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ग्रीन टी, वज़न का घटना, और मेरी #PCOS4Ever वाली ज़िंदगी

Four cups of different flavoured teas kept in a row horizontally. Next to each is kept corresponding dry tea leaves.

“पता है? ये बीमारी न, ‘हेल्दी’ लड़कियों को हो जाती है अगर वे वज़न नहीं घटा पातीं!” मेरी स्कूल की सबसे अच्छी सहेली ने बताया। उसकी मां ने हाल ही में उसे किसी ऐसी बीमारी के बारे में बताया था जिससे पीरियड (माहवारी) टाइम पर नहीं आते और जिससे हमारे आसपास बहुत सारी लड़कियां जूझ रहीं थीं। अब उस समय, चौदह साल की उम्र में मैं तो इसी बात से परेशान थी कि मुझे कम से कम अगले तीस साल तक हर महीने पीरियड झेलने पड़ेंगे। थकान, परेशानी और जैम के निशानों को खून समझ बैठने की मुसीबत हर महीने झेलना तो मेरे बस की बात नहीं थी। इसलिए ऐसी बीमारी, जो छह-छह महीने तक पीरियड रोक दे, कम से कम मेरे लिए तो ‘बीमारी’ नहीं थी।

ये मर्तबान दिल्ली में जेएनयू के हॉस्टल में किसी का हुआ करता था ।

ये वो चैन के दिन थे जब मैंने ग्रीन टी और ऐवोकाडो की लंबी-चौड़ी कहानियां नहीं सुनी थी। कहते हैं कि ये दो चीजें दुनिया की हर औरत के पास होनी चाहिए चाहे उसे कोई भी बीमारी क्यों न हो। मेरे घरवालों ने भी हमेशा मुझे (कसरत करने के साथ-साथ) अपने शरीर को सकारात्मक नज़रिये से देखना सिखाया है, इसलिए मैंने कभी अपने खाने-पीने या वज़न पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा। जब तक मैं कॉलेज के लिए बैंगलोर नहीं पहुंची, तब तक पेट की चर्बी को भी ‘वज़न’ माना जाता है ये मुझे पता नहीं था।

हॉस्टल में हो रही बातों से मुझे पीसीओएस (PCOS) के बारे में कुछ-कुछ पता चलने लगा था। अलग लोगों में इस बीमारी के अलग-अलग लक्षण थे। कोई हर महीने पीरियड आते ही उल्टी कर देता था तो किसी के पीरियड हफ़्तों तक रुकने का नाम नहीं लेते थे। किसी और ने फ़ुल-स्लीव वाले कपड़े पहनने शुरु कर दिए थे क्योंकि हाथ-पैर पर बाल कुछ ज़्यादा ही निकल रहे थे। इन सबको आपस में जोड़ती थी ये सच्चाई कि उन्हें पीसीओएस है जो कभी ठीक नहीं हो सकता। और हां, ये बात कि ग्रीन टी पीना ज़रूरी है। हर रोज़।

हां, मुझे भी एक-दो बार पीरियड नहीं हुए थे और अगर आप गूगल पर ‘हर्स्यूटिज़्म’ खोजें तो देखेंगे कि ‘बॉडी हेयर स्केल’ पर मेरी जगह ‘सामान्य’ से कहीं ऊपर है। एक युवा होने के नाते मैंने एक-दो बार सिगरेट पिया था ज़रूर। ये भी सच है कि मैं हर रोज़ कसरत नहीं कर पाती क्योंकि वक़्त ही कहां है, और जिम भी तो कितने महंगे होते हैं! ऊपर से, आख़िर शरीर में कितनी चर्बी होने से या कितने सिगरेट पीने से पीसीओएस होता है ये मुझे कैसे पता होता? दिल्ली में मेरे पोस्ट-ग्रैजूएट तक मेरी हालत ज़्यादा ख़राब नहीं हुई थी, और उसी दौरान मैंने पीसीओएस के बारे में गूगल करना शुरु किया।

पीसीओएस या पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम को पीसीओडी (पॉलीसिस्टिक ओवरी डिसॉर्डर) या स्टीन-लेवेन्थाल सिंड्रोम भी कहा जाता है। ये एक ऐसी शारीरिक स्थिति है जिसमें हद से ज़्यादा ऐंड्रोजेन हॉर्मोन का उत्पादन और अनियमित ओव्यूलेशन (अंडे का अंडाशय से निकलना) होता है, जिसका ज़िम्मेदार अंडाशयों में एकाधिक गांठें (सिस्ट) हैं। विकिपीडिया कहता है (और डॉक्टर अक्सर छिपाते हैं) कि ऐसा ज़रूरी नहीं कि जिसे पॉलीसिस्टिक ओवरी है (यानी अंडाशय में बहुत सारी गांठें हैं) उसे ये बीमारी है। अगर आपको पीसीओएस नहीं है और आप अल्ट्रासाउंड कराते हैं, हो सकता है आपको अपने अंडाशयों में कुछ गांठें नज़र आएं जो बिल्कुल नुकसान नहीं पहुंचातीं (हालांकि ये भी सच है कि मैंने कभी बिना मदद के अपना अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट या एक्स-रे नहीं पढ़ा है)। मैं इंटरनेट से जितने अध्ययन निकाल पाई हूं, उनके मुताबिक़ भारत में किशोरावस्था से गुज़र रहे 9.13% लोगों को पीसीओएस है और इनमें से हर किसी को ‘ओबेसिटी’ यानी मोटापा नहीं है। कुछ स्थानीय अध्ययनों में तो ये पाया गया है कि इनमें भाग लेने वाले सभी लोग दुबले थे, बस उनके पेट में चर्बी नज़र आई थी।

पढ़ते-पढ़ते एक वक़्त पर ऐसा लगने लगता है जैसे आप पीसीओएस पर सारी वैज्ञानिक जानकारी के समुंदर के बीचों-बीच पहुंच गए हों। आप तैरते रहते हैं इसके कारणों, लक्षणों, ये दर्द आपके साथ साझा करने वाली ‘सोल सिस्टर्स’ और इस बीमारी के इलाज की खोज में। फिर आपको पता चलता है कि इसका कोई इलाज है ही नहीं। मैं डॉक्टर नहीं हूं मगर सभी डॉक्टर इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि पीसीओएस से छुटकारा तो नहीं मिल सकता क्योंकि इसकी कोई एक वजह नहीं है, मगर इसे ‘क़ाबू में लाया’ जा सकता है! पीसीओएस को क़ाबू में लाने का मेरा सफ़र यूं शुरु हुआ। मैंने खान-पान, कसरत और दवाओं के ज़रिए अपने शरीर को अनुशासित करने की कोशिश शुरु कर दी , हालांकि मेरी मां को यही लगता है कि ये सब गायनेकॉलोजिस्टों के हमसे पैसे ऐंठने के तरीक़े हैं।

पीसीओएस के कई लक्षण सामाजिक शर्म पैदा करते हैं (इंटरनेट पर हरनाम कौर की सरेआम बेइज्ज़ती इसका एक उदाहरण है) इसलिए इन पर बातें ज़्यादातर उन्हीं मंचों पर होती है जहां सिर्फ़ औरतें मौजूद हों और आप इलाज के क्या तरीक़े अपनाते हैं, ये मामला सिर्फ़ आपका और आपके बटुए का है। आप जब भी ऐसे किसी को देखते हैं जिसकी ठुड्डी पर हल्के-हल्के बाल निकल रहे हों, आप हमदर्दी में अपना सिर हिलाते हैं।

जब मैं दिल्ली में एक मशहूर गायनेकॉलोजिस्ट से पहली बार मिली, मुझे स्टेरॉइड की गोलियां थमा दी गईं इस चेतावनी के साथ कि पीरियड नियमित करने के लिए मुझे ये तरीक़ा बस कुछ ही समय के लिए अपनाना होगा। पूरे दस दिन सिर घूमने और उल्टी आने के बाद मैंने ये गोलियां छोड़ दी और ‘सेहतमंद’ तरीक़े से ज़िंदगी जीने की कोशिश करने लगी। पीरियड नियमित हैं या नहीं ये जांचने के लिए मैंने एक ऐप डाउनलोड कर लिया और वेबएमडी जैसे वेबसाइटों की मदद से अपने खाने-पीने पर ध्यान देने लगी। कहते हैं वज़न घटाने से अच्छे नतीजे मिलते हैं इसलिए मैंने शाम के सात बजने के बाद चावल और कार्बोहाइड्रेट खाना बंद कर दिया। मैं दही-चावल, नींबू-चावल, इमली-चावल और चावल से बने तरह-तरह के व्यंजनों के बिना जी नहीं सकती और एक चम्मच चावल खा लेना भी मुझे गुनाह जैसा लगने लगा। मैं अपने उपापचय (मेटाबॉलिज़्म) को अपने शरीर के अंदर महसूस करने लगी, जैसे वो मेरे शरीर के साथ जुड़ी हुई कोई घड़ी हो।

अपने खाने-पीने की आदतों के लिए ‘भरपाई’ करने के लिए मैं अलग-अलग किस्म की ग्रीन टी मंगवाने लगी, जैसे सेंचा, पू-अर और अलग-अलग फूलों से बनी चाय। अगर पता चले कि चाय की शौकीन ज़्यादातर औरतें ‘सोल सिस्टर’ हैं तो मुझे ये जानने में अचरज नहीं होगा। फिर मैं इलाज के तौर पर तेल और जड़ीबूटियां अपनाने लगी। अब ये तरीक़ा पूरी तरह से अवैज्ञानिक तो नहीं है क्योंकि कुदरत ने हमें ऐलो वेरा, स्पियरमिंट और रॉडोडेंड्रन जैसे कई पौधे दिए है जिनमें कई औषधीय और पौष्टिक गुण हैं। लेकिन क्या ये तरीक़े कई औरतों की तरह मेरे लिए भी फ़ायदेमंद निकले? ये तो बार-बार कोशिश करने और नाकामयाब होने से ही पता चला। एक बार पैकेट पर लिखी जानकारी को लेकर गलतफ़हमी होने की वजह से मैंने गुड़हल (हिबिस्कस) की चाय ख़रीद ली। फिर एक हफ़्ते ये चाय पीने के बाद पता चला कि अरे, इससे तो शरीर के बाल बढ़ते हैं! तौबा तौबा! जो मुझसे भी ज़्यादा उत्साही हैं, वे बड़ी आंत की सफ़ाई के लिए थेरपी, कीटो डायट, पीसीओएस कुकबुक की रेसीपियां और गर्भनिरोधक गोलियां भी अपनाते हैं ताकि किसी तरह हर महीने एक बार पीरियड आ जाए।

दो साल, कई लेज़र ट्रीटमेंट्स और एक थोड़ी-बहुत ‘स्वस्थ’ ज़िंदगी जीने की कोशिश के बाद भी मेरे लक्षण अभी भी ‘क़ाबू में’ नहीं आए हैं। लेकिन अब मैं इस बात पे संतुष्ट होने लगी हूं कि मुझसे जितना हो पाया, मैंने अपने शरीर के लिए उतना किया। जब भी हर महीने वो तारीख़ नज़दीक आने लगती है, मुझे पता होता है कि शायद इस बार भी कुछ न हो। मेरे डॉक्टर भी हर बार यही कहते हैं कि मुझे ज़्यादा नींद और कम तनाव की ज़रूरत है। ये पूरी प्रक्रिया अंधेरे में तीर मारने जैसी है।

जब भी मैं किसी को सिगरेट पीते देखती हूं, मेरे दिमाग के ‘पीसीओएस-मीटर’ की बत्ती जल उठती है। ऐसा लगता है कि वे अपने शरीर पर अनचाहे बालों के उगने की तरफ़ एक कदम आगे बढ़ गए हैं। मुझे बाद में पता चला है कि ये धारणा पूरी तरह सच नहीं है। सिगरेट पीने से शरीर के ऐंड्रोजेन लेवल बढ़ते ज़रूर हैं मगर इस अध्ययन के मुताबिक़ इसका पीसीओएस, मुंहासों या हर्स्यूटिज़्म के साथ कोई सरासर लेना-देना नहीं है। कुछ भी खाने-पीने से पहले औरतों को वैसे भी बहुत कुछ सोचना पड़ता है और पीसीओएस उन्हें और भी ज़्यादा सोचने के लिए मजबूर करता है। हाल ही में मैंने पढ़ा कि करम साग (केल), जो कि सैलड का एक ज़रूरी हिस्सा है और अमेरिका में रहते हुए जो न खाना नामुमकिन के बराबर है, वो शरीर में टेसटोस्टेरॉन पैदा करता है! पीसीओएस से मेरी लड़ाई में ये एक बड़ी हार थी। जिस दिन मुझे ये पता चला, उस दिन मैंने एक कप ज़्यादा ग्रीन टी पी।

दो साल से इस बीमारी से लड़ने के दौरान मुझे इस बात पर भी हैरानी हुई है कि यूट्यूब पर इसके बारे में जानकारी देनेवाली सिर्फ़ एक फ़िल्म है, और वो भी भारत की नहीं है। डायट की सलाह मुझे ज़्यादातर सेंटर फ़ॉर यंग विमेन्स हेल्थ और पीसीओएस डायट सपोर्ट जैसे विदेशी वेबसाइटों से मिली है। मुझे बहुत अकेलापन महसूस होने लगा था। मैं ट्विटर पर अपने दोस्तों को बताती रही कि हमें ये मुसीबत सुलझाने के लिए कुछ काम करना चाहिए, और फिर मुझे फ़ेसबुक पर पीसीओएस इंडिया नाम का ग्रुप मिला जिसमें उस समय 128 सदस्य थे, हालांकि इसमें ज़्यादातर वही औरतें थीं जो मां बनने की कोशिश कर रहीं थीं। मैंने अपना खुद का ग्रुप बनाया जिसमें मैंने अपनी 15 सहेलियों (‘सिस्टर्स’) को जोड़ा। क्योंकि ये बीमारी इतनी गुप्त और व्यापक है, हम इस पर आपस में ज़्यादा बात नहीं कर पाए और सिर्फ़ एक-दूसरे से अच्छे डॉक्टरों के बारे में जानकारी साझा करते रहे। मैं बार-बार ‘सोल सिस्टर्स’ जैसे प्लैटफ़ॉर्म्स पर उन औरतों के वज़न, खाने-पीने और बालों से जुड़े संघर्षों के बारे में पढ़ती थी जिनकी हालत मुझसे बदतर थी, और पढ़ने के बाद मुझे थोड़ी तसल्ली तो होती थी मगर दिल भी बैठ जाता था। लेकिन मैंने फिर भी हार नहीं मानी। मेरी ये उम्मीद है कि ये लेख आप में से उन लोगों तक पहुंचे जिनके शरीर को ‘बांझ’ माना जाता है, जिन्हें मुहांसे आते हैं, जिनका शरीर तारीख़ों के हिसाब से नहीं चलता मगर फिर भी जिन्हें शारीरिक तौर पर ‘औरत’ माना जाता है, और जो इन चीज़ों पर खुलकर बात करना चाहते हैं।

अगर आप मर्द हैं और ये पढ़ रहे हैं, एक बार अपनी किसी सहेली से ज़रूर पूछना अगर उसे पीसीओएस है। जवाब हां होने की बहुत बड़ी संभावना है। आप थोड़ा और पूछेंगे तो वो शायद आपको अपने इलाज का प्लैन और अपने डाउनलोड किए हुए ऐप्स भी दिखाएगी। ये भी बताएगी कि उसे तरह-तरह के फल सिर्फ़ उनके स्वाद के लिए ही नहीं पसंद हैं। जो उन सौन्दर्य-उपचार या चिकित्सा प्रक्रियाओं से वाक़िफ़ है जिनका मक़सद औरत के शरीर को ‘स्वाभाविक’ के सांचे में ढालना होता है, उसके लिए पीसीओएस झेलने की लड़ाई बहुत मुश्किल हो सकती है। इस बीमारी का असर हमारे अंतरंग रिश्तों पर भी पड़ता है और उन पलों में हम चाहते हैं कि हमारे शरीर को एक ‘आदर्श औरत के शरीर’ की तरह देखा जाए, जिस पर बाल या दाग-धब्बे न हों और जो प्रजननक्षम हो। पीसीओएस के खिलाफ़ ये जंग हमें रोज़ याद दिलाती है कि एक ‘स्वाभाविक’ औरत बन पाना बहुत मेहनत का काम है जो ख़ुद की देखभाल करने के तरीक़ों के बिना मुमकिन नहीं है।

नूपुर रावल कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, अर्विन में पीएचडी छात्रा हैं। उन्हें टेकनॉलजी, श्रम, जेंडर और यौनिकता पर अध्ययन का शौक है। जब वे सामाजिक-तकनीकी मुद्दों पर काम करती नज़र नहीं आतीं हैं, तब वे लिखना, खाना-पीना और घूमना-फिरना पसंद करतीं हैं। वे @tetisheri नाम से ट्विटर पर हैं।

ईशा द्वारा अनुवादित।
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छवि क्रेडिट: लेखक द्वारा