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ख़ामोश प्यार – स्कूली जीवन में यौनिकता पर बातचीत

एक लड़की के चेहरे की तस्वीर है। लड़की का रंग गेंहुआ है, नाक में नथनी पहनी है, बिंदी लगायी है, आँखों में काजल, कानो में झुमके और बाल थोड़े बिखरे हुए है और कुछ चेहरे पर आ रहे है |

स्कूल का मेरा अनुभव, जैसा कि मुझे याद है, काफी विरोधाभासी था। बचपन में मुझ में अपने मन की बातों को शब्दों में व्यक्त कर पाने में कठिनाई होती थी पर मुझे स्कूल जाना शायद कुछ हद तक पसंद भी था। लेकिन अब जब मैं स्कूली जीवन के अपने अनुभवों के बारे में सोचती हूँ तो मुझे लगता है कि स्कूल में अध्यापक और दूसरे छात्र जिस तरह के हिंसक व्यवहार बच्चों की भलाई के नाम पर करते हैं वो बहुत ही विचलित कर देने वाला होता है। मेरी परवरिश एक ऐसे आज़ाद ख्याल वाले परिवार में हुई जहां मुझे जीवन में अपने फैसले खुद ले पाने की पूरी छूट मिली, मैं छोटी उम्र से ही अपनी यौनिकता को खुल कर व्यक्त कर सकती थी, मुझे अगर कुछ भी गलत लगता था तो मैं उसका विरोध भी कर सकती थी। लेकिन घर के माहौल की तुलना में स्कूल का वातावरण बहुत ही घुटन भरा था जहां अनेक बन्दिशें थीं और मुझ से एक विशेष तरह का व्यवहार करते हुए ‘बड़े होने’ की अपेक्षा की जाती थी। स्कूल के नियम और अनुशासन मुझ से पूरी तरह से आज्ञाकारी और निर्देशों को मानने वाली छात्रा होने की उम्मीद रखते थे और शायद मेरी यौनिकता और जीवन विकल्पों के मेरे चुनाव पर नियंत्रण रखने को भी अपना अधिकार क्षेत्र समझते थे।    

मैंने 12 साल की उम्र में डेटिंग करना शुरू किया था। चूंकि मेरे माता-पिता अपने प्यार और यौनिकता को व्यक्त करने के बारे में खुले विचार के थे, इसलिए मेरे घर का माहौल हमेशा ही प्रेम, आकर्षण और यौनिकता को समझ पाने के अनुकूल था। घर पर मुझे कभी अपने शरीर को लेकर किसी तरह की टोकाटाकी का सामना नहीं करना पड़ा। मेरे पिता को मेरे मासिक धर्म के बारे में पता था और वो इसके प्रति संवेदनशील थे – हमारे यहां यह कोई छिपाने की बात नहीं थी। मुझे हैरानी तब हुई थी जब मैंने देखा कि मेरी रिश्तेदारी में एक बहन अपने पिता के आगे ‘पीरियड’ शब्द को बोलने में भी शर्म महसूस करती थी। मुझे याद है मैं तो घर में अर्ध नग्न अवस्था में घूमती थी, यहाँ तक की युवा किशोरी के रूप में भी। मुझे कभी भी अजीब नहीं लगा कि हर रोज़ सुबह घर में कूड़ा लेने आने वाले भैया मुझे हैरत भरी (वासना भरी नहीं) नज़रों से देखा करते थे। मेरे लिए उस कृत्य में कुछ भी बेशरम नहीं था, बल्कि यह पूरी तरह सामान्य था। मुझे याद है, मेरे पड़ोस में रहने वाली एक दोस्त नें मुझे ‘सिखाया’ था कि अगर स्कर्ट पहनी हुई हो तो टांगों को ‘सही तरह’ से मोड़ कर बैठना चाहिए। फिर उसी दोस्त ने जब मुझे यह बताया कि मुझे अपने पापा और दूसरे पुरुषों के सामने हमेशा बिस्तर पर लेटे रहने की बजाए सीधे बैठ जाना चाहिए, तब मुझे यह एहसास हुआ कि मेरे व्यवहार, जो मुझे खुद को बहुत ही ‘साधारण’ लगते थे, उन्हें मेरी यह दोस्त बहुत बुरा और गलत समझती थी। ऐसा नहीं है कि मेरे माता-पिता यौनिकता के बारे में बात करने से कतराते थे, बस यह था कि दूसरे लोगों की तरह मुझे कभी सिखाया नहीं गया था कि यौनिकता और आनंद पाने की इच्छा ‘खतरनाक’ भी हो सकती हैं।  

स्कूल में भी मुझे ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा था। मुझे स्कूल में मेरे सहपाठी और शिक्षक बार-बार बताते कि मुझे अपनी स्कर्ट को नीचे खींच कर रखना चाहिए, ढंग के कपड़े पहनने चाहिए, सलीके से बैठना चाहिए और भी बहुत सी बातें। मुझे याद है अनेक बार नृत्य अभ्यास करते समय मुझे कहा गया था कि मुझे स्कर्ट के नीचे तंग टाइट्स  (चूड़ीदार) पहनना चाहिए क्योंकि लड़कें जानबूझकर हमारी टांगों को ही निहारा करते थे। मुझे यह भी याद है कि मुझ से कहा जाता कि मैं हमेशा सफ़ेद ब्रा ही पहना करूँ, कमीज़ के बटनों के बीच की जगह कम से कम हो, और हमेशा बारिश में भीगने से बचूँ क्यों भीगने पर मेरे कपड़ें पारदर्शी हो जाएँगे और शरीर से चिपक जाएँगे। मुझे लगता है कि मेरे लिए ये सब अनुभव ज़्यादा तनाव देने वाले इसलिए थे क्योंकि मैं यह नहीं समझ पाती थी कि आखिर मुझे ही ये सब सावधानियाँ क्यों बरतनी चाहिएँ, क्यों नहीं लड़कों को यह सिखाया जाता कि वे लड़कियों को इस तरह से न देखें और क्यों यह सिर्फ लड़कियों की ही ज़िम्मेदारी है कि वे हमेशा अपने शरीर को छिपाती फिरें? लेकिन स्कूल में हमें ये सब नहीं सिखाया जाता। स्कूल में सिर्फ जेंडर से जुड़ी भूमिकाओं और व्यवहारों को हम पर आरोपित किया जाता है।  

मुझे स्कूल के समय की वे अनेक कहानियाँ याद हैं कि कैसे लड़के और लड़कियां स्कूल में ही लुकछिप कर प्रेम करते हुए पकड़े जाते थे और फिर सज़ा के तौर पर लड़के या लड़की, किसी एक की बदली स्कूल में ही किसी दूसरे सेक्शन में कर दी जाती थी। उनके अभिभावको को इसकी सूचना भेजी जाती थी, और वे भी इस पूरी गतिविधि में शामिल होते थे। अब ये सब किसी तमाशे से कम नहीं होता था और स्कूल द्वारा लगातार सत्ता का निरंतर पुनर्मूल्यांकन जैसा दिखाई पड़ता था। इस प्रभुत्व का एक और अच्छा उदाहरण था वेलेंटाइन्स डे वाले दिन एक दूसरे के लिए गिफ्ट लाने वाले बच्चों की धरपकड़ करने के लिए डाली जाने वाली रेड, और इसमें पकड़े गए बच्चों को सज़ा दिया जाना। आज भी यह सोचकर मुझे कंपकंपी हो जाती है कि इस रेड की अगुवाई मेरे ही स्कूल की प्रधान अध्यापिका/प्रिन्सिपल, दूसरे अध्यापकों और अभिभावकों के साथ मिलकर करती थीं। यह विडंबना ही थी कि छात्रों के बीच अन्य अधिक आक्रामक व्यवहार को समान उपचार नहीं मिला – बस उनका किसी के साथ प्रेम करना ही मानो उनका सबसे गंभीर अपराध होता था, और इस अपराध को बच्चों की निगरानी कर रहे वयस्क सबसे खतरनाक अपराध समझते थे। 

इस सब से स्कूल द्वारा बच्चों को दिया जा रहा संदेश स्पष्ट था – यौनिकता केवल बड़ों के लिए है, और स्कूल के बाद वाली ज़िन्दगी के लिए है। एक दूसरी रोचक बात यह भी है कि हॉलीवुड की फिल्मों में जहां उच्च विद्यालय प्रेम (हाईस्कूल रोमांस) पर बनने वाली फिल्मों की भरमार है, वहीं भारत की फिल्मों में, कुछ अपवादों को छोड़कर, केवल स्कूल की पढ़ाई के बाद या महाविद्यालय के दौरान होने वाले प्रेम पर ही फिल्में बनाए जाने का चलन है। इस सबसे यही लगता है मानो हम सब मिलकर, किशोर उम्र के बच्चों में प्रेम और यौनिकता के किसी भी अनुभव को अनदेखा कर देना चाहते हैं या फिर इस बारे में सोचना ही नहीं चाहते।   

मुझे वो दिन याद है जब मुझे पहली बार प्रधान अध्यापिका के कार्यालय में बुलाया गया था। उन दिनों मैं लगभग 2 वर्षों से किसी एक लड़के को डेट कर रही थी। वह लड़का एक रूढ़िवादी परिवार से था और उसके माता-पिता हमारे इस संबंध के घोर विरोधी थे। इस मामले में उस लड़के की चुप्पी, मेरे विरोधी तेवरों से बिलकुल अलग थी। जब मुझे यह कहा गया कि इस छोटी उम्र में मेरे लिए प्रेम में पड़ना सही नहीं है और स्कूल में पढ़ते हुए हमें सिर्फ अपने काम पर ध्यान देते हुए भविष्य निर्माण पर ध्यान देना चाहिए तो मुझे बहुत ज़्यादा गुस्सा आ गया था। मुझे याद है मैंने प्रिन्सिपल को यह समझाने की बहुत कोशिश करी कि यह ज़रूरी नहीं है कि प्रेम और पढ़ाई एक दूसरे के विरोध में हैं, लेकिन मेरी बात नहीं सुनी गयी और मुझे चुप करवा दिया गया। उन्होंने मुझे जतला दिया कि छोटी उम्र की लड़कियां दिखाई तो दें, लेकिन उनकी आवाज़ सुनाई नहीं देनी चाहिए। इस पर मैंने वही किया जो मुझे उस समय सबसे सही लगा, मैंने प्रधान अध्यापिका से कहा कि मैं अगले दिन अपने माता-पिता को स्कूल ले आऊँगी और तब इस बातचीत को जारी रखा जा सकता है। मुझे यह पता था कि मेरे मम्मी-पापा मेरा समर्थन ही करेंगे। 

घर आकर मैंने रोते हुए सारी कहानी अपनी मम्मी को बताई। मैं रो इसलिए नहीं रही थी कि मैंने कुछ गलत किया था या मुझे ग्लानि हो रही थी, मैं तो इसलिए रोई क्योंकि मुझे बहुत ज़्यादा गुस्सा आ रहा था। मैं यह समझ नहीं पा रही थी और बिलकुल मानने को तैयार नहीं थी कि प्रेम जैसे किसी इतने सरल और शांत भावना को कोई कैसे इतनी निर्दयता से शक्ति का प्रयोग करते हुए कुचलने की कोशिश कर सकता है। अगले दिन प्रधान अध्यापिका को जब पता चला कि मेरी मम्मी तो मेरे अपनी यौनिकता को जानने की कोशिश करने का समर्थन कर रही हैं तो उन्होनें मेरी भलाई के बारे में सोचने की बात कही। उन्होने कहा कि मेरे खिलाफ बहुत सी शिकायतें मिल रही हैं कि मैं कक्षा के दौरान स्कूल के गलियारे में बिना मतलब घूमती थी और अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रही थी। अब मुझे सोच कर भी हंसी आती है कि मेरा सबसे बड़ा दोष यही था कि मैं घूमती थी और प्रेम में थी। प्रधान अध्यापिका की यह बात सुनकर मैंने अपनी कक्षा अध्यापिका को बुला लिया और मैं यह देख कर बहुत हैरानी हुई कि अध्यापिका ने भी मेरा ही समर्थन किया। उन्होने प्रिन्सिपल को बताया कि मैं ठीक से पढ़ती थी। अब प्रिन्सिपल के पास कहने को और कुछ नहीं था, और उस समय मुझे अपनी विजय पर गर्व महसूस हुआ। लेकिन क्या यह सब ठीक था? मैं आज भी सोचती हूँ कि क्यों मुझे उस समय प्रिन्सिपल के आरोपों के जवाब में अपने पढ़ाई में अच्छी होने का सहारा लेना पड़ा था और यह सिद्ध करना पड़ा था कि मेरी यौनिकता मुझ पर हावी नहीं थी। मुझे यह दिखाना पड़ा था कि मैं स्कूल के नियम कायदों का पालन कर रही थी और यह भी कि मैं भले ही प्रेम कर रही थी, फिर भी मैं अपने इस प्रेम को इस तरह से ‘नियंत्रित’ कर पा रही थी कि उसके कारण मेरी पढ़ाई पर किसी तरह का बुरा प्रभाव नहीं पड़ रहा था। एक तरह से देखा जाये तो इस घटना में विजय आखिरकार प्रधान अध्यापिका की ही हुई थी – वे यह साबित कर पाने में सफल रही थीं कि एक खास उम्र में यौनिकता के बारे में सोचना अनुचित था और संतान उत्पत्ति के अलावा यौनिकता का कोई और उद्देश्य अर्थहीन था। और आखिर में उन्होंने यह भी कह दिया कि इस तरह के संबंध बहुत ज़्यादा समय तक नहीं टिकते। और वे गलत भी नहीं थीं। लेकिन क्या यह उन्हें मूल्य से वंचित कर देता है ?    

जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ तो आभास होता है कि मेरा गुस्सा निराशा से पिघल गया है। स्कूल में लगाई जा रही अनेक बन्दिशों के बाद भी मैं और दूसरे बच्चें स्कूल में ही कोई न कोई ऐसी सुरक्षित जगह ढूंढ ही लेते थे जहां हम अपनी यौनिकता का खुलकर समन्वेषण कर सकें। यौनिकता का खतरे और अनैतिकता के साथ जुड़ाव ही इस विषय पर गोपनीयता का कारण है और यही मुझे चिंतित करता है। एक दूसरी बहुत रोचक घटना भी तब घटी जब मेरे ही स्कूल के मुझ से बड़े एक दूसरे छात्र, और मेरे ‘तथाकथित हितैषी’ ने मुझे सलाह दी कि मैं स्कूल बस में सबके सामने अपने प्रेमी के साथ सरेआम प्यार करना बंद कर दूँ। पर क्यों? क्योंकि ऐसा करने से स्कूल की बदनामी होती है। अगर कोई स्कूल, जो एक उदार और निरपेक्ष संस्था होने का दावा करता है, वह भी मर्यादा और यौनिकता पर इन विचारों को स्वीकार कर ले तो फिर ऐसे स्कूल में और किसी पितृसत्तात्म्क परिवार में क्या फर्क रह जाता है? उस मित्र के कहने के बाद भी मैंने अपनी गतिविधियां जारी रखीं, क्योंकि मैं यह नहीं मानती थी कि मैं जो कुछ कर रही थी, वह इतना बुरा था कि मैं उसे लुकछिप कर करूँ। अगर मैं अपनी यौनिकता को गोपनियता की आड़ दे दूँ, तो उसी क्षण मैं यौन हिंसा के आस पास शर्म, चुप्पी और अपराधबोध के प्रति संवेदनशील हो जाती हूँ। 

यह एक सच्चाई है, और मेरे दुख का सबसे बड़ा कारण भी कि उस समय प्रिन्सिपल महोदया जैसी एक पढ़ी-लिखी, अधिकार रखने वाली महिला भी यह नहीं समझ पा रही थीं कि हम किशोरों को, अपने शरीर पर अधिकार रखने वाले लोगो के रूप में, जोखिम उठा पाने की अनुमति मिलनी चाहिए। अगर वह एक महिला, जो यह दावा करती थीं कि केवल पढ़ाई में अच्छे अंक पा लेना ही शिक्षा नहीं है, बल्कि दूसरी सामाजिक गतिविधियां और सामाजिक कार्य भी पढ़ाई का अभिन्न अंग हैं, अगर वही महिला यह नहीं जान पायी की वह क्या कर रहीं थी, तो बाकी साधारण दुनिया तो वाकई भयावह हो सकती है। मेरे विचार से, जहां सेक्स और यौनिकता को ‘बुरा, निजी गोपनिय’ मामला समझा जाता है, वहीं दूसरों को परेशान करने और हिंसा करने को काफी हद तक सहन कर लेने योग्य समझा जाता है। जी हाँ, शिक्षकों, आप कुछ भी कहें लेकिन आपका इस तरह से लड़कियों को एक खास तरह के कपड़े पहनने के लिए कहना, उन्हें सताना नहीं तो और क्या है। इस  धारणा  में  भाग लेना भयानक है कि लोगों के बीच के अंतर का मज़ाक उड़ाया जा सकता है (समलैंगिकता  के  बारे  में  सोचें, जो  लोग  अपने  ‘जेंडर उपयुक्त’  व्यवहार नहीं  करते  हैं)। क्या यही वह शिक्षा है जो आप हमें देना चाहते हैं? क्या आप नहीं देखते हैं कि बड़े पैमाने पर आज्ञाकारी किशोरों के बजाय, स्कूल एक सुरक्षित स्थान के रूप में बहुत कुछ सिखा सकता है जो बच्चों को जोखिम लेने और अपनी यौनिकता के साथ प्रयोग करने की अनुमति देता है बजाय इसके की यौनिकता को खतरनाक और नियंत्रित करने के लिए बाध्य और विनियमित किया जाए।     

व्यक्तिगत तौर पर अपनी यौनिकता को समझ पाने के मामले में, मैं न तो सुरक्षित व्यवहार करने और न ही इसके लिए पश्चाताप करने के पक्ष में हूँ। अपने यौन अनुभवों को नकार कर, मैं ‘सुरक्षित’ व्यवहार करती रहूँ, यह नहीं हो सकता है, और साथ ही मैं, तब बिलकुल भी शर्मिंदगी या अपराधबोध महसूस करने की हामी नहीं भरती जब मुझे मेरे आचरण के लिए सबके सामने शर्मिंदा करने की कोशिश की जाये। हो सकता है कि स्कूल में बच्चों को हज़ारों बातों, वस्तुओं और आचरणों से बचा कर रखे जाने की ज़रूरत हो, लेकिन प्रेम तो कदापि उनमें से एक नहीं है।  

लेखिका : मेघना बोहिदार 

भोले और तर्कहीन बॉलीवुड प्रेम में विश्वास रखने वाली, मेघना लोगों के बारे में एक आशावादी दृष्टिकोण रखती है। इस समय वे टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई (TISS, Mumbai) में अनुसंधान विद्वान हैं और शहरों में सार्वजनिक स्थानों पर प्रेम प्रदर्शन को जानने की प्रयासरत हैं। 

सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित

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