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स्क्रीन के भीतर – वर्चुअल दुनिया में आनंद

हम स्क्रीन पर अपने आप को यौनिक रूप में कैसे देखते हैं? ‘वर्चुअल सेक्स’ यानी फ़ेसटाइम, वॉट्सैप, या इंस्टाग्राम वीडियो जैसे ऐप्स के ज़रिये किसी से अंतरंग तौर पर जुड़ना अपने शरीर की ओर हमारा नज़रिया बदल रहा है। ख़ासतौर पर कोविड महामारी के दौरान इन मंचों के ज़रिये हम स्पर्श के नए-नए तरीक़े सोच पाए हैं और रिश्तों में अंतरंग पलों को बरक़रार रखने के नए तरीक़े निकाल पाए हैं।

इंटरनेट की दुनिया मुझे अपने ‘ज़नाना’ शरीर पर पितृसत्ता के क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का मौक़ा देती है। ये मुझे अपनी वासना पर निगरानी और रोक-टोक लगाए जाने से भी बचाती है, ख़ासकर जब मेरे जैसे औरों के साथ साझा की गई ये वासना अस्थिर हो और कई उलझनों से ओतप्रोत हो। वर्चुअल सेक्स हमें ये अंतरंग पल एक और बार जीने का मौक़ा देता है, हालांकि कमियां इसमें भी महसूस होतीं हैं।

मैंने जो चीज़ें देखीं हैं उन्हें सहमति (consent) के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। नैतिक सीमाओं के बग़ैर किसी यौनिक माहौल की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि इन्हीं के रहते हमें बेझिझक होकर आपस में संबंध बनाने की आज़ादी मिलती है। सुख एक चलती ट्रेन जैसा होता है। ये सत्ता के भूलभुलैया-से गलियारों के बीच तेज़ रफ़्तार से गुज़रता हुआ जाता है। सत्ता पर आधारित हमारे आपसी रिश्ते हमारे यौन संबंधों को प्रभावित करते हैं। ऐसे में एक औरत होने के नाते जब मैं किसी मर्द के साथ दो पल के लिए अपना शरीर बांटती हूं, मेरा मक़सद उसे मेरे अपने ऊपर वर्चस्व जताने का हक़ दे देना नहीं होता है। ये महज़ एक-दूसरे के पसंद-नापसंद जानने और आपस में साझा करने की एक प्रक्रिया है। बाहरी दुनिया में ज़्यादातर औरतें, ख़ासकर जो समाज के हाशियों पर रहतीं हैं और जिनकी शादी उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हो जाती है, अपने शरीर और शारीरिक सुख पर पूरी तरह से हक़ नहीं जता पातीं। उन्हें यौन संबंध दबाव में आकर बनाने पड़ते हैं, जिससे वे सुख से वंचित रह जातीं हैं।

सहमति के पैमाने ज़्यादातर वही मर्द तय करते हैं जो जातिवादी और पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था को बरक़रार रखते हुए ख़ुद सच्चाई और नैतिकता के पक्ष में होने का दावा करते हैं। उन्हीं की निगरानी में रहते हुए हम औरतों को अपना रास्ता ढूंढ लेना होता है। ये निगरानी हम अपने निजी जीवन में हर पल महसूस करते हैं, चाहे बेडरूम में हो या किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के स्क्रीन पर। स्क्रीन को अगर हम एक निजी स्थान समझें जहां सहमति के नियम लागू होते हैं, तो ये देखना ज़रूरी है कि हम सहमति को हक़ीक़त की ज़िंदगी में किस तरह से देखते हैं। औरतों की आज़ादी का आंदोलन आगे बढ़ता जा रहा है और हम अब अपने निजी स्थानों में अपनी यौनिकता व्यक्त करने का हक़ जताने लगे हैं। बाहर की दुनिया में भी हम देर रात तक सड़कों पर टहलते वक़्त सुरक्षित महसूस करने, अदालत में अपनी मांगें रख पाने, और अपने शरीर पर अपनी अलग-अलग पहचानें शामिल करने के हक़ के लिए लड़ रहे हैं, और ऑनलाइन भी हमें इन मुद्दों पर उसी तरह मुखर होना चाहिए जितना हम हक़ीक़त की दुनिया में हैं। मैं इस पर बाद में थोड़े विस्तृत ढंग से बात करूंगी लेकिन मैं वासना की राजनीति के बारे में बात करना शुरु करूं इससे पहले पाठकों को ये ध्यान में रखना चाहिए।

मुद्दे से भटकते हुए ज़रा वर्चुअल सेक्स की बात करते हैं। मैं अपनी बात कहूं तो मेरी यौनिकता का उन यौनांगों से कोई संबंध नहीं है जिनके साथ मैं पैदा हुई थी। मुझे लगता है मेरी त्वचा एक कैनवस की तरह है जो अंतरंग पलों के दौरान निहारा जाना चाहिए और जिसकी सुंदरता का आनंद लिया जाना चाहिए। लेकिन हर बार इसके कामुक आकर्षण को बरक़रार रखना मुझे थका देने वाला काम लगता है। मैं एक ऐसी औरत हूं जो जेंडर के कठोर पैमानों पर खरा नहीं उतरती और इसलिए मैं सेक्स के पहले और बाद कैसी दिखती हूं ये बात मुझे सताती रहती है। बहुत सारे मर्दों के साथ सोने से ज़्यादा मुझे इस बात के लिए पछतावा होता है कि मैं एक ‘औरत’ की तरह नहीं दिखती। इसलिए मैं ख़ुद को किस तरह पेश करती हूं ये मेरे लिए बहुत अहमियत रखता है।

जब दिखावट इतने मायने रखता है तो सुख की अभिव्यक्ति पर भी इसका असर नज़र आता है। हक़ीक़त में जब मैं किसी साथी को अपने घर बुलाती हूं, मैं मन ही मन ये हिसाब लगा लेती हूं कि मेरे चेहरे का मेकअप कितनी देर टिकेगा। एक ट्रांस औरत होने के नाते मुझे हर वक़्त चेहरे के बालों को छुपाने या हटाने की कोशिश करनी पड़ती है और मेरा यक़ीन मानिए, कोई भी फ़ाउंडेशन ज़्यादा देर तक इसे ढककर नहीं रख सकता। मेकअप का ज़्यादातर सामान सिस औरतों की ज़रूरतों को मद्देनज़र रखते हुए बनाया जाता है और ख़ासतौर पर मेरे जैसी काली ट्रांस औरतों की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाता। इसलिए मैं क्या करती हूं, मैं फ़ाउंडेशन के साथ रेज़रों का एक छोटा-सा पाउच अपनी अलमारी के एक ऐसे कोने में रखती हूं जहां से मैं उसे आसानी से निकाल सकूं। नाइटगाउन निकालने के बहाने मैं झट से अलमारी खोल सकती हूं और जब भी ज़रूरत पड़े, मेरे साथी को बिस्तर से कुछ नज़र न आए इस तरह से रेज़र निकाल लेती हूं। इस तरह मैं बार-बार अपना चेहरा ठीक करती रहती हूं, जिसकी वजह से एक नारीवादी होने के नाते मुझे पछतावा तो होता है लेकिन मैं इस पछतावे से बाहर भी उभर आती हूं। एक ट्रांस औरत होने के नाते मुझे लगता है नारीवादी चर्चाओं में ये बातें करने के लिए भी जगह होनी चाहिए।

लेकिन जब मैं किसी को वीडियो-कॉल करती हूं, मुझे अपना मेकअप ठीक करने के बारे में सोचना नहीं पड़ता क्योंकि सेक्स के दौरान वो ख़राब ही नहीं होता। इंटरनेट पर मुझे अलग-अलग ऐंगलों से अपना शरीर दर्शाने की आज़ादी मिलती है ताकि मेरे बदन पर रोशनी बिलकुल सही तरीक़े से गिरे और मैं बिलकुल बेहतरीन दिखूं। मुझे बार-बार अपनी अलमारी खोलने के बारे में नहीं सोचना पड़ता और अपने शरीर के बारे में मेरी असहजता भी कुछ हद तक कम होती है। अब ऐसा भी नहीं है कि स्क्रीन पर नज़र आने में मुझे ज़रा भी असहजता महसूस नहीं होती, क्योंकि तब भी मैं बार-बार अपनी लटों को सुलझाती रहती हूं या इस फ़िक्र में रहती हूं कि कहीं मेकअप की वजह से मेरे होंठों के ऊपर पसीने तो नहीं आ रहे हैं? फिर भी ये जल्दबाज़ी में पूरे चेहरे का मेकअप करने जितना तनाव तो नहीं देता है। इसी तरह इंटरनेट की दुनिया मुझे अपने शरीर और चेहरे के ऊपर काफ़ी हद तक नियंत्रण का एहसास दिलाती है।

शारीरिक स्पर्श में जो रोमांच होता है उसकी भूखी मैं ज़रूर हूं लेकिन जब मैं उस वक़्त अपने आप को स्क्रीन पर देखती हूं जब मेरा साथी मेरी आंखों में देख रहा होता है, मुझे ताक़त का एक अलग ही एहसास होता है। असल ज़िंदगी में जब मैं किसी के साथ सेक्स कर रही होती हूं तो मुझे अपना शरीर नज़र नहीं आता। अब कोई ऐसा कह ही सकता है कि हक़ीक़त में सेक्स का अनुभव ज़्यादा अच्छा है क्योंकि उन यौनिक अनुभवों का आनंद लेना उस स्थिति में अपने शरीर को देख पाने से ज़्यादा सुखदायी होता है, और हां ये सही भी है। लेकिन अपने आप को देखने की ये क्रिया अपने शरीर की ओर सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखने का एक तरीक़ा भी हो सकती है। मुझे स्क्रीन पर अपना सुडौल शरीर, उसकी भंगिमाएं, और स्ट्रेच मार्क्स जैसी उसकी तथाकथित ‘खामियां’ नज़र आते हैं। मेरा साथी मेरे शरीर की तारीफ़ करता है तो मैं मुसकुराती हूं और ख़ुद को स्क्रीन पर देखते ही उमंग से लाल हो जाती हूं। स्क्रीन पर मैं अपने आप को ‘नारीत्व’ और वासना के प्रतीक जैसी नज़र आती हूं। दुनिया भले ही मुझे औरत मानने से इनकार करे लेकिन उस वक़्त अपनी आंखों में मैं अपनी जेंडर पहचान में सहज और महफ़ूज़ महसूस करती हूं।

आख़िर वो सुख ही तो है जो मुझे ऐसे अनुभव दिला सकता है। सुरक्षित, समावेशी, और आत्मपुष्टि के अनुकूल माहौलों में ही ऐसा कुछ अनुभव करना मुमकिन हो सकता है। ट्रांस लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा जैसे उनके घरों में है वैसे ही ऑनलाइन दुनिया में भी है, लेकिन दो लोगों के बीच सहमति हो तो इंटरनेट पर ऐसे सुखद अनुभवों के ज़रिए आत्म-देखभाल करना भी संभव है। बात डिजिटल सुरक्षा की हो तो मुझे नहीं लगता अपने साथी के साथ स्क्रीन पर नग्न होने से मुझे कतराना चाहिए, बल्कि डेटा प्राइवेसी से जुड़े कानूनों को और सख़्ती से लागू किया जाए तो इंटरनेट अंतरंगता के लिए एक सुरक्षित माहौल बन सकता है। तकनीकी जालों में अटकने के डर के बग़ैर ऑनलाइन एक-दूसरे के साथ अंतरंग संबंध बनाने में एक तरह की आज़ादी का एहसास है और ये हम सब तभी अनुभव कर सकेंगे जब सहमति को एक मुद्दे के तौर पर प्राथमिकता दी जाएगी। तकनीकी अन्वेषकों को महिलाओं, ट्रांस, और नॉन-बाइनरी लोगों के विचारों और अनुभवों पर ध्यान देना चाहिए ताकि ऐसे ऑनलाइन माहौल तैयार हो सकें जहां सहमति को अहमियत दी जाती हो और स्क्रीन के ज़रिए ज़्यादा से ज़्यादा लोग अपनी यौनिकता का आनंद ले सकें।

नील एक लेखिका और कलाकार हैं। वे चेन्नई के समनम आर्ट्स ऐंड वेल-बीइंग में ‘आर्ट्स लीड’ के तौर पर काम करतीं हैं। वे ‘विमेन राइटर्स प्रॉजेक्ट’ नामक एक ऑनलाइन मंच की संस्थापक भी हैं, महिला लेखकों और कलाकारों को एक-दूसरे से जुड़ने में मदद करता है।

ईशा द्वारा अनुवादित।
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कवर इमेज: Unsplash