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डिजिटल भारत में क्वीयर संबद्धता की तलाश 

Eight people out of the frame with their hands outstretched in a circle holding phones showing a single jigsaw puzzle piece in different colours on each phone. This is against a vibrant coloured backgroud with a wave-like diffused rainbow going from one side to the other.

2018 में नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत सरकार वाले केस के बाद, जब समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया, तब से शहरी भारत में क्वीयर लोगों का साथ आना, खुले आयोजन और प्राइड परेड में ज़बरदस्त बढ़ोतरी देखने को मिली है। समुदाय के लिए डिजिटल और जिस्मानी जगहें केंद्रीय बिंदु बन गए हैं, ऐसे मंच के साथ जहाँ क्वीयरपन को मनाया और व्यक्त किया जाता है। डिजिटल दुनिया ख़ास तौर पर ऐसी जगह बनकर उभरी है, जहाँ लोग निजी फेसबुक समूह से आगे बढ़कर अपना समुदाय ढूँढ सकते हैं, संबद्धता पा सकते हैं। यहाँ लोग खुलकर सामने आ सकते हैं, अपनी पहचान का जश्न मना सकते हैं और नए दोस्त बना सकते हैं। डिजिटल मंच ऐसी आज़ादी देता है जो शायद वास्तविक जगहें नहीं देती हैं। सामजिक कलंक कम गहन है,अनामिता मुमकिन है, और भौगोलिक सीमाओं को कम किया जा सकता है – लगता तो ऐसा ही है।  

1999 में कोलकता में सिर्फ़ पंद्रह लोगों के साथ हुई पहली ‘फ़्रेंडशिप वॉक’ के पच्चीस साल बाद, भारत में क्वीयर जगहों और मौक़ों का नक्शा पूरी तरह बदल चुका है। X (पहले ट्विटर), इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक जैसे मंच आज क्वीयर लोगों के लिए साथ आने, बातें करने और कार्यक्रम का आयोजन करने के बेहद ज़रूरी साधन बन गए हैं। अब तो बस एक क्लिक में लोग पूरे देश में होने वाले क्वीयर आयोजन, प्राइड परेड और मिलने-जुलने की जगहों के बारे में जान सकते हैं और आसानी से जुड़ भी सकते हैं। हालाँकि अब ऐसे आयोजनों के बारे में जानना आसान हो गया है, लेकिन इनका माहौल अभी भी पहले की तरह चुनिंदा और सीमित ही बना हुआ है। शहरी भारत में फिर अपनेपन का मतलब क्या होता है जहाँ लोग विभिन्न सामजिक, आर्थिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं? कोई क्वीयर कब माने जाते हैं ऐसे आयोजनों का हिस्सा बनने के लिए? ऐसे कार्यक्रम कैसे आयोजित किये जाते हैं? कहाँ होते हैं? कैसे यह सारे पहलू अलग-अलग जाति, वर्ग और सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाले क्वीयर लोगों की भागीदारी को प्रभावित करते हैं?

विधि और कार्यप्रणाली की व्याख्या

यह लेख उन दस क्वीयर लोगों के अनुभवों पर आधारित है, जिनसे हमने बातचीत की। उनमें से छः छोटे शहरों से थे जो कि बड़े मेट्रो शहरों में पढ़ाई के लिए आये थे, तीन लोग मेट्रो शहरों में ही पले-बड़े थे, और एक ने अपने द्वितीय श्रेणी के शहरशहर में पढ़ाई की और फिर काम और बेहतर मौक़ों के लिए एक बड़े मेट्रो शहर चले गए। इन लोगों की उम्र 20 से 25 साल के बीच है। तीन साक्षात्कार फ़ोन पर लिए गए थे, चार वॉइस नोट के ज़रिये मेसेजिंग ऐप पर और बाकी तीन आमने-सामने हुए थे। ये सभी दस लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय थे और ऑनलाइन मिली जानकारी से जुड़े क्वीयर आयोजनों में पहले या अब तक हिस्सा लेते रहे थे।सब लोग कम से कम एक क्वीयर आयोजन में व्यक्तिगत रूप से शामिल हुए थे। जितने भी उत्तरदाता थे वे सब अलग-अलग जेंडर पहचान, यौनिकता, जाति और वर्ग से आते हैं, और उनमें से दो अब भी यह खोज रहे हैं कि उनके लिए कौन सा जेंडर एक्सप्रेशन का तरीका – सर्वनाम या लेबल – सबसे सही बैठता है। हमने उनकी गोपनीयता की सुरक्षा के लिए सभी साक्षात्कार गुमनाम रखे हैं और कोई भी ऐसा विवरण हटा दिया है जिससे उनकी पहचान सामने आ सकती थी।

संबद्धता क्यों?

युवाल डेविस अपनी 2006 की किताब “संबद्धता और संबद्धता की राजनीति” (बिलोंगिंग एंड द पॉलिटिक्स ऑफ़ बिलोंगिंग) में लिखते हैं, “संबद्धता भावनात्मक जुड़ाव के बारे में है, ‘घर जैसा’ महसूस करने पर और जैसे माइकल इग्नाटीफ भी बताते हैं की संबद्धता ‘सहज’ महसूस करने में है। वह आगे कैस्टेल के ‘नेटवर्क समाज’ वाले विचार का ज़िक्र करते हैं, जिसमें कहा गया है कि आज का समाज एक ‘नेटवर्क समाज’ बन चुका है। इसमें लोगों की असली संबद्धता अब देशों और राज्यों की नागरिक संस्थाओं से हटकर, नई बनी हुई पहचान-आधारित समुदायों में चली गयी है, जो अक्सर अपनी पहचान की हिफ़ाज़त के लिए बनाये गए समुदाय हैं। इसलिए संबद्धता कई परतों पर काम करती है – जैसे जाति, वर्ग, जेंडर जैसी तुरंत दिखाई देने वाली पहचान। कुछ लोग आसानी से अपनापन पा लेते हैं क्योंकि वे समाज के बने-बनाए ढाँचों और नियमों में माक़ूल हो जाते हैं। ये ढाँचे अक्सर परंपरागत मूल्यों और थोपी गयी भूमिकाओं को और मज़बूत करते हैं। लेकिन जब हम संबद्धता के इन ‘मानदंडों’ को चुनौती देते हैं, तो असल में उस व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं जो यह तय करती है कि किन्हें, किसकी पहचान और किसकी इच्छाओं को मान्यता और स्वीकार्यता मिलेगी, और किसे नहीं।

“मैं, जिसने अपने अस्तित्व के हर हिस्से – अपने नाम से, अपने शरीर से, और अपने जेंडर को जीने के तरीक़े से – संघर्ष किया है, मेरे लिए ऑनलाइन जगहों ने ऐसी आज़ादी दी है जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। बहुत समय तक मैंने अपनी पहचान की इन जटिल परतों को ऑफ़लाइन दुनिया में समझने की कोशिश की, जहाँ लोग मेरे जन्म के समय तय किए गए सेक्स के आधार पर ही यह सोच लेते थे कि मैं कौन हूँ। ऑनलाइन पर कम से कम मुझे ये चुनने की आज़ादी मिली कि मुझे किस तरह से पुकारा जाए या मैं खुद को कैसे सामने रखूँ। इसने मुझे वो मौका दिया कि मैं अपने उन हिस्सों को फिर से अपना सकूँ जिन्हें मैंने भौतिक दुनिया में पहले कभी ज़ाहिर ही नहीं किया। सच कहूँ तो अगर मैंने सोशल मीडिया पर अकाउंट न बनाया होता और अपने जैसे लगने वाले कॉन्टेंट से जुड़ना शुरू न किया होता, तो शायद मुझे ये तक नहीं पता चलता कि अपने दोस्तों से अपने विचार और भावनाएँ कैसे बांटूं,” – बीस साल के आसपास के एक नॉन-बाइनरी उत्तरदाता ने बताया कि सोशल मीडिया ने उनके लिए क्या मायने रखा है। 

संबद्धता को ‘क्वीयर नज़रिये’ से देखने का मतलब है उन बनावटी नियमों को चुनौती देना, जो समाज यह तय करने के लिए इस्तेमाल करता है कि किसे अपनाया जाएगा और किसे नहीं। अपनापन, जो कभी-कभी अपने-आप मिल जाने वाली चीज़ लगता है, असल में कई बार मेहनत से बनाना पड़ता है – और इस मामले में, क्वीयर लोग ही उसे गढ़ते हैं। यह अपनापन अक्सर उस भेदभाव और अपमान के जवाब में गढ़ा जाता है, जिसका सामना क्वीयर लोगों को समाज और ढाँचों – दोनों में करना पड़ता है। यह उन जगहों की तलाश है जहाँ वे देखे जाएँ, सुने जाएँ और उनकी पहचान को मान्यता मिले।

करीबन 25 साल की आस-पास की उम्र के एक जेंडरफ़्लुइड ट्रांस-मैस्क उत्तरदाता ने अपना अनुभव और वे संघर्ष साझा किए, जिन्हें वे अक्सर इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफ़ॉर्म से जोड़ते हैं – 

“मेरे पास ये साफ़ जवाब नहीं है कि डिजिटल जगहों पर हम खुद  क्या बदल सकते हैं, लेकिन मुझे याद है उस वक़्त हम  उस ‘अछूतपन’ की बात कर रहे थे, जो डिजिटल जगहों पर होता है। मेरे एक दोस्त ने अपना अनुभव साझा किया, और इससे मुझे यह सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि डिजिटल जगहें उतनी समावेशी नहीं हैं, जितना हम सोचते हैं। ऐसा देखा गया है कि लोग सोशल मीडिया ऐप्स, ख़ासकर इंस्टाग्राम पर अपने आप को जिस तरह से पेश करते हैं, उसके आधार पर अलग  लोग उन्हें स्वीकार करते हैं या नहीं। ये साफ़ दिखता है – किसे लाइक्स मिलते हैं और किसे फ़ॉलोअर्स। मुझे लगता है कि अगर आप दलित और क्वीयर हैं, तो मामला बिल्कुल अलग हो जाता है। अगर आपके पास वही ‘लुक’ या साधन नहीं हैं, जो किसी को ‘ऊँची’ जाति या विशेषाधिकार प्राप्त दिखाते हैं, तो फिर आप डिजिटल जगहों पर भी हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं – हालाँकि ये जगहें हम सबके लिए होनी चाहिए।”

जब हम सम्बद्धता के विचार के बारे में बात करते हैं, तो डिजिटल स्पेस एक ऐसी जगह है जहां लोग डिजिटल माध्यम से जुड़ाव और समुदाय की भावना पाते हैं। ये कहना नहीं है कि ऑनलाइन जगहों पर बदसलूकी, भेदभाव और बहिष्कार नहीं होता। सोशल मीडिया को सम्बद्धता ढूँढने का साधन मानने के पीछे भी ग़हरी खाई मौजूद है – क्योंकि क्वीयर समुदाय के बहुत से लोग अब भी जाति, वर्ग, दिखावट और पहुँच के आधार पर अलग-थलग कर दिए जाते हैं। इसलिए क्वीयर सम्बद्धता सिर्फ़ सिद्धांत में नहीं, बल्कि अनुभवों से बनती है। यह उन जीते-जागते रोज़मर्रा के सच से जुड़ी है, जो विविध, बदलते, और बढ़ते समुदाय का हिस्सा हैं। 

जैसा कि बिशाखा दत्ता ने डिजिटल एशिया हब (2021) में प्लेटफॉर्म सौंदर्यशास्त्र/एस्थेटिक्स के महत्व के बारे में कहा है – 

“जब हम किसी मंच की बनावट और उसके ‘सौंदर्यशास्त्र’ की बात करते हैं, तो वह ऐसे तो अक्सर किसी ख़ास तरह के उपयोगकर्ता के लिए तैयार नहीं किया जाता। और हमारे ख़्याल में भी नहीं आता कि वह उपयोगकर्ता ग्रामीण होंगे, आदिवासी होंगे या फिर गैर-देशी अंग्रेज़ी बोलने वाले होंगे। मुझे लगता है कि हम अक्सर जो कम आय वाले समुदायों से आते हुए औरतें, लड़कियों या क्वीयर लोगों को भारत में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाले ऐप यानी व्हाट्सऐप पर जब देखते हैं, तो वह इस वजह से क्योंकि इस मंच का अपना एक ‘रूप’ और एक तरह का ‘पदक्रम’ भी है, और इन जगहों पर यह सारे लोग एक एक तरह का बेगानापन महसूस करते हैं। ऐसा लगता है जैसे वे किसी और की जगह में घुस आए हों, और जैसे ये जगह उनके लिए बनी ही नहीं थी।” (डिजिटल एशिया हब, 2021)

दत्ता की बातों से ये साफ़ होता है कि मंच की बनावट में ही एक तरह का ढाँचा-आधारित बहिष्कार छिपा होता है। यहाँ अक्सर ‘ऊँचे’ वर्ग, ‘ऊँची’ जाति और अंग्रेज़ी बोलने वालों का ‘सौंदर्यशास्त्र’ ही मानक बना दिया जाता है। नतीजा ये होता है कि महिलाएं, क्वीयर लोग, गाँवों से आने वाले या कम आय वाले समुदायों के लोग अपने आप को बाहरी महसूस करते हैं। दत्ता का कहना है कि ये बहिष्कार सिर्फ़ काम करने की सुविधा भर का मामला नहीं है, बल्कि मंच की रचना ही ऐसा अहसास दिलाती है कि ये जगह उनकी नहीं है।

निरंतर प्रदर्शन का दबाव

ऑनलाइन हो या ऑफ़लाइन, ‘अभिनय’ करने का दबाव बिल्कुल सच है। डिजिटल दुनिया में भी लगातार एक तरह का प्रदर्शन देना पड़ता है, जो क्वीयर लोगों के लिए और मुश्किलें खड़ी करता है – क्योंकि उन्हें समाज की जेंडर और यौनिकता को लेकर बनी उम्मीदों से भी जूझना पड़ता है। एक नॉन-बाइनरी क्वीयर उत्तरदाता, जो एक थिंक-टैंक में काम करते हैं, कहते हैं – 

“सोशल मीडिया दरअसल संकेत देने की जगह है। यहाँ एक उम्मीद रहती है कि आप अपनी क्वीयर पहचान को एक ख़ास तरह से दिखाएँ – नए ज़माने के हों, अच्छे कपड़े पहने हों, और साफ़ तौर पर क्वीयर ‘दिखते’ हों। मुझे इसमें मुश्किल होती है, क्योंकि उन एस्थेटिक्स को लगातार निभा पाने की मेरी क्षमता नहीं है। ऐसा लगता है जैसे एक विशिष्ट रूप के क्वीयर लोगों का एक ‘विशेष समूह’ है जो इस ढाँचे में ठीक बैठता है, और बाक़ी हम लोग हमेशा हाशिये पर छोड़ दिए जाते हैं।”

एक और उत्तरदाता, जो शुरुआती पेशेवर जीवन के विद्या विषयक हैं और पीएचडी कर रहे हैं, कहते हैं –

“क्वीयर दिखना अब एक चलन बन गया है, और पूरी मुहिम का ध्यान सिर्फ़ दिखावट पर चला गया है, जबकि असली वजह की गहरी जड़ें अक्सर भुला दी जा रहीं हैं।” वे यह भी बताते हैं कि कुछ लोगों को दूसरों से अलग और अकेला महसूस करने के दौरान अपनापन पाने में दूसरों मुक़ाबले और ज़्यादा मुश्किल होती है। “‘क्वीयर पर्याप्त माना जाना’ आप कैसे दिख रहे हैं, उस पर काफ़ी निर्भर करता है। अगर आप उस आकृति में उचित नहीं बैठते, तो अक्सर यह उम्मीद की जाती है कि आप चुप रहें,” उन्होंने जोड़ा।

इसलिए, डिजिटल मंच द्वारा दी गई दृश्यता का विकल्प हमेशा आज़ादी देने वाला नहीं होता और इसे सभी के लिए एक जैसा नहीं माना जा सकता। कुछ क्वीयर लोगों के लिए, ऑनलाइन दिखाई देना चिंता भरा हो सकता है, ख़ासकर तब जब यह दृश्यता उन्हें क्वीयर और नॉन-क्वीयर दोनों दर्शकों की आलोचना या जाँच के सामने लाती है। डिजिटल मंच पर एक ‘आदर्श’ क्वीयर आकृति या अंदाज़ के अनुसार ढलने का दबाव, अक्सर क्वीयर समुदाय के भीतर ही बने हुए नियमों या ‘पहुँच पर नियंत्रण’ की मान्यता से मिलती है। यह प्रवेश नियंत्रण अक्सर नज़रों में हल्का दिखता है, लेकिन इसका असर कुछ लोगों के पक्ष में होता है, जबकि उन बड़े मुद्दों और चिंताओं को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है, जो कुछ जाति और वर्ग से आने वाले लोगों के लिए मौजूद हैं।

डिजिटल प्रवेश नियंत्रण – जाति और वर्ग की राजनीति

डिजिटल मंच कुछ भेदभावपूर्ण तरीकों को और बढ़ावा देते हैं, और अक्सर ऐसा करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। यह ख़ासकर इसलिए होता है क्योंकि सबसे पहले, डिजिटल मंच को वही लोग बनाते हैं जिनमें खुद कुछ पूर्वाग्रह होते हैं, और दूसरा, क्योंकि लोग उन सामाजिक और आर्थिक पदानुक्रमों को तोड़ने में सक्षम नहीं हैं, जो अक्सर डिजिटल जगहों पर वैसे ही दिखाई देते हैं जैसे ऑफ़लाइन दुनिया में दिखाई देते हैं। हालाँकि, ऑफ़लाइन जगहों में प्रतिक्रिया देने और रास्ता बदलने की ज़्यादा गुंजाइश होती है, जबकि डिजिटल मंच में इन पूर्वाग्रहों का सामना करने का कोई ख़ास तरीका नहीं होता। डिजिटल मंच ऐसी प्रतिक्रिया व्यवस्था के लिए बनाए ही नहीं गए हैं। भारत जैसे विविध देश में, जहाँ जाति और वर्ग की खाई गहरी और अक्सर अटूट है, डिजिटल क्वीयर जगहें इन असमानताओं को और बढ़ा सकती हैं। हमारे एक उत्तरदाता, एक सिस-क्वीयर पुरुष, जो पच्चीस से उनतीस साल के बीच के हैं, कहते हैं,

“हाँ, सोशल मीडिया लोगों को ज़्यादा आसानी से जुड़ने का मौका देता है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। ज़्यादातर समय, ऊँची जाति के लोग इन आंदोलनों में हावी रहते हैं, जिससे हमारे जैसे लोग, जो हाशिए पर हैं, पीछे रह जाते हैं। हम अब डिजिटल रूप से ही दबाए जाते हैं। अक्सर इसका फ़ायदा केवल कुछ ख़ास लोगों को ही मिलता है।”

एक जेंडरफ़्लुइड, दलित उत्तरदाता, जो अपने शुरुआती 20 के दशक में हैं, सोशल मीडिया के नुकसान के बारे में बात करते हुए कहते हैं –

“सोशल मीडिया पर बदसलूकी का ख़तरा ज़्यादा है क्योंकि यहाँ कोई पहचान जुड़ी नहीं होती। सार्वजनिक आयोजनों में शारीरिक नुकसान हो सकता है, लेकिन डिजिटल जगहें मानसिक थकान और झुंझलाहट पैदा करती हैं, जो ज़्यादा मानसिक नुकसान की तरह है। वे आगे कहते हैं, “अख़िरकार सब कुछ आपके पृष्ठभूमि पर लौटकर आता है। अगर आप सांस्कृतिक रूप से सुविधाभोगी पृष्ठभूमि से आते हैं, तो आपके पास कुछ ख़ास दिखावट, सामग्री या जगहों तक पहुँच होती है, जो आपकी जैसे सोच वाले लोगों से जोड़ती है। लेकिन ये विविध नहीं है, बल्कि सिर्फ़ एक रूप है। ऐसा लगता है कि सब एक जैसे चलते हैं, एक जैसे बोलते हैं, एक जैसे दिखते हैं। आप यह नहीं बता सकते कि कौन, कौन है।”

जाति, वर्ग और क्वीयर पहचान के मिलन-बिंदु पर होने वाली जटिलताओं को मुख्यधारा की क्वीयर बातचीत में शायद ही कभी उठाया जाता है, जिससे एक तरह का बहिष्कार पैदा होता है – जो दिखने में हल्का लेकिन हर जगह मौजूद होता है। डिजिटल जगह, जहाँ गुमनामी और समुदाय का एहसास मिलता है, वहीँ यह हिंसा और बहिष्कार के रूपों को भी बनाए रखती है, जो लोगों में अलग-थलग होने और अकेलेपन का एहसास पैदा कर सकती है। क्वीयर उद्धार कैसा दिख सकता है? हम वह कैसे बन सकते हैं जिसे हम देख ही नहीं सकते?

क्वीयर उद्धार की कल्पना?

बड़े शहरों में, शहरी क्वीयर समुदायों के लिए नए स्थानों का तेज़ी से विकास हो रहा है। “ऐसे शहरी गे जगहें वैश्विक हैं और इन्हें दुनिया भर के ऑस्ट्रेलेशियन, यूरोपीय और उत्तर अमेरिकी शहरों से अपनाकर दोहराया गया है (ब्राउन और बोरिसा, 2021)। ये स्थान आकांक्षा और इच्छा के केंद्र हैं; कल्पित वैश्विक गे समुदाय और उसकी जीवनशैली का हिस्सा बनने की इच्छा, और उस ‘प्रगतिशील’ उदार राजनीति के रूप के लिए आकांक्षा, जिसके साथ इसे अक्सर जोड़ा जाता है। भारत में क्वीयर उत्सव, सोबो के किसी बार में गे प्रॉम नाइट या दिल्ली के वसंत कुंज में क्वीयर पार्टी जैसा दिखता है। ये दोनों उदाहरण दिखाते हैं कि ये ज़्यादातर मामलों में सिर्फ ऊँची जाति और ऊँचे वर्ग के गे पुरुषों के लिए ही बनाए गए हैं। कुछ मामलों में, यौनिकता या जेंडर पहचान, भले ही महत्वपूर्ण हो, मायने नहीं रखती, क्योंकि आपको बस यह दिखाना होता है कि आप एक ऊँची जाति और ऊँचे वर्ग के ‘क्वीयर दिखने वाले’ व्यक्ति हैं।

हैना अरेंट के कार्य में, जो हम सायला बेन्हाबिब के अरेंट के विचारों की व्याख्या के माध्यम से पढ़ते हैं, हम अरेंट द्वारा परिभाषित ‘सहसंबंधी सार्वजनिक स्थान’ पर ध्यान केंद्रित करते हैं ताकि स्थान की हमारी समझ को और स्पष्ट किया जा सके। सहसंबंधी सार्वजनिक स्थान वह जगह है जहाँ लोग एक साथ मिलकर कार्य करते हैं। अरेंट के अनुसार, सार्वजनिक स्थान एक ऐसा जगह है जहाँ उदार संवाद और राजनीति होती है। यही वह जगह है जहाँ क्रियाएँ होती हैं। ये क्रियाएँ राजनीतिक प्रकृति की होती हैं और किसी सामान्य विषय के इर्द-गिर्द होती हैं। इस जगह की सबसे बड़ी ख़ासियत है बहुलता, जो अलग-अलग नज़रिये और राय व्यक्त करने और सुनने की अनुमति देती है। यह तो सोचने में ही एक तरह का आदर्शलोक लगता है। दूसरी जगह सामाजिक होती है, जो अर्थव्यवस्था और तकनीक का स्थान है। यही वह जगह है जहाँ भुगतान वाला काम और आर्थिक गतिविधियाँ होती हैं। काम और श्रम इसी स्थान के अंतर्गत आते हैं। अरेंट के अनुसार, इन दोनों को क्रिया नहीं माना जाता। सामाजिक स्थान में काम ज़्यादातर व्यक्तिगत हितों पर केंद्रित होता है।

अरेंट ने सहसंबंधी सार्वजनिक स्थान के कमज़ोर होने और सामाजिक स्थान के प्रभुत्व के ख़िलाफ़ चेतावनी दी है। अगर हम इसे हमारे मामले में देखें, तो इस तरह के सामाजिक क्वीयर स्पेस स्वाभाविक रूप से बहिष्कार करने वाले हैं, क्योंकि ये क्वीयर विमुक्ति के विचार को नवउदारवादी ढांचे में शामिल कर लेते हैं। क्वीयर लोगों को सिर्फ़ उपभोक्ता नागरिक बनाने से उनके सामूहिक रूप से लड़ने पड़ने वाले कई संघर्षों और अधिकारों को नज़रअंदाज किया जाता है और कमज़ोर भी किया जाता है। क्वीयर एकजुटता के लिए कोई जगह नहीं है, और इस तरह की सामाजिक जगहें बेहतर भविष्य के लिए बदलाव या एकजुटता का वादा नहीं करतीं।

हालांकि, अभी भी उम्मीद है। क्वीयर सहसंबंधी सार्वजनिक जगहें बनने के कई रोचक तरीके हैं, जैसे लोदी गार्डन में अनौपचारिक सामूहिक खाने का आयोजन, कबन पार्क में क्वीयर किताबें पढ़ने के सत्र, या ऑनलाइन मिलान जहाँ यह तय किया जाता है कि सामूहिक रूप से आगे कैसे बढ़ा जाए। क्वीयर लोगों का एक समूह किसी सार्वजनिक जगह पर इकट्ठा होकर बस अपनी असल पहचान में रहने का अनुभव करते हैं, और यह अपने आप में एक राजनीतिक क्रिया है, जैसा कि अरेंट सार्वजनिक स्थान की परिभाषा में बताते हैं। चूँकि क्वीयर संस्कृतियाँ सिर्फ़ पारंपरिक सार्वजनिक जगहों के ज़रिये नहीं बनतीं, इसलिए नए ऐसे स्थान बनाने की ज़रूरत होती है जो आधिकारिक जगहों को चुनौती दें और उनके नियमों पर सवाल उठाएँ (दासगुप्ता और दासगुप्ता 2018)। क्वीयर कहानियों को दर्ज करने, क्वीयर यात्राओं को साझा करने और सहारा देने वाले समूह बनाने के लिए कई डिजिटल जगहें और मंच उभर रहे हैं। बड़ा सवाल फिर यह बनता है कि क्वीयर लोग अपनी पहचान को ऑनलाइन और ऑफ़लाइन दोनों जगह कैसे स्थापित कर सकते हैं और इन दोनों जगहों में सामूहिक क्रिया के लिए अर्थपूर्ण संबंध कैसे बना सकते हैं, अगर वे अधिक अधिकार पाने और पूरी नागरिकता हासिल करने के संघर्ष को जारी रखते हैं। क्या पूरी नागरिकता हासिल करना ही संबद्धता पाने का एकमात्र तरीका है?

Reference: 
  1. Benhabib. S (1993) Feminist theory and Hannah Arendt’s concept of public space, Sage Publications
  2. Brown, G., & Borisa, D. (2021). Making space for queer desire in global urbanism  (Version 1). University of Leicester. https://hdl.handle.net/2381/14153093.v1
  3. DasGupta, D., & Dasgupta, R. K. (2018). Being out of place: Non-belonging and queer racialization in the U.K. Emotion, Space and Society, 27, 31–38. https://doi.org/10.1016/j.emospa.2018.02.008
  4. Digital Asia Hub. (2021, October 12). Spotlight: Bishakha Datta on hierarchy of platform aesthetics [Video].YouTube. https://www.youtube.com/watch?v=89h1YtwPaJg
  5. Yuval-Davis, N. (2006). Belonging and the politics of belonging. Patterns of Prejudice, 40(3), 197–214. doi:10.1080/00313220600769331 

प्रांजलि शर्मा द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।

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Cover Image: Illustration by Niv