे उबाल आने लगा था।

आखिर में, मैं अपने गुस्से को काबू में रख सकी और मैंने उन दो आदमियों से ज़ोर से पूछ ही लिया कि उन्हें आखिर क्या तकलीफ है। मैंने उनसे पूछा कि क्या वो बता सकते हैं कि ऐसी कौन सी मज़ाक की बात है जो वो इतनी ज़ोर से हंस रहे हैं। मैंने यह भी कहा कि उन्हें गाड़ी में सफर कर रहे किसी दूसरे व्यक्ति के बारे में इस तरह की बातें नहीं कहनी चाहियें और कम से कम उसे इस तरह से छक्का  कहकर नहीं बुलाना चाहिए। एक महिला द्वारा इस तरह से फटकारे जाने से इन दो हट्टेकट्टे पुरुषों को बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा, और उन्होने, उस व्यक्ति कि ओर से ध्यान हटकार मुझे बुरा भला कहना शुरू कर दिया। अभी यह सब चल ही रहा था कि, किसी तकनीकी खराबी के चलते मेट्रो अचानक चलतेचलते बीच में ही रुक गयी। मुझे अपने सीने में अपना ज़ोर से धड़कते दिल की धड़कन साफ महसूस होने लगी थी क्योंकि अब मुझे अपनी ही सुरक्षा पर खतरा नज़र रहा था। वो व्यक्ति, जिसके बारे में ये दोनों आदमी अब तक यह सब कुछ कह रहे थे, वो भी चिंतित नज़र आने लगे थे। मेट्रो कुछ देर और रुकी रही तो इस व्यक्ति नें डिब्बे में लगा बटन दबाकर मेट्रो ड्राईवर से बात की और कहा कि वो जल्दी से मेट्रो को आगे बढ़ाएँ। फिर यह व्यक्ति चिंता में डिब्बे के अंदर ही चहलकदमी करने लगे। आखिरकार, मेट्रो आगे चली और सौभाग्य से अगले ही स्टेशन पर मुझे उतरना था। मैं मेट्रो से उतरी दो देखा कि वो व्यक्ति भी वहीं उतर  गए। 

इस घटना नें मुझे हिलाकर रख दिया था। मुझे महसूस हुआ कि हमारे समाज में जहां सामान्य से हटकर किसी भी तरह के व्यवहार को मान्य नहीं समझा जाता, वहाँ लोगों को सिर्फ अपने जेंडर और यौनिकता की अभिव्यक्ति करने की भी कितने बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। समाज के इस असहनशीलता से मेरे मन में डर का जो भाव पैदा हुआ, वह मेरे लिए कोई नया नहीं था। मैंने खुद भी उन दिनों ऐसा महसूस किया है जब मैंने खुद को आकर्षक और सेक्सी दिखाने के लिए कभी कोईछोटीड्रेस पहनी हो या भड़कीला मेकअप लगाया हो। ऐसे में लोगों द्वारा अपनी ओर पड़ने वाली निगाहों से मैंने खुद को सरेआम कपड़ो के बिना मानो नग्न और गलीच महसूस किया है। ऐसे में  मेरा मन करता है कि मैं कहीं छिप जाऊँ और मैं अपने बैग कि ओट में अपना बदन या बालों के पीछे चेहरा छुपा लूं मुझे ऐसा ही महसूस तब भी होता है जब मैं मेट्रो के जनरल डिब्बे में किसी दूसरी महिला के बारे में लोगों को इसी तरह से बात करते, उसकी ओर घूरने या भद्दे मज़ाक करते देखती हूँ, फिर भले ही यह महिला किसी पुरुष के साथ ही यात्रा क्यों कर रही हो। इसके अलावा अगर मेट्रो में, या स्टेशन पर भी कहीं कोई लड़कालड़की हाथ पकड़े खड़े हों और बहुत पासपास खड़े हों तो भी लोग उन्हें घूर कर देखने लगते हैं। इस तरह से देखे जाने पर ऐसा लगता है जैसे कोई आपकी निजता में दखल दे रहा हो। इससे बहुत ही असहज कर देने वाली फीलिंग आती है। 

लेकिन, उस दिन एक अन्य व्यक्ति को इस तरह की शर्मनाक ज़िल्लत सहते देखना, मेरे लिए बहुत दुखी कर देने वाला अनुभव था। मुझे यह सब देख कर समाज में लोगों में मानवता या फिर मानवता की कमी पर सवाल खड़े करने का मन हुआ कि क्यों हमारे यहाँ कुछ लोगों को केवल इसलिए अपने में कमी महसूस कराया जाता है क्योंकि उन्होंने अपनी वास्तविकता, अपने व्यक्तित्व को खुले तौर पर ज़ाहिर करने की हिम्मत की। मुझे यह सब बिलकुल भी गवारा नहीं होता। उस व्यक्ति के खिलाफ उन दो आदमियों द्वारा कही जा रही बातों को सुनकर मैंने खुद को उसकी जगह पर रखकर देखने की कोशिश की, तो मेरे लिए यह अनुभव इतना दर्द दायी और उत्पीड़क था कि मैं शब्दों में इसका बयान नहीं कर सकती। अपने जेंडर और अपनी यौनिक पहचान के कारण किसी सार्वजनिक स्थान पर नहीं जा पाने का अनुभव, निजी तौर पर मुझे कभी नहीं हुआ है, लेकिन इस तरह की ज़िल्लत, किसी भी व्यक्ति के लिए उत्पीड़न की उच्चतम सीमा हो सकती है। ऐसा व्यवहार, किसी भी व्यक्ति से उसके मनुष्य होने के भाव, उसके पूरे अस्तित्व को छीन लेने जैसा है, और वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वो समाज में केवल विषमलैंगिकता को ही सामान्य नहीं मानते

ऐसी हर घटना से, खास कर वो जिसमें गुलाबी टैंकटॉप पहने व्यक्ति के साथ बुरा व्यवहार हुआ, मेरे मन में एक डर, एक निस्सहाय होने का भाव पैदा होने लगा है। एक युवा महिला के रूप में, केवल महिला होने के कारण पितृसत्ता के इन, तथाकथित रखवालों द्वारा मुझे छेड़े जाने, मुझपर फब्तियाँ कसें जाने या मुझे मेरी औकात दिखाने की कोशिश करने के कारण ही मुझे मेट्रो जैसे आम सार्वजनिक स्थान पर भीखुले मन से, निश्चिंत होकर घूमने में मुश्किल आती है। मेरा यह भावनात्मक और परेशान कर देने वाला अनुभव मेरे मन की इस शंका के कारण भी हो सकता है क्योंकि कहीं कहीं मुझे लगता है कि किसी सार्वजनिक स्थान पर मेरे कपड़े पहनने के तरीके, मेरे पहनावे, चाहे मैं अपने होठों पर गाढ़े लाल रंग की लिपस्टिक लगाना चाहूँ या फिर अपनी किसी पुरुष साथी के प्रति प्रेम प्रदर्शन करूँ, चाहे फिर यह प्रेम फोन पर बातचीत के दौरान ही क्यों ज़ाहिर किया गया हो, से लोगों को आपत्ति हो सकती है और वे इसके खिलाफ तीव्र और हिंसक प्रतिक्रिया भी कर सकते हैं। मेरे मन में लोगों के व्यवहार के प्रति यह जो डर बैठ गया है, वह उस हिंसक व्यवहार और हिंसा का जीता जागता सबूत है जिसे मैंने अपने इर्दगिर्द बारबार होते देखा है और अनुभव किया है। संभव है कि मेरे मन कि यह स्थिति या मेरा यह डर कुछ लोगों को बेहद आम और छोटी सी बात लगे, लेकिन मुझे यह बहुत विकट समस्या दिखाई पड़ती है। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे किसी भी ऐसे व्यक्ति की, जो विषमलैंगिक सामान्य यौनिकता के  ढांचे में , या आदर्श नागरिक होने के सामाजिक मानक के अनुरूप खरा नहीं  उतरते समाज में उनकी  भागीदारी सीमित  हो जाती है  

एक युवा महिला होने के नाते, मैं इस तरह कि घटना से विचलित होकर खुद को असहाय पाने के अलावा और कर भी क्या सकती हूँ। ज़्यादा  से ज़्यादा  मैं इसके बारे में लिख सकती हूँ या अनेक लोगों से इस बारे में बात कर सकती हूँ, यह सोचकर कि मेरी बात को सुनकर शायद अधिक लोग मेरी तरह से विचलित हों और जीवन में जेंडर और यौनिकता की सामान्य से अलग  अभिव्यक्ति को अधिक स्वीकृति  दिखाने लगें। मैं तो केवल यह उम्मीद ही कर सकती हूँ कि शायद किसी दिन सिसजेंडर और विषमलैंगिक लोगों को भी लोगों के ऐसे व्यवहार से परेशानी होने लगे और हम सब, किसी की विश्वसनीयता और निजी स्वतन्त्रता के विरुद्ध ऐसे घोर उल्लंघन को अस्वीकार कर इसके खिलाफ आवाज़ उठाने को प्रेरित होने लगें। 

लेखिका : शिवांगी गुप्ता 

शिवांगी गुप्ता एक 27 वर्षीय मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और सामाजिक विज्ञानी शोधकर्ता हैं जो मानसिक स्वास्थ्य, यौनिकता और सामाजिक न्याय के दायरे में आने वाले हर मुद्दे को लेकर उत्साही रहती हैं  

 

सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित 

Cover Image: Pixabay

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