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मीडिया और दायित्वपूर्ण चित्रण 

यह बात 2013 की सर्दियों के समय की है। एक शाम मैं और मेरे पिता, घर की बैठक में सोफ़े पर साथ बैठे टेलीविज़न देख रहे थे। टीवी पर उस समय प्राइम टाइम की न्यूज़ डीबेट में समलैंगिकता के विषय पर गर्मागर्म बहस चल रही थी। यह एक ऐसा विषय था जिस पर हम, पिता और पुत्री के बीच आज तक कभी चर्चा नहीं हुई थी। अभी कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट नें धारा 377 को दोबारा बहाल किया था, और तब से ही टेलीविज़न पर और प्रिंट मीडिया में ‘हट के’ या मुख्या धरा से अलग माने जाने वाली यौनिकताओं की और LGBTQ लोगों के अधिकारों पर चर्चा के कार्यक्रमों की और खबरों की मानों बाढ़ सी आ गयी थी।     

यह कुछ गिने चुने अवसरों में से था जब भारत के प्रमुख मीडिया में ‘समलैंगिक, गे’ या ‘समलैंगिकता’ जैसे शब्दों का प्रयोग बिना किसी संकोच के किया जा रहा था। इस समय हमारे परिवार जैसे रूढ़िवादी मध्यमवर्गीय घरों में, जहां यौनिकता पर कभी भी खुलकर बात नहीं की जाती और समलैंगिकता के विषय पर बात करना तो जैसे बिलकुल ही निषिद्ध था, लोगों को अचानक ही मीडिया में LGBTQ लोगों के अधिकारों पर होने वाली चर्चाओं को सुनना पड़ रहा था। यह सब इतना ज़्यादा हो रहा था कि हिन्दू धर्म के अनुयायी और सरकार समर्थक मेरे परंपरावादी पिता भी अब हर रोज़ होमोफोबिया के विरुद्ध या समलैंगिकता समर्थक कानून बनाए जाने के पक्ष और विपक्ष में, टीवी पर होने वाली बहस और अखबारों में छपने वाले लेखों को नियमित रूप से देखने और पढ़ने लगे थे। यह एक घटना ही अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि जिस मीडिया के कार्यक्रम हम नियमित रूप से सुनते, देखते और पढ़ते हैं, आखिर हमारी राय को किस हद तक प्रभावित कर सकता है। आज से कुछ साल पहले एक इंटरव्यू के दौरान, जब करण जौहर से यह कहा गया कि उनकी फिल्म दोस्ताना (2008) से बॉलीवुड की फिल्मों में समलैंगिकता विरोधी विचार प्रस्तुत करने का चलन होने लगा है, तो अपनी इस फिल्म के बचाव में करण जौहर नें कहा था कि भले ही ऐसा हुआ हो, ‘लेकिन कम से कम अब भारत के शहर के हर घर में समलैंगिकता के इस विषय पर लोग बात तो करने लगे हैं’। शायद दिसम्बर 2013 में धारा 377 पर अदालत का फैसला आने पर लोगों की तीव्र प्रतिक्रिया का कारण भी यही रहा था कि इसके बारे में मीडिया में बहुत कुछ लिखा और बोला जा रहा था। शायद इसी का परिणाम था कि अब यौनिकता के बारे में घर-घर में चर्चा होने लगी थी। इन दोनों ही घटनाओं से अलग-अलग यौनिकताओं के सन्दर्भ में अधिकारों के बारे में अब मीडिया में ज़्यादा लिखा और बताया जाने लगा था। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या मीडिया में इसका इस तरह से चित्रण किया जाना या इसे बढ़ावा देना, वास्तव में सही चित्रण था?    

जब भी प्रमुख मीडिया में बात (फिर वह चाहे पत्रकारिता हो या फिर प्रचलित सांस्कृतिक माध्यम) यौनिकता से जुड़े विषयों पर खबर करने की होती है, तो पश्चिमी देशों में आलोचकों और टिप्पणीकारों द्वारा ऐसी खबरों को जिम्मेदार तरीके से बताए जाने के बारे में अक्सर सवाल उठाए जाते रहे हैं। क्वीयर और नारीवादी विचार रखने वाले लोगों नें प्राय: अपने लेखों में यह बात उठाई है कि दृश्य मीडिया (टीवी, फिल्में) आदि में केवल महिलाओं या क्वीयर यौनिक रुझान रखने वाले लोगों को केवल दिखा देना मात्र ही काफ़ी नहीं होगा और इन दृश्यों में उनके व्यक्तित्व से जुड़े सार्थक गुणों की भी चर्चा होनी चाहिए। किसी फिल्म या टेलीविज़न कार्यक्रम में किसी महिला को केवल हीरो की प्रेमिका के रूप में दिखा देने से या फिर किसी LGBTQ व्यक्ति को केवल नाममात्र के लिए शामिल करने से इनके साथ सही रूप में न्याय नहीं हो पाता, और पिछले कुछ वर्षों के दौरान सामाजिक न्याय के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ने के बाद से महिलाओं और LGBTQ व्यक्तियों के इस प्रकार के चित्रण की आलोचना भी होती रही है। इस तरह से विज्ञापनो और खबरों में सेक्सिस्ट और समलैंगिकता विरोधी दृष्टिकोण अपनाए जाने की भी आलोचना होती रही है। लेकिन भारत में अभी तक लोगों में इस तरह की जागरूकता नहीं आई है। आमतौर पर भारतीय दर्शक, पाठक और श्रोता, मीडिया या प्रकाशनों में छपने या दिखाई जाने वाली सभी खबरों और सामग्री में सकारात्म्क या नकारात्मक का अंतर किए बिना ही स्वीकार कर लेते हैं।      

एक ऐसे देश में जहां सामाजिक कलंक के चलते या प्रतिगामी सांस्कृतिक प्रथाओं के कारण सेक्स और यौनिकता जैसे विषयों पर चर्चा कर पाना कठिन है, वहाँ प्रचलित लोकप्रिय मीडिया समाचार चैनलों व मीडिया का यह अतिरिक्त दायित्व बन जाता है कि वे अपने कार्यक्रमों के द्वारा आम लोगों की राय पर सकारात्म्क प्रभाव डाले। मीडिया में त्रुटिपूर्ण मान्यताओं को दिखाने से लोगों के मन में गलत जानकारी घर कर जाती है और फिर समस्याओं को बढ़ाने वाले इन्हीं विचारों को जनता आत्मसात भी कर लेती है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2016 में लगातार पीछा किए जाने और फिर अपहरण करने के मामले में, पकड़े गए दोषी व्यक्ति नें ऐसा करने का कारण यह बताया था कि वह मशहूर हिन्दी फिल्म, ‘डर’ को देखने के बाद ऐसा करने के लिए प्रेरित हुए थे। डर फिल्म में फिल्म का नायक, नायिका का प्यार पाने के लिए लगातार उसका पीछा करता है और इसमें कामयाब भी रहता है। इसी तरह से कठुआ में आठ साल की लड़की के बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दिये जाने के मामले में भी समाचारों को इतने सनसनीखेज़ रूप में दिखाया गया कि पूरा गुर्जर समाज बलात्कारियों के लिए ‘मौत की सज़ा’ की मांग करने के लिए एकजुट हो गया। उनके इस तरह से एकजुट होने का ही यह परिणाम था कि 12 वर्ष के कम उम्र की किसी लड़की का बलात्कार करने के दोषी पाये गए मुजरिमों को अब मौत की सज़ा देने का प्रावधान कर दिया गया है।            

जब भी कभी ऐसी घटनाएँ हमारे सामने आती हैं, तब हमें इस बात का एहसास होता है कि इन घटनाओं के बारे में मीडिया से मिलने वाली खबरों से प्रभावित न हो पाना बहुत कठिन होता है, भले ही ऐसी किसी घटना से हमारा कोई सीधा संबंध भी न हो। टीवी पर या समाचार पत्रों में हम जो कुछ भी पढ़ते, देखते या सुनते हैं, उसका सीधा असर हमारे विचारों पर पड़ता है, हमारी सोच उसके कारण जाने या अनजाने में ही प्रभावित होती है और कहीं न कहीं इन खबरों का असर किसी घटना के बारे में हमारे मन में विकसित होने वाली राय पर ज़रूर पड़ता है।  

बहुत ज़्यादा शक्ति या प्रभावशीलता के साथ-साथ दायित्व भी उतने ही अधिक बढ़ जाते हैं, लेकिन भारत में पत्रकारिता और लोकप्रिय मीडिया अपनी इस अथाह शक्ति के साथ, क्या अपने दायित्व का निर्वाह करता है?    

बात अगर दृश्य मीडिया या फिल्मों, संगीत या विज्ञापनों की हो – तो यह कह पाना बहुत आसान हो जाता है कि मीडिया की शक्ति और प्रभाव का गलत प्रयोग हो रहा है। हम में से ज़्यादातर लोग अब तक भारतीय फिल्मों में महिलाओं को उनके जेंडर के आधार पर एक खास रूप में दिखाए जाने के बारे में परिचित हो गए हैं। जेंडर आधारित इस ख़ास तरीके से महिलाओं का चित्रण किए जाने के चलते ही फिल्मों में हेरोइन का पीछा करने या उसे परेशान करते रहने को हम स्वीकार करते आये है। इसी तरह महिलाओं को केवल सेक्स की ‘यौन वस्तुओं’ के रूप में प्रदर्शित किया जाता है या फिर बताया जाता है कि फिल्म की “कमज़ोर” हेरोइन किस तरह से हमेशा ही अपनी सुरक्षा के लिए किसी “बलिष्ठ और ताकतवर” हीरो पर आश्रित रहती है। इन लोकप्रिय और प्रचलित माध्यमों से प्रभावित होकर ही युवा लड़के और पुरुष अपने लैंगिकवाद (सेक्सिस्ट) विचारों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा व उत्पीड़न को सही ठहराने लगते हैं (जैसा कि 2016 में लड़की का पीछा करने वाले मामले में हुआ था)। यही कारण है कि सलमान खान जैसे फिल्मी हीरो को आज भी लोग अपना आदर्श मानते हैं जबकि हम सभी जानते हैं कि महिलाओं के साथ अभद्र और हिंसक व्यवहार करने का उनका एक लंबा इतिहास रहा है। 

महिलाओं के प्रति द्वेष का यह भाव हर जगह देखने की हमें इतनी ज़्यादा आदत हो गई है कि अब हम इसके प्रति संवेदनहीन हो चुके हैं; हमनें इसका विरोध करने की कोशिश करना भी छोड़ दिया है मानो एक तरह का समझौता कर लिया हो कि यह तो होता ही रहेगा। महिलाओं के प्रति इस द्वेष को ठीक तरह से समझ पाने में सक्षम लोग भी अब किसी तरह के बदलाव के न होने के कारण उकता से गए हैं और हमनें इसे सामान्य मानना शुरू कर दिया है। 

लेकिन समाचार मीडिया में, यह सब इतना स्पष्ट रूप से चित्रित नहीं होता; यहाँ समस्या पूरी तरह से हमारे सामने उजागर नहीं होती। हमें हमेशा से यह सिखाया गया है कि सत्ता संरचनाओं  में अटूट विश्वास रखना चाहिए और उनका पालन भी करना चाहिए। यही कारण है कि हम समाचारों पर, जिन्हें हम तथ्यों पर आधारित सच्चाई मानते हैं, आँखें मूँद कर विश्वास कर लेते हैं और जब तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का समाचारों का तरीका हमें सही नहीं लगता, तब भी हम उस पर उंगली नहीं उठाते। आदर्श रूप में माना जाता है कि समाचार रिपोर्टिंग बिलकुल तथ्यों पर आधारित होती है और समाचार देते समय केवल और केवल वास्तविकताओं पर ही ध्यान दिया जाता है, लेकिन दुर्भाग्य से, भारत में हमेशा ऐसा नहीं होता। बात जब यौनिकता के बारे में रिपोर्टिंग करने की हो, तो प्राय: अधिकतर मीडिया चैनल पूरी तरह से या निष्पक्ष रूप से घटनाक्रम की रिपोर्टिंग नहीं करते, फिर चाहे उनकी मंशा कितनी भी ईमानदार बने रहने की क्यों न हो।  

इसके उदाहरण के लिए, तीन बड़ी खबरों को देखा जा सकता है – 2012 का दिल्ली का गैंगरेप; और दूसरे वे दो मामले जिनका उल्लेख मैंने पहले किया है – 2013 में धारा 377 पर छिड़ी बहस और हाल ही में कठुआ में आठ साल की लड़की के बलात्कार और फिर हत्या। इन तीनों प्रकरणों में एक समान बात यह रही कि तीनों की रिपोर्टिंग के बाद ही पूरे देश में यौनिकता के बारे में घर-घर चर्चा होने लगी थी।  

2012 का गैंगरेप केस, शायद हाल ही के वर्षों में पहला ऐसा रेप केस रहा, जिसकी खबरें पूरे देश में सुर्खियों में रहीं, यहाँ तक कि पूरा देश ही इस केस के बारे में चर्चा करने लगा था। समाचार माध्यमों नें इस खबर को इतना ज़्यादा सनसनीखेज़ बना दिया था कि लगने लगा था जैसे इसी घटना के बाद लोगों को महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के बारे में वाकई में बहुत ज़्यादा चिंता सताने लगी है। अनेक समाचारों में चर्चा होने लगी कि कैसे भारत में महिलाओं की स्थिति ‘बहुत ज़्यादा असुरक्षित’ हो चुकी है (आज भी जब कभी खबरों में महिलाओं के विरुद्ध जेंडर आधारित हिंसा की बात उठती है तो अक्सर यही दोहराया जाने लगता है) और इसके चलते ही यह मामला ज़रूरत से ज़्यादा सुर्खियों में आ गया। यह सही है कि यह जेंडर आधारित हिंसा का एक बहुत ही गंभीर और संगीन मामला था और इससे देश में रेप कल्चर (वह मानसिकता जिससे महिलाओं और अन्य जेंडर के लोगों के प्रति यौन हिंसा को सामान्यीकृत किया जाता है) का भी पता चला, लेकिन मीडिया नें तथ्यों और वास्तविक मुद्दे से हटकर इस मामले को इस तरह से देश के सामने प्रस्तुत किया जैसे एक राष्ट्र के रूप में “अपनी महिलाओं के गौरव को सुरक्षित रखना” ही पूरे देश का सर्वोच्च मौलिक कर्तव्य था। इस मामले में चल रही बहस में लोग उस वास्तविक मुद्दे से हट कर बात कर रहे थे जिस पर सही मायने में बात की जानी चाहिए थी – और वह ये कि रेप होने पर देश मे न्याय दिलाने की प्रक्रिया कितनी प्रभावहीन हो चुकी थी, और इस तरह की हिंसक घटनाओं को जन्म देने वाली मिथ्या पौरुष (toxic masculinity) की वह मानसिकता वगैरह। लेकिन इसकी बजाए इस मामले में पीड़िता ही पूरी चर्चा का केंद्र बिन्दु बन गई थी। उसकी ‘बहादुरी’ को सराहा जा रहा था (यहाँ तक कि पीड़िता का ‘निर्भया’ नामकरण भी कर दिया गया जिसका मतलब होता है भय रहित) और पूरे प्रकरण के शर्मसार कर देने वाले ब्योरे को बिना कारण ही उछाला जा रहा था। यहाँ मेरा मतलब यह बिलकुल नहीं है कि इस घटना के उपरांत किसी तरह की सार्थक चर्चा बिलकुल नहीं हुई, लेकिन जितनी भी सार्थक चर्चाएँ हो रही थीं, वे प्रमुख मीडिया की अगुवाई में नहीं हो रही थी। आमतौर पर प्रमुख मीडिया चैनल और समाचार पत्र केवल मामले से जुड़ी सनसनी को बढ़ाने में लगे थे और सबके सामने यह रखना चाह रहे थे कि देश में महिलाओं की स्थिति बहुत ज़्यादा नाज़ुक है। 

कठुआ रेप-हत्या मामले में भी कमोबेश ऐसा ही हुआ। चूंकि इस मामले में पीड़िता की छोटी उम्र की अवयस्क थी, इसलिए मीडिया नें जिस तरह से इस पूरे मामले की रिपोर्टिंग की, उससे बहुत कुछ गलत हुआ। न केवल एक से ज़्यादा समाचार माध्यमों नें इस बच्ची का नाम और चित्र उजागर कर दिया (जो कि भारतीय दंड विधान की धारा 228A के तहत गैरकानूनी है), बल्कि जिस तरह की घृणा और अवसाद मीडिया नें प्राइम टाइम टीवी पर बहस के दौरान और बिना मतलब के संपादकीय लिखकर अपने दर्शकों और पाठकों के मन में भरने की कोशिश की, उसके कारण आम लोगों की ओर से इस प्रकरण में ज़रूरत से ज़्यादा भावनात्मक उद्गार देखने को मिले। पूरे मीडिया में केवल इसी विषय पर चर्चा हो रही थी कि कैसे भारत “महिलाओं के रहने लायक देश नहीं है” और किस तरह से “हम अपनी लड़कियों को सुरक्शित रख पाने में नाकाम रहे हैं”, और इसके कारण देश में रेप की घटनाओं को कम करने में व्यवस्था की विफलता पर चर्चा के बजाए यही विचार प्रतिपादित होने लगा कि महिलाओं को सुरक्षित रखे जाने की ज़रूरत है। इस पूरे घटनाक्रम पर लोगों की असीम पीड़ा प्रदर्शन के फलस्वरूप रेप के लिए मृत्यु दंड का विधान बनाया जाना भी केवल एक गहरे ज़ख्म पर बैंड-ऍड लगाए जाने जैसा ही था।     

धारा 377 पर बहस के मामले में भी, मीडिया नें उन सभी बातों पर ही ध्यान दिया जो वास्तविक मुद्दे से बिलकुल भी प्रासंगिक नहीं थीं। यहाँ तक कि जिन चैनल या प्रकाशनों नें 377 के विरोध में चर्चाएँ की, उन्होने भी LGBTQ समुदाय को “औरों से अलग” तरह के लोगों की तरह प्रस्तुत किया और आज भी वे उन्हें हाशिये पर रह रहे ‘दूसरे’ लोग ही मान रहे हैं। भले ही प्राइम टाइम टीवी पर LGBTQ लोगों के अधिकारों पर गरमागरम बहस सीधे हमारे मध्यमवर्गीय घरों की बैठक तक पहुँचती रही फिर भी प्रमुख समाचारों में कोई भी सार्थक विचार-विमर्श नहीं हो पाया।  

इस सब के बाद फिर एक बार ज़िम्मेदार रूप में चित्रण के विषय पर लौटते हैं। ऊपर बताए गए तीनों उदाहरणों में, अगर प्रमुख मीडिया नें सही और सटीक शब्दों व शब्दावलियों का प्रयोग किया होता और बिना वजह केवल दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए मामले को इतनी ज़्यादा तूल न दी होती, तो शायद इन मामलों पर आज हमारी सोच कुछ और तरह की होती। संभव है कि इन घटनाओं से यौनिकता से जुड़े कुछ सामाजिक कलंक दूर हो सकते, या फिर जनता को यौन हिंसा के दूसरे बारीक पहलुओं के बारे में पता चल पाता, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 

समय के साथ अनेक तरह के बदलाव आने पर और शहरों में रहने वाले ज़्यादातर युवाओं की प्रमुख मीडिया को सामाजिक रूप से अधिक जागरूक और समवेशी बनाने की कोशिश के बाजवजूद, आज भी हम देखते हैं कि हमारे अधिकतर समाचार पत्र और दृश्य मीडिया उसी पुरातनपंथी धारणाओं में अटके हुए है| शायद इसमें कुछ गलती हमारी भी है, क्योंकि बिलकुल दिलचस्पी न रखने वाले निरुत्साहित हो चुके हम पाठकों और दर्शकों को केवल अत्यधिक हिंसा या नग्न सामग्री देखना ही अब रुचिकर लगता है। शायद मीडिया भी हमारी इसी आदत के अनुरूप अपनी कहानियों ओर समाचार सामग्री को ‘बेच पाने’ के लिए ऐसी ही तरह से खबरों को हमारे सामने रखता है।

कोई मीडिया संस्थान किसी रेप की खबर को जितना अधिक सनसनीखेज़ बना सकती है, उतना ही अधिक वो लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाने में सफल रहती है; किसी घटना में पीड़ित की ‘बहादुरी’ को जितना अधिक बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया जाता है, उतनी ही अधिक वो खबर लोगों की सहानुभूति प्राप्त करने में सफल रहती है। उदाहरण के लिए, चूंकि मीडिया नें कठुआ में पीड़िता लड़की के नाम को उजागर किया था, इसलिए सोश्ल मीडिया में चलाए गए अभियान में उसका नाम ही प्रमुखता लेता रहा, और फिर ऐसी किसी घटना के साथ किसी चेहरे के जुड़ जाने से उम्मीद के मुताबिक, लोगों में अधिक रोष और गुस्सा प्रकट हो पाया।      

इसी तरह से, अधिकांश बार हम मीडिया को अपने विचारों को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर पाने की शक्ति दे देते हैं। 

ऐसे में, इस समस्या से कैसे निजात पायी जा सकती है? यह सही है कि इसका कोई एक रामबाण उपचार हमारे पास नहीं है। आज मीडिया के दूसरे विकल्प (या ऑनलाइन मीडिया) और सोश्ल मीडिया सामाजिक आंदोलन चलाने के सशक्त माध्यम बन चुके हैं। इनके माध्यम से यौनिकता के बारे में सकारात्मक विचार फैलाने और महत्वपूर्ण चर्चाएँ भी शुरू होती हैं। हाल ही के वर्षों में लेडीज़ फिंगर, फेमिनिस्म इन इंडिया वगैरह अनेक नए प्लैटफ़ार्म उभर कर सामने आए हैं। धीरे-धीरे दृश्य मीडिया में भी बहुत तरह के बदलाव आने लगे हैं और महिला पात्रों की प्रधानता वाली अनेक फिल्में बनने लगी हैं जैसे वीरे दी वैडिंग (हालांकि इसमे भी अनेक समस्याएँ हैं) जिनसे महिला यौनिकता के विषय पर रोचक चर्चा होनी शुरू हुई है। शायद आने वाले समय में परिस्थितियाँ अधिक विकट नहीं रहेंगी। हम उम्मीद करते हैं कि प्रमुख मीडिया चैनल और समाचारपत्र भी इन बदलावों से कुछ सीखेंगे, और जल्द ही प्राइम टाइम डीबेट कार्यक्रमों में हमें कुछ नया देखने को मिलेगा।    

लेखिका – रोहिणी बैनेर्जी 

रोहिणी बैनेर्जी नें साहित्य विषय की स्नातक हैं और वे जेंडर, यौनिकता और प्रचलित सांस्कृतिक मूल्यों के अंतर-संबंधों में ख़ास दिलचस्पी रखती हैं।  

सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित।

Cover Image: Flickr/(CC BY 2.0)

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