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यौनिकता शिक्षा एवं विकलांगता

In Plainspeak English Audit In Plainspeak English Audit 100% 10 Black and white picture of a young boy in a white shirt facing an older woman dressed in black. They have their palms pulled together as if they are clapping. Screen reader support enabled. Black and white picture of a young boy in a white shirt facing an older woman dressed in black. They have their palms pulled together as if they are clapping.

[संपादक की ओर से – प्राची श्रीवास्तव, एक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक कौशल प्रशिक्षक और व्यवहार प्रबंधन सलाहकार हैं। स्टापू की स्थापना करने से पहले प्राची दिल्ली स्थित एक स्कूल में परामर्शदाता के रूप में काम करती थीं। अपने इस लेख में प्राची ने उसी स्कूल के अपने अनुभवों की चर्चा की है। प्राची उक्त स्कूल के एक विशेष अनूभाग की चर्चा कर रही हैं जो विशेषकर विकलांगता के साथ रह रहे छात्रछात्राओं के लिए है। विकलांगता के साथ रह रहे छात्रछात्राओं के लिए यौनिकता शिक्षा कार्यक्रम शुरु करने के दौरान आने वाली चुनौतियों की झलक इस लेख में प्रत्यक्ष देखी जा सकती है।]

‘भारत में विकलांगता के साथ रह रहे लोगों को हमेशा बच्चों के समान देखा जाता है, जैसे कि वे कभी बड़े नहीं होते और कभी वयस्कता तक नहीं पहुँचते’ (मालिनी छिब द्वारा लिखित ‘वन लिटिल फिंगर’ से)

यह सोच इतनी मज़बूत है कि भारत में विकलांगता पर ज़्यादा लोगों के बात न करने के बावज़ूद भी यह पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रहती है। मैंने विकलांगता के साथ रह रहे बच्चों, किशोरों एवं कुछ वयस्कों के साथ बहुत नज़्दीकी से काम किया है और करती रहूंगी।

यूँ तो भारत में विविधता को बड़ी सराहना मिलती है पर अभी भी हम विकलांगता के साथ रह रहे लोगों को बहिष्कृत करते रहते हैं। बहिष्कार के साथ-साथ हमने एक सामूहिक समझ बना ली है कि वे अलग हैं और यह कि इस विषय में कुछ नहीं किया जा सकता है।

‘यौनिकता और विकलांगता’ पर अपने इस लेख पर संकेंद्रित होते हुए मैं इस बात पर ध्यान खींचना चाहती हूँ कि कैसे विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लिए शिक्षा व्यवहार-प्रबन्धन तक ही सीमित है जहाँ उसे स्वयं की समग्र समझ पर केंद्रित होना चाहिए।

यह बात कि ‘हम समझ सकते हैं पर इसके लिए कुछ कर नहीं सकते’ बेबसी, निराशा, क्रोध एवं कभी-कभी दृढ़ निश्चय की भी अनेक भावनाओं को उभारती है। मैं भी भावनाओं के कुछ ऐसे ही सफ़र से गुज़री थी जब मैंने विकलांगता के साथ रह रहे बच्चों एवं किशोरों के लिए उस स्कूल में ‘यौनिकता शिक्षा कर्यक्रम’ शुरु किया जिसमें मैं काम करती थी।

जैसा कि मैंने पहले भी ज़िक्र किया है, विकलांगता के साथ रहे छात्रों के लिए शिक्षा केवल व्यवहार प्रबन्धन तक ही सीमित है। उदाहरण के लिए, मासिक धर्म को भी एक व्यवहार की तरह देखा जाता है न कि एक जैविक प्रक्रिया और यह माना जाता है कि उसके प्रबन्धन के लिए हमें सिर्फ यह जानने की आवश्यकता है कि सैनिटेरी नैपकिन का इस्तेमाल कैसे किया जाता है। जब मैंने विकलांगता के साथ रह रही छात्राओं के साथ यौनिकता शिक्षा पर काम करना शुरु किया तो मेरी समझ भी यहीं तक सीमित थी। संयोग से, मुझे एक विडियो मिला जिसमें दिखाया गया था कि कैसे हर महीने अण्डाशयों में से डिम्ब का उत्सर्जन होता है। और यहीं से विकलांगता के साथ रह रहे छात्रों के लिए यौनिकता शिक्षा का मेरा सफ़र शुरु हुआ। तो एक डिम्ब केवल एक जीवन का ही नहीं बल्कि एक छोटे आंदोलन की शुरुआत का भी कारण सिद्ध हुआ।

इसे अधिक जीवंत और छात्रों के अनुकूल बनाने के लिए मैंने इसे ‘गर्ल्स क्लब’ का नाम दिया जहाँ हम सिर्फ़ लड़कियों के बारे में बात करते थे। मेरा मानना है कि किसी भी व्यक्ति को जितनी ज़्यादा जानकारी मिलती है उतना ही उनका विकास होता है और वे अपने जीवन में सूचित निर्णय ले सकते हैं। मेरी छात्राओं के चेहरे खिल उठते थे जब उन्हें पता चलता था कि उनके स्तनों का विकास होगा, वे ब्रा पहनेंगी, सैनेटरी नैपकिन का उपयोग करेंगी और यदि चाहें तो बच्चे भी पैदा कर सकेंगी।

विकलांगता के साथ रह रहे छात्रों के साथ यौनिकता शिक्षा कार्यक्रम पर काम करते हुए जिस चीज़ का मैंने सबसे ज़्यादा आनंद उठाया वह यह था कि वे दोहरी-नीति नहीं रखते वे हम में से एक नहीं हैं जो यौनिकता के बारे में अन्वेषण करना तो चाहते हैं पर अज्ञानता एवं मूल्यों का मुखौटा भी पहने रखते हैं। विकलांगता के साथ रह रहे बच्चों एवं किशोरों ने इस शिक्षा को हमेशा बड़े विश्वास के साथ एवं वास्तविक तरीके से ग्रहण किया।

विकलांगता के साथ रह रही छात्राओं के लिए यौनिकता शिक्षा कार्यक्रम केवल मासिक धर्म से जुड़े स्वास्थ्य विज्ञान तक ही नहीं सीमित रहा। वह एक ऐसा विषय बन गया जिसमें शरीर से जुड़ी जानकारी, सुरक्षित/असुरक्षित स्पर्श, अपरिचितों से खतरा, भावनात्मक बदलाव, जेन्डर भिन्नता, आदि सभी विषय शामिल थे। यौनिकता शिक्षा कार्यक्रम ने प्रश्न पूछने को प्रोत्साहन दिया और यह एक दोतरफ़ा संवादात्मक विषय बन गया। इसने उन तथाकथित ‘मंद बुद्धि’ छात्राओं को सारगर्भित विचार दिए जिसने और प्रश्नों को जन्म दिया जैसे ‘हमें मासिक धर्म क्यों होता है?’ इन संवादात्मक शैक्षिक सत्रों ने छात्राओं के चेहरे पर लज्जा की भावाभिव्यक्ति पैदा की। इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि इन छात्राओं ने भी इस विषय पर दिए गए समाज के संदेशों को ग्रहण किया है और वे यहाँ उसे प्रतिबिम्बित कर रही हैं।

विकलांगता के साथ रह रहे छात्रों के लिए यौनिकता शिक्षा पर काम करते हुए एक और महत्वपूर्ण बात सामने आई। ‘लड़कियों का यौन शोषण लड़कों से अधिक होता है’ – इस मिथक की तरह ही एक और जटिल पूर्वाग्रह सामने आया कि ‘लड़कों को यौनिकता शिक्षा की आवश्यकता नहीं है और यदि वे अपने यौनांगों को महसूस करते हैं और सार्वजनिक स्थान पर हस्तमैथुन करते हैं तो यह एक व्यवहार मात्र है और इसका पुरस्कार और दंड तालिका पद्धति की मदद से प्रबन्धन किया जाना चाहिए।’

जिस स्कूल में मैं काम करती थी, उस स्कूल में विकलांगता के साथ रह रहे छात्रों के लिए यौनिकता शिक्षा कार्यक्रम के महत्व की चर्चा अन्य अध्यापकों से की गई। हालांकि, सभी इसके महत्व पर एकमत थे पर कोई भी इस अतिरिक्त ज़िम्मेदारी को उठाना नहीं चाहता था। उनके अपने अवरोधन बाधा के रूप में सामने आने लगे। ‘हम समझते हैं पर हम कुछ कर नहीं सकते’, ‘हम ऐसा करने में सहज नहीं महसूस करते हैं’ जैसी प्रतिक्रियाएँ सुनने को मिलीं।

जहाँ उनकी चुनौतियों को समझना एवं स्वीकार करना आवश्यक था, वहीं यह तय करना भी आवश्यक था कि प्राथमिकता किसे दी जाए, छात्रों की यौनिकती शिक्षा की आवश्यकता को या अध्यापकों की असहजता एवं तनाव को। हर एक छात्र तक पहुँचना भी उतना ही ज़रूरी था जितना कि हर एक अध्यापक को समर्थ बनाना कि वे सवालों के जवाब सूचित तरीके से दे सकें।

अंतत: विकलांगता के साथ रह रहे छात्रों के लिए यौनिकता शिक्षा अस्तित्व में आयी। बाधाएँ तोड़ दी गईं और अड़चनें पार कर ली गईं। माता-पिता को भी इस कार्यक्रम में शामिल किया गया और फिर उनके लिए भी यौनिकता शिक्षा प्राथमिकता बन गई। ऐसे कार्यक्रम के बारे में जानकारी पाकर वे चिंतामुक्त से हो गए थे। माता-पिता को सम्मिलित करने का कार्यक्रम शुरु किया गया और उन्हें भी अपने बच्चों के साथ यौनिकता शिक्षा पर सत्र लेने के लिए शिक्षित एवं प्रशिक्षित किया गया। यौनिकता शिक्षा ने न ही केवल छात्र, शिक्षक एवं माता-पिता के त्रिक (तिकड़ी) को अधिक जागरुक बनाया बल्कि व्यवहार प्रबन्धन के प्रयोजन को भी सुलझा दिया। इस बार बस इतना अंतर था कि छात्र अब खुद को स्वयं सम्भाल सकते थे और अब वे पुरस्कार-दंड तालिका पर निर्भर नहीं थे। उन्होंने ‘ना’ कहना सीख लिया था और सूचित निर्णय ले रहे थे। वे सीमाओं पर विचार कर रहे थे और इसी के अनुसार अपने व्यवहार में बदलाव ला रहे थे।

उस स्कूल में मिली इस प्रमूख सफलता के बाद मैं आकांक्षा करती हूँ कि विकलांगता के साथ रह रहे व्यक्तियों के लिए ऐसा कोई कार्यक्रम हो जहाँ उन्हें साथी ढूँढ़ने का मौका मिले, वे डेट पर जा सकें, जहाँ उन्हें अपनी यौनिक इच्छाओं को एक उचित एवं अर्थपूर्ण तरीके से व्यक्त करने का मौका मिल सके और सबसे महत्वपूर्ण यह कि ऐसी हेल्पलाइन एवं कार्यशालाएँ हों जहाँ वे अपनी यौनिक निराशा को संभालना सीख सकें।

यौनिकता शिक्षा कार्यक्रम बस एक शुरुआत है, हमें लम्बा फ़ासला तय करना है, अवरोधों को पीछे छोड़ना है, बाधाओं को तोड़ना है और विकलांगता के साथ रह रहे लोगों को भारत की विविधता का हिस्सा बनाना है।

Pic’s Source: Creative Commons