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मर्दानगी के सामाजिक आधार

वसुधेंद्र द्वारा रचित एवं रश्मि टेरडल द्वारा अनुवादित मोहनास्वामी (हार्पर पेरेनियल, 2016)

जब मैं इस बात पर विचार कर रही थी कि क्यों एक छात्र के रूप में साहित्य पढ़ने के हमारे सफ़र में हमने कभी मोहनास्वामी को नहीं पढ़ा तब मेरे दिमाग में हमारे स्कूल की पाठ्यपुस्तकों की निसिम ईजेकील की बलिदान करने वाली वाली माँ, नाईट ऑफ़ द स्कोर्पियन के वैज्ञानिक, तर्कसंगत पिता, बॉन्ड की द वूमन ऑन प्लेटफॉर्म 8 की छवि और सरोजिनी नायडू के पलानकिन बेअरेर्स के प्रतिबिंब घूम गए। क्योंकि मोहनास्वामी को पढ़ने पर, नायक के जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों और समय का एक व्यक्तिगत विवरण मिलता है, इसकी झलक मिलती है कि कैसे समाज एक ऐसे व्यक्ति के साथ विभिन्न तरीकों से व्यवहार करता है (और भेदभाव करता है) जो समाज के कड़े प्रजनन मानदंडों को नहीं मानते। यह पुस्तक, शिक्षाप्रद होते हुए भी एक सरल पठन है; जिसमें बहु-आयामी जीवन को दर्शाती कहानियाँ हैं जो नायक के अनुभवों के माध्यम से आपस में जुड़ी हैं और जो पाठक को विभिन्न सांस्कृतिक स्थानों, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में ले जाती हैं; यह पुस्तक मानवता और “मर्दानगी” की कठोरता के बारे में बहुत कुछ बताती है। 

लेखक कर्नाटक के बल्लारी गाँव में पले-बढ़े एक समलैंगिक ब्राह्मण व्यक्ति मोहनास्वामी के जीवन पर प्रकाश डालते हैं और पाठक को नायक के बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था और यौवनावस्था में ले जाते हैं, उन्हें मोहनास्वामी के विविध सफ़र से अवगत कराते हैं जो उनके निहित लक्षणों को उजागर करते हैं और बताते हैं कि किस तरह सफ़र के अनुभवों और उनसे मिली सीख ने मोहनास्वामी के दृष्टिकोण और उनकी पसंद को आकार दिया।
पाठक मोहन की खुद कही गई कथा के माध्यम से आगे बढ़ते हैं, यह देखते हुए कि किस तरह गपशप मोहन की आत्म-धारणा पर गहरे छाप छोड़ती है और कैसे अंततः मोहन अपनी आंखों से उन धारणाओं को चकनाचूर होते देखते हैं। दोस्तों द्वारा कहे मिथक सुनकर कि अगर महिला संभोग के दौरान ऊपर हों या यदि पुरुष बूढ़े हों तो उनकी संतान “समलैंगिक” हो सकती है, मोहन चिंतित हो जाते हैं और अपने माता-पिता और अपने भाग्य को कोसते हैं। उनकी यह धारणा तब गलत साबित होती है और उन्हें, और उनके साथ-साथ पाठकों को भी, राहत तब मिलती है जब उन्हें यह पता चलता है की उनके एक अभिन्न, विषमलैंगिक मित्र के पिता भी उम्रदराज़ हैं। एक व्यक्ति के रूप में और अपनी यौनिकता के संबंध में, आत्म-स्वीकृति से जुड़ी मोहन की यात्रा और विकास को, अलग-अलग किस्सों के माध्यम से मार्मिक रूप से इस किताब में बुना गया है।
ये किस्से रोज़मर्रा की गहराई को सामने लाते हैं। इन्हीं सांसारिक, सार्वभौमिक अनुभवों के माध्यम से लेखक सामाजिक मानदंडों और संतुलन पर ध्यान आकर्षित करते हैं जो व्यक्तिगत निर्णयों को निर्देशित करते हैं, आत्मसम्मान को आकार देते हैं, और कैसे असमान रूप से हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों पर प्रभाव डालते हैं। इसे रेखांकित करते हुए, अध्यायों ने कई सामाजिक “पूर्वानुमानों” पर उत्तेजक तरीके से विचार किया गया है, जैसे कि “अच्छे” चरित्र के प्रतीक के रूप में शिक्षा की सामाजिक धारणा पर, ‘सम्मानजनक’ पेशे के विकल्पों पर, पुरुष संबंध, दोस्ती, आकर्षण और इनमें निहित होमोफोबिया के निर्धारकों पर। उसमें, एक बहिष्कार करने वाली संस्था के रूप में शादी (प्रेम के कुछ रूपों को वैध बनाना और कुछ के लिए तो सामाजिक स्वीकृति के लिए प्रवेश द्वार होना पर अन्य के लिए नहीं), मौन और अदृश्यता की शक्ति, और आत्म-स्वीकृति से जो ताकत आती है, इन सब पर विचार प्रस्तुत किए गए हैं। उदाहरण के लिए, जहाँ मोहन को उनकी यौनिकता के कारण कुछ स्थानों पर सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती, वहीं एक इंजीनियर के रूप में अपने कैरियर की पसंद के माध्यम से वे सम्मान और सामाजिक मान्यता प्राप्त करते हैं। मोहन के माध्यम से, जो इस तरह के मानदंडों के चौराहे पर खड़े हैं, पाठक सामाजिक मानदंडों के पैमाने और परिमाण को प्रतिबिंबित करने के लिए मजबूर होते हैं जो मर्दानगी की सीमाओं को परिभाषित करते हैं।
मर्दानगी के निर्माण में शर्मिंदगी की भूमिका, और नायक के खुद के विकास के लिए आत्मविश्वास और क्षमता पर इसका प्रभाव, विशेष रूप से उनके प्रारंभिक वर्षों में, खूबसूरती से सामने लाया गया है। एक बच्चे के लिए (कौन, कहाँ और किस संदर्भ में) स्थापन कितना महत्वपूर्ण है, इसका विवरण उल्लेखनीय है। मोहन तब भी इसे सहन कर लेते थे जब उनकी बहन और साथी उन्हें (उनकी यौनिकता को संबोधित करते हुए) गाली देते थे, लेकिन मोहन की दुनिया तब बिखर गई, जब गुस्से और हताशा में, उनकी माँ ने उन्हें समलैंगिक होने के लिए ताना दिया। इसी तरह, पाठक यह देख सकते हैं कि शर्मिंदगी ने कैसे मोहन के खाना पकाने और साफ़-सफ़ाई जैसे घरेलू कामों में या नृत्य और गायन जैसे आनंददायक अभिव्यक्तियों में भाग लेने पर प्रभाव डाला जिसके कारण उनके आत्मविश्वास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, विशेषकर किशोरावस्था में।

भारतीय कस्बों और गांवों में यौन अल्पसंख्यकों की आवाज़ को आगे बढ़ाने के लिए भारतीय अंग्रेजी और कन्नड़ साहित्य दोनों के पाठकों के लिए यह पुस्तक विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हम्पी के एक मंदिर में दो विदेशी पुरुषों को बिना किसी शर्मिंदगी के भाव के साथ एक दूसरे को प्यार करते हुए देखकर मोहन को इस जानकारी से सांत्वना और शक्ति दोनों मिली कि वह अकेले नहीं थे, कि समलैंगिकता शर्म करने की या ‘सही’ करने की बात नहीं है (वो मंदिर में समलैंगिकता को ‘सही’ करने के उद्देश्य से ही गए थे)। ग्रामीण कर्नाटक में सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के अपने ज्वलंत और प्राकृतिक चित्रण के माध्यम से, लेखक वसुधेंद्र, जो कन्नड़ साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, वर्ग, जाति, धर्म, जेंडर, ग्रामीण-शहरी स्थान, शिक्षा और भाषा के समावेश के माध्यम से, सभी अंतरंग आयामों में अपनी पहचान सामने लाते हैं। इस प्रकार वह भारत के साथ-साथ विश्व स्तर पर यौन अल्पसंख्यकों पर साहित्य में एक सूक्ष्म इज़ाफ़ा करते हैं, वो साहित्य जिसमें शहरी, शिक्षित, परस्पर जुड़े और वैश्वीकृत समुदाय की आवाज़ों का वर्चस्व है।
पुस्तक मोहन की किलिमंजारो पर्वत पर चढ़ाई के साथ एक जीवंत और सकारात्मक नोट पर समाप्त होती है, जिसे जीवन के चुनौतीपूर्ण पहाड़ पर चढ़ने और स्वयं की उपलब्धियों का आनंद लेने के लिए एक उपमा के रूप में प्रतुत किया गया है, साथ ही ब्रह्मांड की विशालता में व्यक्ति के संघर्ष और सफलताओं के संदर्भ के रूप में भी।

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