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समाज में यौनिकता और आत्मीयता की मीमांसा

mughal era painting of a man and woman in an intimate pose

‘संवेदनशीलता’ मानवता का एक उत्तम गुण है इसलिए हमारी ख्वाहिशें और इच्छाएँ स्वाभाविक होती है। हमारी ख्वाहिशें एक-दूसरे से भिन्न हैं लेकिन समाज के दायरे, निरंतर एवं विभिन्न प्रकार से, हमारी ख्वाहिशों को बांधने की कोशिश करते रहते है; और जिस प्रकार हमारा समाज एक जैसा नहीं होता उसी प्रकार हमारी ख्वाहिशें भी समाज से प्रभावित होकर, सामाजिक हो जाती हैं। समाज और ख्वाहिशों के बीच की यह कश्मकश और भी बढ़ जाती है जब बात शारीरिक संबंध या अंतरंगता या शारीरिक आत्मीयता की हो। इसका सीधा सम्बन्ध सिर्फ़ लिंग या जेंडर से नहीं बल्कि समाज की कई और स्तिथियों से भी प्रभावित होता है जैसे जाति, वर्ग या यौनिकता। सामाजिक नीतियों के कारण भी हमारी अभिलाषाएँ सामाजिक स्वरूप ले लेती हैं। यह बात लिखने-पढ़ने में तो साधारण सी लग सकती है परंतु इसे गहराई से समझना आवश्यक है। यौनिकता और स्वरूपता एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। समाज निर्मित यौनिकता हमारी जेंडर अवधारणा को सिर्फ़ प्रभावित ही नहीं करती बल्कि उसको तराशती भी है। यह एक दुष्चक्र की तरह काम करती है और इसका अभिनंदन अंतरराष्ट्रीय महिला आंदोलन की दूसरी लहर में व्यापक है। नारीवादी सोच से प्रभावित राजनीतिक सोच इस बात की डटकर अभिस्वीकृति करती है। हमारा व्यक्तिगत व आचरण हमारे सामाजिक संस्थाओं से परस्पर विकसित और प्रभावित होता है।

यौनिकता पर संलाप या डिस्कोर्स नया नहीं है। समाज में हर प्रकार के विशेषज्ञों ने इस पर चर्चा की है। विज्ञान से लेकर आध्यात्म तक यौनिकता के प्रसंग विशेषज्ञों को रिझाते रहे हैं। साहित्यिक क्षेत्र में भी अगर देखा जाए तो यौनिकता पर प्रचुर और संपन्न रचनाएँ लिखी गयी हैं जैसे वात्स्यायन द्वारा रचित विश्वप्रसिद्ध ‘कामसूत्र’, जो आज भी मानव कामुकता का एक निर्भीक परिचय देती है। इसके अलावा फ़ारसी में लिखी गयी ‘लज़्ज़त-उन-निसा’ (द प्लेश़र ऑफ़ वुमन) एक सचित्र कामोद्दीपक उपाख्यान है, जिसका अनुवाद जेनेट फाइन द्वारा अंग्रेजी में किया गया है। यह इस बात को साबित करता है कि हमारी यौन इच्छाएँ और यौनिकता समाज का एक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

साहित्यिक ज्ञान क्षेत्र में कामुक आत्मियता और यौन इच्छा पर तफ़सीली चर्चा हुई है लेकिन फिर भी यौनिकता को या तो उलझाया गया है या छिपाया गया है; इसीलिए इस तरह की दुविधा ने मानव स्तर पर होने वाले एक स्वाभाविक एहसास को सिर्फ़ गंभीर ही नहीं किया बल्कि कई सारे दायरों में बांध दिया है। विज्ञान के तथ्य हमारी सामाजिक-संस्कृतिक सोच या धारणा से कितना प्रभावित होते हैं यह बात एमिली मार्टिन अपने एक लेख में विभिन्न प्रकार की विज्ञान की किताबों का परिछेदन करते हुए उजागर करती हैं, वे कहती हैं कि महिला और पुरुष की स्वभाविक शारीरिक प्रक्रियाओं – मासिक धर्म और शुक्राणु – का उल्लेख किताबों में जिस प्रकार की भाषा में किया जाता है, वह ना ही सिर्फ़ मर्द की तरफ़दारी करता है बल्कि औरतों को प्राकृत तौर पर अधीन और आश्रित साबित करता है। यह बात हमें इस ओर सचेत करती है कि समाज में जो यौनिकता पर राजनीति (सेक्शुअल-पॉलिटिक्स) को लेकर असमानता मौज़ूद है वह कहीं न कहीं हमारी भाषा से भी आती है; जो मर्द का संचालक के रूप में अनुमोदन करती है और औरतों को संचालित के रूप में प्रस्तुत करती है। भाषा का प्रयोग जहाँ सकारात्मक रूप से विविधता को उजागर करता है या कर सकता है वहीं पर यह जेंडर को श्रेणीबन्ध करता है। इसीलिए यह माना जाता है कि भाषा ‘हेट्रोनॉर्मटिविटी’ (एक धारणा जो पुरुष और महिला के बीच शारीरिक सम्बन्ध को ही सामान्य मानती है) को बढ़ावा देने में सहायक है। भाषा-निर्माण हमारे समाज की पुरुष प्रधान सोच की पुष्टि करता है। ऐसी सोच समाज को समानता न देकर उससे जेंडर या लिंग के आधार पर विभाजित करती है या स्तर-विन्यास कर देती है। विचार व्यक्त करने का एक सामान्य और साधारण तरीका भाषा का प्रयोग है। लेकिन अक्सर हमारी भाषा ही हमारे राजनैतिक सोच के साथ छेड़छाड़ करती है जिसके फलस्वरूप हम समाज में स्वाभाविक यौनिक इच्छाओं में खलल उत्पन करते है। अतः हम उन्हीं भावनाओं को स्वीकार करते हैं जो हमारी भाषा द्वारा निर्मित हों।

जो समाज पहले से ही जेंडर के आधार पर अनुक्रमित है, वहाँ पर यौनिकता का अभिनन्दन भी रूढ़िवाद सोच से जुड़ा होगा। माइकल फ़ूको, जो नारीवाद के साथ खट्टा-मीठा रिश्ता बाँटते हैं वह अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ सेक्सुअलटी’ में ‘दमनकारी परिकल्पना ’ (रेप्रेस्सिव हाइपोथिसिस) को नकारते हुए कहते हैं कि किस तरह से 18 वीं सदी के समाज के विविध हिस्सों में सेक्स के ऊपर संभाषण घनीभूत हुआ है। उनके अनुसार सेक्स पर चर्चा चर्च में पाप-स्वीकारोक्ति या इकबालिया बयान के रूप में होती है। उनका मानना है की इसका सीधा संबंध ‘बल’ और ’बोध’ से होता है। ‘बल’ हमेशा एक तरह के संचालन में रहता है इसीलिए बल का संचार जेंडर के माध्यम से होता है। बच्चों, औरतों, वैवाहिक दांपत्य और ‘दुराग्रही’ में यौनिकता की निगरानी या नियंत्रण से बल का प्रचार होता है जिसके फलस्वरूप ‘बल’ परिवार से होते हुए पूरे समाज में फैलता है। फलस्वरूप, सेक्स को लेकर हमारी अभिवयक्ति विमुक्ति की ओर नहीं ले जाती परन्तु हमें बांधती है।

‘वोलेटाइल बॉडीज: टुवर्ड्स ए कॉर्पोरल फेमिनिज़्म’ की लेखिका एलिज़ाबेथ ग्रोसज एक लेख में इस बात को और भी सहज तरीके से उजागर करती है। हेट्रोनॉर्मटिविटी के आयाम अधिकांश रूप से पुरुष द्वारा स्वीकार किए जाते हैं जिसे एक आदर्श मान लिया गया है। इसकी वजह से महिला यौन सुख क्या है या कैसे होता है, इस पर अनुसरण कम किया गया है। इसी की वजह से समाज महिलाओं का अवलोकन भी पुरुष प्रधान लोक सम्मत धारणा पर करता है। और यह मान लिया जाता है कि सुख की अनुभूति सभी वर्ग के लोगों को प्रचलित और चर्चित विषमलैंगिकता और हेट्रोनॉर्मटिविटी के प्रतिमान पर ही होती होगी। कामुक आत्मीयता और यौन उपभोगता को एक ही पक्ष और पहलु से व्यवस्थित किया जाता है। इन सामाजिक मियादों के कारण सिर्फ़ महिला यौन सुख ही नहीं बल्कि समलैंगिक निकायों पर भी आक्षेप होता है जिसकी वजह से हम देख सकते हैं की यौन संबंध के प्रति समाज का आचरण हमेशा से संदेहस्पद रहा है। हम अक्सर इच्छाओं को सामाजिक दायरे में बांध देते है लेकिन अंतर्मन विवेचना में चूक जाते है। जिसके परिणामस्वरूप हम देख सकते हैं कि किस तरह से इच्छाओं को लेकर अपनी ही बनाई हुई सामाजिक व्यवस्था के शिकार हो गए हैं।

हमारी सामाजिकता का अंकन या समाजवादीकरण बचपन से ही शुरू हो जाता है और निरंतर हमारे सामाजिक पर्यावरण के अनुसार बनता-बदलता रहता है। सामाजिक संस्था जैसे परिवार, शिक्षा, साथी-समूह, कार्यक्षेत्र एवं आर्थिक उत्पादन की प्रणालियाँ वगैरह यह सब हमारी सोच, रहन-सहन, व्यहार, पसंद-नापसंद की संवेषणा करता है। परन्तु ज़रूरी है कि इन सब आयामों की अन्वेषण हो। हम आज भी कहीं न कहीं आमफ़हम सामाजिक संरचना के अधीन जी रहे हैं जिसने हमारी सम्पूर्ण अभिव्यंजना को कैद किया हुआ है। नारीवाद में यौनिकता पर बात शुरू हिंसा से मुक्ति पाने से हुई थी लेकिन मौजूदा नारीवाद राजनीती अभी भी समाज में फैली बंधीकरण से संक्रमित सोच पर सवाल उठा रही है। वर्तमान नारीवाद अपने इतिहास में आज एक संकीर्ण और संवेदनशील मुकाम पर खड़ा है। जहाँ महिलाएँ केवल प्रत्यक्ष नहीं बलिक अप्रत्यक्ष तरीके से होने वाली यौन हिंसा की आलोचना कर रही है। इसीलिए ज़रूरी है कि यौनिकता पर संवाद चलता रहे ताकि हम आत्मीयता कायम रख सकें।

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