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अपनी क्वीयरनेस को फिर से हासिल करना, एक टूटे हुए बचपन को जोड़ना

Against a dark background, there are a bunch of white neon lines making up a silhouette of a person lying in a reclining position.

जहाँ तक मुझे याद है, बचपन में मैं बस यही चाहता था कि मैं अदृश्य हो जाऊँ। मैं गायब हो जाना चाहता था ताकि कोई मेरी ओर ध्यान न दे। पर मैं ऐसा क्यों करना चाहता था? क्योंकि अगर मुझे कोई नोटिस करता, तो मुझे कुछ शब्द सुनाई देते – ‘होमो’, ‘गे’, ‘गर्ली’, ’50-50′, और भी बहुत कुछ अंग्रेज़ी, असमिया, और हिंदी में।अब जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ, मुझे अहसास होता है कि मैं लगातार होने वाले दुर्व्यवहार और चोट के डर में जीता था। सारे शब्द एकदम हथियार के जैसे थे, जैसे कि कोई छड़ी या डंडी हो, जिनका मकसद ही चोट पहुँचाना था।अभी भी, एक गर्वित और खुले तौर पर क्वीयर होने के बावजूद, मैं यह नहीं भूला हूँ कि इन अल्फ़ाज़ों की आवाज़ एक समय पर मेरे लिए कैसी थीं। और अजीब बात यह है कि अगर मैं पीछे मुड़ कर देखूं भी जब मैं गायब होना चाहता था, मैं यह भी चाहता था कि मुझे मंज़ूरी मिले। यह वह दोहरा बंधन है जो मेरे अतीत और शब्दों के जाल को सुलझाना इतना कठिन बना देता है।

मैं 1990 के दशक में गुवाहाटी में एक उच्च-मध्यम वर्गीय परिवार में पला-बढ़ा। जब मेरा नामांकन खानापाड़ा के केन्द्रीय विद्यालय में हुआ तो लड़के अक्सर मुझ पर टिप्पणी करते थे कि मैं ‘लड़कियों जैसा’ हूं, क्योंकि मैं लड़कियों के साथ खेलता था और मेरी आवाज़ बहुत ऊंची थी। फिर भी मुझे खेल खेलना पसंद था और मैं अपना ज़्यादातर समय बाहर खेलने में बिताता था, वे दोनों गतिविधियाँ जो आमतौर पर लड़के करते हैं। मेरे सहपाठियों को समझ में नहीं आ रहा था कि वे मेरे बारे में क्या सोचें, पर उस स्कूल में कुछ ऐसे लोग मेरे दोस्त बनें जो स्कूल के वर्षों में मेरे एकलौते दोस्त थे। जब मैं तेरह साल का था, मेरा तबादला मरिआज़ पब्लिक स्कूल कर के एक प्राइवेट स्कूल में हुआ जहाँ पर मैं मौखिक और शारीरिक हिंसा का शिकार हुआ। लेकिन फिर भी, बहुत बाद में मैं ‘दुर्व्यवहार’, ‘उत्पीड़न’, ‘छेड़छाड़’, और ‘हमला’ जैसे शब्दों को परिभाषित रूप से देख पाया। इन शब्दों के ज्ञान के बिना, मैंने हिंसा को सामान्य मान लिया जो अगले कुछ सालों तक मेरी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गयीं। मैंने बिना कोई शिकायत या विरोध किए यह सब अपने अंदर ही ले लिया, क्योंकि रोज़मर्रा के अपमान से कभी-कभी प्रतिरोध नहीं किया जा सकता और मैं मानता था कि गलती मेरी ही रही होगी। मुझे ‘गे’ या ‘होमो’ कहलाने से सख़्त नफ़रत थी और ये शब्द तथा उनका मतलब मेरे लिए बहुत दु:ख का कारण बन गया। ये शब्द नफ़रत किए जाने, वह न होने जो आपको होना चाहिए, तथा बेकार होने से जुड़ गए।

गुवाहाटी तेज़ी से व्यावसायीकरण के कगार पर था और मेरे सहपाठी धनी परिवारों से थे। मरिआज़ में, अपने साथियों के बीच आपकी स्थिति आपके ‘रूप’ पर निर्भर करती थी। यह आपके द्वारा पहने जाने वाले कपड़ों के ब्रैंड, आपको स्कूल छोड़ने या वहां से लेने आने वाली ड्राइवर वाली कार और आप कितनी अच्छी अंग्रेज़ी बोलते हैं, इन सारी चीज़ों पर आधारित था। भाषा महत्वपूर्ण थी, चाहे वह मौखिक हो या दृश्य। भले ही मैं एक विशेष प्रकार की विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि से आया था, फिर भी मेरे पास न तो फैंसी कपड़े थे, न ही मेरे बटुए में पैसे थे, और मेरी अंग्रेज़ी भी प्रवाहशील नहीं थी। और चूंकि मैं कम कद-काठी का था और मेरा रंग साँवला था, इसलिए मैं अलग-अलग तरह की बदमाशी का आसान शिकार था, जिसमें मेरी साँवली त्वचा, मेरे शरीर, मेरे बर्ताव आदि के लिए मुझे चिढ़ाया जाता था। और घर पर भी चीज़ें बहुत अलग नहीं थीं। इसी दौरान मुझे अपने लिए एक अधिक स्तरीय शब्द मिला, ‘जनाना’, जो मुझे पसंद नहीं आया, लेकिन कम से कम इसने मुझे यह समझने के लिए एक शब्द दिया कि मेरे में क्या ‘गलत’ है, और इस तरह मुझे कुछ दिशा मिली कि मैं ख़ुद को स्वीकार्य जेंडर और यौन व्यवहार के प्रति कैसे संरेखित करूं।

फिर भी, मुझे स्कूल में कभी मौका नहीं मिला क्योंकि पहले हफ्ते से ही मुझे लगातार निशाना बनाया गया। मेरे लिए स्कूल जाना किसी यातना से कम नहीं था, जिससे किसी भी बच्चे को कभी नहीं गुज़रना चाहिए। इसके अलावा, शिक्षकों और मेरे माता-पिता को पता था कि क्या हो रहा था, लेकिन मेरे और मेरे साथी छात्रों के लिए, जिन्हें धमकाया गया था, सक्रिय रूप से सुरक्षित वातावरण न बनाकर, वे भी किशोरों द्वारा प्रदर्शित अपमानजनक और विषाक्त पुरुषत्व को बढ़ावा देने वाले बन गए। मेरी सबसे बड़ी निराशा यह थी कि जो कुछ हो रहा था उसमें मेरे कुछ सहपाठी शामिल थे। वे मेरे चचेरे भाई और मेरे माता-पिता के दोस्तों के बच्चे थे, जिनसे मैं स्कूल के बाहर अक्सर मिलता था। वास्तव में उन्होंने इसे संभव बनाया, इसे सामान्य बना दिया और स्कूल के अंदर तथा बाहर एक युवा किशोर के पूर्ण विघटन की ओर से आंखें मूंद लीं। जिन वर्षों में मैं वहां था, मैं एक तरह की परछाई में रहता था, हमेशा उन लड़कों के समूह से भागता रहता था जो अपने मनोरंजन के लिए मेरे साथ मौखिक और शारीरिक दुर्व्यवहार करते थे। और हर बार यह दु:खदायी होता था क्योंकि हमले बहुत क्रूर होते थे, वे तीव्र गति से आते थे और सब कुछ बहुत ही आकस्मिक भरा होता था। यह एक रोज़मर्रा का मामला था, और इससे भी बुरी बात यह थी कि यह मेरे साथ-साथ सभी लोगों को उचित लगा, क्योंकि यह मेरी ओर से ‘सामान्य’ और ‘मर्दाना’ बर्ताव की कमी का परिणाम था।

जब मैं इस बात पर विचार करता हूं कि मैंने क्या सक्रिय रूप से दबा दिया था और लगातार भूलने की कोशिश की थी, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने बारे में क्या सोचता हूं, इसे परिभाषित करने में भाषा कितनी ज़रूरी थी। मौखिक दुर्व्यवहार और धौंसियाना बर्ताव ने गैर-मानक व्यवहार, समलैंगिकता और क्वियरनेस के साथ मेरी पहचान बना ली। इस नकारात्मक पहचान ने इस समझ को जन्म दिया कि मुझे उन चीज़ों के अलावा कुछ भी होना चाहिए। इसने गैर-मानदंडों को वर्जित बताया। और इससे ‘समलैंगिक’ होने के बारे में एक बहुत ही जटिल और पेचीदा समझ पैदा हुई। यह सिर्फ यौनिकता के बारे में नहीं है, बल्कि काफ़ी हद तक जेंडर के बारे में भी है – समलैंगिक होना ग़ैर-पुरुष होने के समान है और अगर आप मर्दाना नहीं हैं, तो आप निम्न में से कुछ भी हो सकते हैं – ‘समलैंगिक’, ‘होमो’, ‘हिजड़ा’, ‘लड़की-जैसा’, ’50-50′, कोई ऐसा व्यक्ति जिसे ‘सेक्स पसंद हो’ या ‘गुदे में ले लेना’, या उपरोक्त में से किसी का भी संयोजन। तो मैं सोचता था कि मैं कौन हूँ? मुझे क्या होना चाहिए? मुझे कौन होना चाहिए था? मैं उलझन में था, और यह उलझन कई सालों तक चली, और इसके अवशेष अभी भी मौजूद हैं। भाषा, चाहे मौखिक हो, भावात्मक हो या दृश्यात्मक हो, अक्सर जेंडर और यौनिकता को एक साथ मिला देती है, उन्हें अर्थ प्रदान करती है और यह भी परिभाषित करती है कि सामाजिक रूप से स्वीकार्य व्यवहार क्या है।

इस वजह से, मुझे कभी भी अपनी पहचान या यौनिकता के बारे में सहज समझ नहीं थी, क्योंकि मैं हमेशा मर्दाना और विषमलैंगिक बनने की आकांक्षा रखता था। यह सरल एवं सीधा था। मुझे याद है कि मैं अक्सर ख़ुद को आईने में देखता था और ख़ुद से कहता था कि मैं एक लड़का हूं, और मैं उन सभी चीज़ों से बेहतर हूं जिनका मुझ पर आरोप लगाया जाता है। मैंने चाहे कितनी भी कोशिश की कि मैं ‘सामान्य’ रहूं, लेकिन हमले बंद नहीं हुए। पुरुषत्व का यह ‘पवित्र’ स्थान किसी तरह विश्वविद्यालय में आने तक मुझसे दूर रहा, और मुझे यह अहसास हुआ कि मुझे अब ‘लड़कों के क्लब’ में शामिल होने या सामान्य होने की आकांक्षा रखने की ज़रुरत नहीं है, क्योंकि मुझे ऐसे दोस्त मिल गए हैं जिन्होंने मुझे स्वीकार किया है। यह आसान नहीं था, लेकिन आख़िरकार मैं अपने जेंडर और यौनिकता को समझने की इस विलम्बित यात्रा शुरू करने में सक्षम हो गया। जो कुछ मैंने सीखा था उसकी शक्ति को नष्ट करने और समाप्त करने में सक्षम हो गया था, और उन सभी लफ़्ज़ों को ख़त्म करने में सफल हो गया, जिनका इस्तेमाल मुझे प्रताड़ित करने के लिए किया गया था। इन शब्दों को बदलने में कितना समय लगा? शायद एक दशक या उससे भी ज़्यादा समय हो गया है, और अब भी मेरी ज़िंदगी पर इन शब्दों की शक्ति और मेरे अतीत की यादों ने मुझे यह एहसास कराया है कि भाषा कितनी हिंसक हो सकती है। और ऐसे घाव भी हैं जिन्हें हम देख नहीं सकते या पूरी तरह से नहीं जान सकते कि वे कितने गहरे हैं, ताकि पता चल सके कि वे सचमुच ठीक हो रहे हैं या नहीं, या फिर कभी ठीक होंगे भी या नहीं।

जे.एल.ऑस्टिन1, जूडिथ बटलर,2 मिशेल फ़ूको3 और कई अन्य विद्वानों द्वारा भाषा, जेंडर और यौनिकता पर किए गए आलोचनात्मक कार्यों ने सत्ता और “पर्फौमेटिविटी” पर चर्चाओं के साथ-साथ इन विषयों पर महत्वपूर्ण बातचीत शुरू की। उन्होंने मुझे ख़ुद को देखने और अपनी आत्म चेतना को नए सिरे से समझने की भाषा दी।मैंने दुनिया भर में प्रकाशित आलोचनात्मक लेखों का एक बड़ा संग्रह देखा, जिसमें विविध प्रकार के अनुभवों को ज़मीनी और चेतना-संबंधी आवाज़ प्रदान की गई है। ये आवाज़ें महत्वपूर्ण थीं, क्योंकि जिन शब्दों ने मुझे न सिर्फ़ शक्तिहीन और अधिकारहीन बना दिया था, बल्कि मुझे एक पीड़ित होने के नाते जो कहानी सुनाई थी, उन्हीं शब्दों का अब वह अर्थ नहीं रह गया था जो पहले था। जैसे-जैसे मैंने दक्षिण एशियाई विद्वानों के साथ-साथ पश्चिमी लेखकों द्वारा जेंडर, यौनिकता और नारीवाद पर अधिक कार्य पढ़े, मैंने पाया कि मैं धीरे-धीरे पुनः प्राप्ति की एक श्रमसाध्य और समय-गहन यात्रा पर चल पड़ा हूँ। यह भाषा और शब्द ही थे, जिन्होंने लम्बे समय तक मेरा दम घोंटा था, लेकिन फिर ये वे शब्द भी थे, जिन्हें मैंने अपने साथियों के साथ बोलना सीखा, जिन्होंने मुझे अपने जेंडर और यौनिकता के साथ अपनी पहचान को समझने, उसे बदलने और पुनर्गठित करने के लिए एक भाषा दी। शायद मेरे सफर का एक बड़ा हिस्सा ऐसे ही महत्वपूर्ण मोड़ लेने के बारे में है, और इसे ‘मुझे अपने नाम से बुलाओ’ (Call Me By Your Name,2007) की इन पंक्तियों में सबसे अच्छी तरह से व्यक्त किया गया है –

“लेकिन वहां कुछ गलत मोड़ भी थे। हर कोई ट्रावियामेंटो (“दिशा की क्षति”) के दौर से गुज़रता है – जब हम जीवन में एक अलग मोड़ लेते हैं…। दांते ने खुद ऐसा किया था। कुछ लोग ठीक हो जाते हैं, कुछ ठीक होने का दिखावा करते हैं, कुछ कभी वापस नहीं आते, कुछ तो शुरू करने से पहले ही हार मान लेते हैं, और कुछ, किसी भी मोड़ पर जाने के डर से, जीवन भर ग़लत जीवन जीते हुए पाते हैं।”4

मैं अभी भी यह सोच रहा हूं कि क्या मैं ठीक हो गया हूं, या मैं केवल ठीक होने का दिखावा कर रहा हूं। हालाँकि, प्रक्रिया और सफ़र जारी है, और अब मेरे पास कुछ उपकरण हैं जिनके साथ मैं अपना और अपने आसपास के लोगों का ख़्याल रख सकता हूँ।

प्रांजलि शर्मा द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।

1 J.L. Austin. How to do things with words. London: Oxford University Press, 1962. ↩︎

2 Judith Butler. Gender Trouble: Feminism and the subversion of identity. New York: Routledge, 1990. ↩︎

3 Michel Foucault. The history of sexuality, Volume 1. New York: Pantheon Books, 1978.↩︎

4André Aciman. Call me by your name. New York: Farar Straus Girox, 2007.↩︎


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Cover Image: An Kush