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पुस्र्षत्व का बोध – सूची की नज़र से

a picture of scales, one tilted downwards, the other tilted upwards

दो साल पहले, जब राया सरकार ने शैक्षणिक समुदाय में यौन उत्पीड़कों की सूची जारी की, तो सोशल मीडिया पर एक गंभीर विवाद खड़ा हुआ लेकिन साथ ही साथ एक वार्तालाप की शुरुआत भी हुई। सूची ने मोटे तौर पर समाज में आत्मीयता और मर्दानगी पर सवाल उठाए। सूची में कई प्रख्यात प्राध्यापकों के पर यौन उत्पीड़न का दोष लगा जिसके फलस्वरूप,यह सूची एक विवादस्पद मुद्दा बन गयी। हालाँकि एहतियाद के इरादे से शिकायत और शिकायतकर्ताओं के नाम गुप्त रखे गए। परन्तु इसके बावजूद भी सूची को अनेक आलोचनाओं और विवादों का सामना करना पड़ा। इस तरह,एक विवादग्रस्त सूची ने यौन हिंसा के मुद्दे को एक नए संभाषण और संलाप की ओर मोड़ा, जिसमें औरतों के शोषण और भेद्यता को मुख्य आकर्षण से हटाकर विषाक्त पुरुषत्व को उभारा गया।

यौन हिंसा के सन्दर्भ में सूची ने अपनी साख, शिक्षा के क्षेत्र में, छिपी हुई, कार्यस्थल पर हो रही यौन हिंसा के मुद्दों को उजागर कर कमाई। विशेषतः वे नाज़ुक स्तिथियाँ जिन्हें हम आसानी से भाषा में तब्दील नहीं कर पाते जैसे कि कार्यस्थल पर यौन हिंसा या शोषण या फिर यौन सम्बन्ध स्थापित करने की रज़ामंदी या सहमति से जुड़े सवाल। सूची के सन्दर्भ में,सूची की मान्यता पर भी आक्रोशजनक सवाल उठाये गए। पश्चातद्दृष्टि से देखे तो सूची हमारे आसपास के सामजिक आडम्बर को भेदने में कामयाब हुई जो अक्सर हम समझ नहीं पाते।

सूची के मामले में कई प्रख्यात नारीवादी सहमत नहीं थे, उन्होंने अपनी असहमति लिखित रूप से जाहिर की; जिसके कारणवश नारीवाद, वरिष्ठ और कनिष्ठ में पद्क्रमित सा हो गया। 1970 के दशक से भारतीय नारीवाद का संघटन एक आदिवासी लड़की के साथ हिरासत में हुई यौन हिंसा के खिलाफ़ आवाज़ उठाकर हुआ था, और 2017 में जब सूची आई तब भी महिला आंदोलन के समक्ष मुद्दा यौन हिंसा का ही था। लेकिन 1970 के दशक के दौरान आंदलोन का आधार अदालती निर्णय को प्रभावित करना और यौन हिंसा सम्बन्धी कानून में बदलाव लाना था ताकि औरतों को न्याय की प्राप्ति हो सके। लगभग ५ दशकों के बाद भी यौन हिंसा से पीड़ित महिलाएँ कानूनी न्याय से जुड़ नहीं पाई हैं। तमाम संशोधनों के बावजूद भी कानून प्रणाली महिलाओं को न्याय दिलाने में असमर्थ रही है। ऐसी स्तिथि में सूची का माध्यम अवश्यंभावी है। हालाँकि सूची को उग्र समझ कर नाकारा भी गया, परन्तु सूची ने पुरुषत्व के सामाजिक रूप पर प्रश्नचिन्ह लगाया।

औरत पर आघात,आभाव में रखना या वंचित करना यह मुख्य रूप से औरतों के खिलाफ़ हिंसा के पैमाने है। विख्यात नारीवादियों ने जैसे एंड्रिया ड्वॉर्किन (Andrea Dworkin), कैथरीन ए मैकिननॉन (Catherine A. MAcKinnon), सूज़न ब्राउनमिलर (Susan Brownmiller) एवं अन्य ने यौन हिंसा को मर्दों द्वारा औरतों पर बल और नियंत्रण की दृष्टि से देखा है। नारीवाद ने महिला के विरुद्ध हिंसा को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में विस्तारित किया है। वैश्विक रूप से हिंसा का उल्लेख जिस्मानी, मानसिक, मौखिक, आर्थिक एवं भावुक स्तरों पर किया गया है। मर्द और औरत के बीच निजी संबंधों में हुए यौन उत्पीड़न का अनुभव हमारे पुस्र्षत्व और स्रीत्व पद्द पर भी सूक्ष्म प्रभाव डालता है। हिंसा के बाद महिला जहाँ धर्षण या आघात या अपदस्थ महसूस कर सकती है वहीँ मर्द हिंसा में भाग लेकर बलशाली, अधिकारयुक्त महसूस कर रिश्ते पर अपना अंकुश रखने में कामयाब होता है। मर्दों द्वारा औरतों का शारीरिक और मानसिक नियंत्रण, पितृसत्ता तंत्र और राज्य की पैतृक व्यवस्था के लक्षण माने गए हैं। लेकिन यह व्यवस्था पुरुषत्व पर भी नकारात्मक प्रभाव डालती है। पुरुषत्व को अक्सर करके बल, आग्रहिता, हिफ़ाज़ती, भावहीन और कामुकता के दायरे में बाँधा गया है, जिससे पुरुषों का व्यवहार प्रभावित होता है। इस तरह की तरतीब पुरुषत्व को स्वस्थ्य और सम्पूर्ण रूप से अभिव्यक्त होने से रोकती है। समाज में जहाँ स्त्रीत्व को दबाया गया है तो पुरुषत्व को भी एक ही सांचे में ढाला गया है। यौन सम्बन्ध हमारी व्यक्तिगत ज़रुरत और खवाइश दोनों होती है परन्तु विषाक्त पुरुषत्व रिश्ते को एक हिंसक रूप दे देता है। इन सब के कारण दोनों की आत्मीयता की अभिव्यक्ति अपरिपूर्ण रह जाती है। 

भारत में यौन हिंसा पर कानून इस बात की पुष्टि करता है कि समाज में हिंसा की समझ अब प्रबल हो चुकी है। महिला आंदोलन से बढ़ी जागरूकता के बावजूद भी सूची में जिनका नाम आया वह शिक्षित वर्ग से आते थे, जिससे यह मिथक भी दूर होता है कि महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा केवल अमुक वर्ग में होती है। इससे यह भी उजागर हो है कि अभी भी, विशेषतः मौजूदा नारीवाद के सामने, निवारण और समाधान के प्रश्न खड़े है। केवल कानून सूत्रीकरण या संशोधन समाधान के उपाए नहीं है। अगर होते तो आंकड़े कुछ और कहते। यौन हिंसा के मामले या शिकायतें बड़े पैमाने पर घरेलू या परिचित दरों से दर्ज किए जाते है। सूची ने इस बात की पुष्टि निडरता से करते हुए सूचीकरण में केवल पुरुषों के नाम शामिल किए और सांस्थानिक हिंसा की ओर स्पष्ट इशारा किया। सूची के जारी होने से निजी सम्बन्ध और उसमें प्रत्यक्ष हिंसा को नई दृष्टि के साथ-साथ शब्दावली और भाषा मिली। हिंसा की सहायता से अपनी यौन इच्छा को स्थापित करना पुरुषत्व का अहम हिस्सा रहा है। इसलिए सूची का दूसरा इशारा संस्थागत पद से आए बल और उसके दुरूपयोग पर भी था, जो कार्यस्थलों पर हिंसा का मुख्य कारण बनते है।

सूची का दूसरा आकर्षक पहलु गोपनियता था। सूची में प्रख्यात लोगों के नाम थे। सोशल मीडिया पर आने से सूची का आघात और भी गंभीरभाव से महसूस किया गया था। गोपनियता बनाए रखना यौन हिंसा का अत्यधिक महत्वपूर्ण सूचक है। गोपनियता का भंग होना कानूनी स्तर पर हानिककरक हो सकता है लेकिन अक्सर करके यह पाया गया है कि कानून इसकी आड़ में मर्दों की तरफ झुक जाता है। लेकिन सूची ने गोपनियता का नया नमूना प्रस्तुत किया। यौन हिंसा के मुद्दे को कानून के दायरे से बाहर निकाल सोशल मीडिया जैसे अस्थिर मंच पर लाया गया, जिसमें औरत के नाम को गुप्त कर आरोपी पर प्रकाश डाला। सूची के समर्थकों के अनुसार औरतों को यौन हिंसा के खिलाफ़ ‘न्याय’ संस्थागत न्याय या अदालती निर्णय द्वारा मिलना कठिन है। सूची का विवाद बड़ा है, क्यूंकि वैधानिक या कानूनी प्रणाली पुरुषों के दृष्टिकोण से प्रभावित है और महिलाओं के मुद्दे को भावी रूप से समझने में असमर्थ है। महिला वर्ग के लिए कानूनी या सांस्थानिक उचित प्रक्रिया दुर्गम साबित होती है। इन परिस्थितियों के समक्ष कुछ महिलाओं को सूची एकमात्र सहारा लगा। जहाँ उन्होंने समाज का चश्मा अपने ऊपर हुए शोषण से पदच्युत किया और पुरुषों की आत्मीयता की स्थितियों की तरफ मोड़ा।

पुरुषत्व एक सामाजिक निर्माण है, यह विशेष तौर पर उन गुणों और व्यवहारों पर निर्मित है, जिससे समाज में ‘मर्द’ होना तय किया जाता है। पुरुषत्व कई प्रकार का हो सकता है, इसका आवरण, अनुभूति और व्यवहार हर एक व्यक्ति के लिए अलग होता है। लेकिन समाज सिर्फ़ कुछ ही गुणों को सम्बोधित करता है और औरतों को भी अपनी सामाजिक जगह बनाने के लिए स्त्रीतत्व से अलग होकर यह गुण अपनाने पड़ते है।9

अस्वस्थ्य मर्दानगी या विषाक्त पुरुषत्व का हिंसक होने के लिए ज़रूरी नहीं है कि जाहिर तौर पर मौखिक या शररिक रूप से घातक हो। इसके लक्षण रोज़मर्रा के वार्तालाप या अंतरंग बातचीत से भी सामने आते है। सूची के विवाद के बाद कुछ पुरुषों ने यह डर जताया की कहीं उनका नाम सूची में न शामिल हो जाए, वो इस बात की प्रत्याशा कर रहे थे। उन्होंने यह भी प्रकट किया कि उनके दोस्तों के अनुसार उनके नाम भी सूची में शामिल होने लायक थे। यह मनोभाव उनके डर से उत्पन्न होता है या उनके अहंकार से? मर्दों में उपस्थित यह भाव उनकी यौनिकता के प्रति विडम्बना के दायरे को दर्शाता है। सामाजिक दृष्टिकोण से भी मर्दों की आत्मीयता पर यह एक अहम सवाल है। क्या सिर्फ़ उत्तेजना और यौन इच्छा पर ही पौरूष निर्भर करता है? इस प्रकार का आचरण, यौन सम्बन्ध को इच्छा और सहजता से नहीं बलिक सामाजिक गवाही या पुष्टिकरण की नज़र से देखता है। सूची ने पुरुषत्व की इसी छवि का खंडन करने का प्रयास किया था। यह प्रयास पूर्ण रूप से सफल हुआ या नहीं, यह तो कहा नहीं जा सकता परन्तु, सूची की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि यौन हिंसा पर बातचीत महिलाओं की वेदना से आगे बढ़कर पुरुषों के यौन सम्बन्ध के प्रति मनोदृष्टि तक आ पहुंची है। सूची ने पुरुषत्व के प्रसंग में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिंसा की ओर भी इशारा किया है, इस बात पर प्रकाश डाला कि हिंसा आचरण, बर्ताव और सोच से भी पहुंचाई जा सकती है।

Cover Image: Pixabay

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