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हलके में (मत) लेना

एक नीला और पीला कार्डबोर्ड का फ्रेम जिसके बीच में से गुंजन झाँक रही हैं। फ्रेम पर लिखा है - “मैं ने देखने की हद कर दी, वो भी तस्वीर से निकल आया।

यौनिकता और जेंडर पर कई वर्षों से काम करने के बाद एक बात जो मैंने तय की है, विशेषकर ख़ुद के लिए, वह ये है कि सेक्शुअलिटी एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ एंड राइट्स (SRHR) यानी यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ और अधिकार के क्षेत्र में एक चीज़ जो बहुत काम आती है वो है “सेंस ऑफ़ ह्यूमर”। यदि थोड़ा विवरण करूँ तो ह्यूमर सिर्फ़ हंसी या व्यंग का ज़्यादा इस्तेमाल नहीं बल्कि स्थितियों को हंसोड़पन की भावना से लेना, एक क़िस्म की लघुता बनाये रखना – पहले अपने लिए, और फिर अपने समूहों के साथ – ह्यूमर के अंदर आता है। छिछोरेपन और हल्केपन के बीच निसंदेह एक बहुत ही नाज़ुक, बारीक़ फ़र्क है। तो पहले ये बात कर लेती हूं कि मुझे इसके क्या फ़ायदे मिले और क्या नुकसान।

भारी भरकम

फ़ायदे यह रहे कि इन मुद्दों पर बनी हुई गम्भीरता, इन पर पड़े परदे और शर्म की चादर, को उठाकर व्यंग, हंसी या “हलकापन” लोगों को एक मुस्कराहट की अनुमति देता है। व्यंग छुपी हुई हंसी को बाहर लाने का अवसर देता है। प्रतिभागी जो आज तक इन मुद्दों को गंदा, कलंकित या महत्वहीन मान कर छुपा रहे हैं अब कम से कम उनपर हंस सकते हैं। और हंस रहे हैं तो हम समझते हैं कि वे उस स्थिति पर एक राय भी क़ायम कर रहे हैं, एक समालोचना तैयार करके उस परिस्थिति की समीक्षा शुरू कर रहे हैं। व्यंग व्यक्ति पर नहीं, समाज पर है, उसकी बनाई गई बेवकूफ़ियां पर है।

नुक्सान भी रहे हैं, ख़ास तौर पे कुछ वर्षों में जब हल्केपन में कही गई बात एक दम से कुछ लोगों को “नॉट सो कूल” या “ओल्ड फैशन्ड” यानी पुराने ज़माने की भी लग सकती है। एक उदाहरण दे रही हूं। एक सेशन में कुछ चर्चा हो रही थी और मदर्स, या “मेरी मम्मी, मेरी मॉम”, की भी बहुत बातें हो रही थीं। माँ लफ़्ज़ तो हम जानते ही हैं किन किन इमोशंस को प्रकट करता है लेकिन शायद अनुमान नहीं लगता कि ये मामला दोनो तरफ़ भी हो सकता है। युवा लोग भी “मेरी माँ मेरी सबसे अच्छी दोस्त है” का जाप करते हैं। उसी के हवाले शायद कहा होगा “कभी मां की भी फ़ीलिंग्स सोचो – शायद वो भी तुम से छुटकारा चाहती हो? कि तुम जाओ और वो एक चप्पल यहां दूसरी वहां, बाथटब में लेट के, एक हाथ में ड्रिंक, कान में म्यूज़िक…”

बस कहने की देर और एक लहर सी दौड़ गई – बॉडी लैंग्वेज देखते ही देखते बदल गई। मैं कुछ कहूं इससे पहले एक प्रतिभागी बोले पड़े, “कि ऐसी कोई बात नहीं है मैम, मेरी माँ ऐसा सोच भी नहीं सकती”। दुसरे ने जोड़ा, “हमारे यहां बाथटब तो है ही नहीं” और इससे पहले की कोई “मैम कौन से ड्रिंक्स?” या “चप्पल क्यूं फेनके मम्मी” पूछते, मैंने हाथ खड़े कर दिये। हल्कापन भारी पढ़ गया। सीख? मम्मी पर कोई मज़ाक नहीं। यह चर्चा कि हमने माताओं को इतना ‘भगवान’ बना रखा है कि उन्हें साधारण औरत बनने का अवसर ही नहीं मिल रहा है – इस वक़्त वो मौक़ा नहीं था। इस भय से की, “मेरी माँ मेरी गॉड ही हैं” – मैंने सोचा ये “#माँ भी महिला है” मुहीम यहां ही समाप्त करूं। ऐसे मौक़े पर, चाय-बिस्कुट के अलावा कोई चारा नहीं। असल में बहुत सी ऐसी बातें हैं, जिन पर कुछ समझदारी रखनी बेहतर है। मज़हब/धर्म, पॉलिटिक्स तो यक़ीनन उन में से हैं, और हाँ, करवा चौथ भी।

साथ ही, मुझे ऐसा अनुभव हुआ है कि जब सेक्स और सेक्शुअलिटी के ऊपर का परदा उठता है तो लोगों को, भले ही वे किसी भी उम्र या तजुर्बे के हों, ख़ुद में भी एक अनुमति मिल जाती है – आगे बात करने की, चर्चा को बढ़ाने की, उभरते हुए मुद्दों पर अपनी राय और अनुभव रखने की – क्योंकि माहौल “हल्का” है, सब ख़ुशी से मज़ाक में बात कर रहे हैं। माहौल भले ही लघु हो, परंतु जो बातें हो रही हैं, वो ना ही हल्की है और ना ही महत्वहीन, बल्कि बिलकुल विपरीत।

मसलन, इस काम के दौरान, हम मार-पीट, घरेलु और निजी रिश्तों में हो रही ग़ैरबराबरी पर बात करते हैं। ये बातचीत हमारे सबसे निजी, ज़्याती मामले और अंतरंग अनुभवों को सामने लाती हैं। लोग अपनी आपबीती बताते हैं, दु:खी होते हैं, रोते हैं।

पुष्पा – तुम्हें पता है कि…

एक ट्रेनर और काउंसलर होने के नाते, इस तरह की साझेदारी और अभिव्यक्ति कुछ हद तक अपेक्षित है। ऐसा कुछ होते ही, यदि एक व्यक्ति का “ब्रेकडाउन” हो रहा है, इससे पहले कि हम कुछ करें, दो-चार और भी रोने लग जाते हैं, दो-चार पानी और प्यार की बौछार करने लगते हैं, कमरे में से सिसकियों की आवाज़े गूंजने लगती हैं। एक बार तो मेरी को-ट्रेनर भी शमिल हो गई थी आवाज़ों में। फिर से चाय ब्रेक और राजेश खन्ना साब का वो प्यारा डायलॉग “पुष्पा, आई हेट टीयर्स”, जो मुझे लगता है हर SRHR/जेंडर ट्रेनर/काउंसलर की नज़र किया गया है।

इस क़िस्म के एक सेशन में, स्थितियों को सँभालते हुए, मेंने कहा होगा, “डोंट बी ए मीना कुमारी, एक मीना कुमारी मत बनो”। महिलाओं की अपनी “एजेंसी”, क़ाबिलियत और क्षमता को पुकारते हुए, कि मैं बिल्कुल ही बेचारी हूं, हर स्थिति में – ऐसा मत सोचो। “मीना कुमारी मत बनो”।

जो लोग मीना कुमारी के अभिनय से वाक़िफ़ हैं वो हंसते हैं, उनके किसी डायलॉग या गाने का ज़िक्र भी करते हैं। जो अभी तक माहौल बन रहा था, दुख और बेबसी का, “आंसू की आगे ले के तेरी याद आई…आए रे ये कैसी जुदायी”, हंसी और चंचलता की लहर में ये ही एक जुमला सा बन जाता है, कि “Ma’am, मैं मीना कुमारी नहीं बनना चाहती अब और”।

लेकिन एक बार मज़ाक मुझ पर ही आ गया। एक युवा ग्रुप के साथ काम करते हुए, कई बोल पड़े, “लेकिन ये मीना कुमारी है कौन?” वक़्त आ गया, शर्मा G, डायलॉग बदलने का। जवाब आया, “अरे! एक पुरानी हीरोइन थी जो हमेशा रोती रहती थी – हमेशा उसका बॉयफ्रेंड उसे छोड़ देता था।” उससे आगे आया की “यार, बॉयफ्रेंड्स छोड़ देंगे तो बेचारी रोएंगी ही ना।” बात और बढ़ती है – “एक दिन, दो दिन – क्या पूरी पिक्चर ये रोने में निकाल देगी?” सादर प्रणाम, मीनाजी, आपका अभिनय मेरे और सेक्शुअलिटी की चर्चा के बहुत काम आया।

कुछ गुप्त सूचना

मुझे बहुत बार बोला जाता है कि मैं बहुत “फ़नी” हूं जिससे मुझे ख़ुशी भी है और फ़िक्र भी। मेरे फ़नी होने के चक्कर में कहीं मामला गड़बड़ न हो जाए, कि बात ही हलकी पड़ जाए, कि माहौल चंचल न रहते हुए निरर्थक हो जाए।

बातों की गंभीरता, चर्चा के विषय पर पकड़ और एक गंभीर समझ और इन मुद्दों पर काम करने का तजुर्बा ही आपको इस क़िस्म के “पंगे” लेने में मदद कर सकता है – ऐसा मेरा मानना है। कुछ “टिप्स” जो शायद मेरे काम आईं हैं साझा कर रही हूं।

“मज़ाक” किसी के ऊपर नहीं। यदि है तो उसका पहला और लंबा वक़्त का निशाना आप ख़ुद हैं, तो ख़ुद पर ‘जोक’ या व्यंग करने का कौशल बनाये रखना है।

इस के अलावा, आस-पास हो रहे ग़ैर-ज़िम्मेदारी, जेंडर से जुड़े हुए बेमतलब के जोक्स, फैलती हुई अवधारणाएं – यह भी व्यंग और हास्य का सामान बन सकते हैं। एक चर्चा शुरू करने के लिए, इनका खंडन करने के लिए। हम सब भली भाँती जानते हैं, आलोचना भी करते हैं की काफ़ी हद तक सोशल मीडिया पर फ़ॉरवर्ड होने वाले जोक्स, महिलाओं और “बेचारे” पतियोँ पर हैं। महिलाओं की शॉपिंग, शक करना, पीछा करना, अपने “भोलेपन” में कुछ बुद्धू सी दिखना , अपने और औरों के शरीर पर, उनके खाने पर, उनके कपड़ों के साइज़ पर टिपण्णी देते हुए दिखते हैं। जेंडर और सेक्शुअलिटी के मामलों को बहुत तुच्छ और छोटा कर देते हैं।

इन सब को बदलने के लिए भी एक अलग “नैरेटिव” यानी वर्णन तय्यार होना चाहिए, वही ह्यूमर और हल्केपन का बेहतर इस्तेमाल करते हुए।

युवा लोग बहुत जल्दी अपने ट्रेनर को अपनाना चाहते हैं तो आप में कुछ अपने जैसे ढूंढ़ते हैं… “मैम आपकी शादी हो गई ना?” जो आपको मौक़ा देता है सवाल उठाने का कि, ये कैसे पता चलता है। मैं कह सकती हूं, कि “क्या ये मेरे ‘बम साइज़’ ने बता दिया?”। इस पर सब बहुत हंसते हैं, मेरी “हेल्थ” पर दो-चार कमेंट आते हैं, और साथ ही ‘बम्स’ पर चर्चा, और शादी-शुदा होने के जाने-माने चिन्ह पर भी बात-चीत शुरू हो जाती है।

मैं आज़ाद फाउंडेशन में सालों से SRHR का मॉड्यूल आयोजित करती हूं जिस में युवा महिला ड्राइवर बनने का प्रशिक्षण लेती हैं। अपनी ट्रेनिंग के दौरन, उन्हें 14 और “क्लास” लेने होते हैं। जबकी उन्हें बाक़ी क्लासेज़ के नाम बख़ूबी मालूम हैं: जेंडर क्लास, सेल्फ़ डिफेंस क्लास, फ़र्स्ट एड क्लास, इंग्लिश क्लास, लेकिन आज भी SRHR की क्लास “गुंजन मैम की क्लास” के नाम से जानी जाती है।

ट्रेनीज़ शर्म और उत्सुकता को दबी-दबी मुस्कान और हंसी में छुपाते हैं, अपने दुपट्टे में, स्कार्फ़ में या फ़िर एक दूसरे के कंधे में! “कांधे से बाहर निकलो और खुल के हंसो, कुछ भी बोलो या पूछो,” – उन्हें जैसे कि ये एक मंज़ूरी, एक छूट, देता है “गंदी बातें” करने का, अपने अनेक असमंजस साफ़ करने का, बहुत हसने का और इन बातों पर पड़े हुए परदे ख़ुद गिराने का।

आम तौर पर, एक “बाउंड्री” बनाए रखने के लिए अपने निजी मामले या उनका ब्योरा मैं कम इस्तेमाल करती हूं लेकिन आप-बीती, आप-देखी बातें तो आ ही जाती हैं। एक उदाहरण दे रही हूँ। कुछ साल पहले, मेरा वज़न कुछ घट गया। युवा महिलाओं ने इसे नोट किया। मैंने कहा कि मैं बहुत ‘डाइटिंग’ कर रही हूं, वो भी पूछने लग गई, क्या, कैसे इत्यादी। मेरे लिए एक दुविधा की स्थिति बन गयी कि एक तरफ़ में स्वास्थ के विषय पर ज़ोर देती हूं, शरीर पर अभिमान और स्वीकारने को प्रमुखता देती हूं और एक तरफ़ ये चर्चा आ रही थी। में फँस गयी।

बस समझ लीजिये कि “मेनोपॉज़” उस वक़्त बहुत काम आया, कमज़ोरी और झुर्रियां भी!

एक उपयुक्त मरहम

आख़िर में, सिर्फ़ ये कि हास्य, हंसी, हसोड़पन, और “लाइटनेस” की सेक्शुअलिटी और उससे भी ज़्यादा सेक्शुअलिटी काउंसलिंग और ट्रेनिंग में बहुत अहम भूमिका है।

भले ही काउंसलिंग के दौरान इसका इस्तेमाल कम ही हो पाता है, इसमें कोई शक नहीं है कि एक ऐसी मानसिकता जो हल्केपन को महत्व देती है दूसरों और अपने ख़ुद के लिए मरहम का काम करती है।

हम लोग जो इन विषयोँ पर काम करते हैं, एक अनदेखे बोझ के तले दबते जाते हैं। हमें इतनी नीजी बातें सुन्नी हैं, इतनी गंभीर चर्चा में जुड़ना है, लोगों का महिलाओ और बच्चों पर हो रही घाटनाओं के विवरण पर ध्यान देना है, कुछ सुझाना है, उन्हें पेश करना है और उस पर टिप्पणी देना है या फिर कोई मार्ग दर्शन।

इस स्थिति में अपने को उपयुक्त रखने के लिए, अपने आप को सुरक्षित और स्वस्थ रखना है, अपने ख़ुद की मेंटल और इमोशनल हेल्थ को बनाए रखने के लिए ताकी हम लम्बे समय तक सार्थक रह सके।

लाइफ़ को, सेक्स को और ख़ुद को थोड़ा हल्का में लेना मेरे लिए काफ़ी मददगार साबित हुआ है।

अब हमारे ज़रूरी लफ़्ज़ भी नमकीन बनाने वालों ने हड़प लिये हैं जब की ये कॉन्सेप्ट, ‘हल्के फुलके’ तो असल में सेक्शुअलिटी और जेंडर पर काम करने वालों के ही हैं। नहीं तो, इनके बिना अब तक इन मुद्दों पर काम करने वाले लोग या तो Lays over हो जाते या फिर मीना कुमारी के गमगीन गीतों में खो गए होते।

गुंजन शर्मा के पास यौनिकता के मुद्दों पर प्रशिक्षक, सामग्री निर्माता और काउंसलर के रूप में तीस से अधिक वर्षों का अनुभव है। वह लोगों की विशिष्टता में विश्वास करती हैं और उन्हें देखकर एवं सुनकर जीवन और यौनिकता के बारे में बहुत कुछ सीखा है। गुंजन ने जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली से सोशल वर्क में मास्टर्स किया है। उन्होंने अद्भुत लोगों और संगठनों के साथ काम किया है (और अब भी कर रहीं हैं)। गुंजन कहती हैं, “व्यंग में मेरे विश्वास ने मुझे सतर्क और सचेत रखा है। लोग मज़ाकिया बातें इतनी गंभीरता से करते और कहते हैं, मुझे उनमें सिर्फ ह्यूमर दिखता है।”

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छवि क्रेडिट: लेखक द्वारा