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‘किमाम वाली रात के नाम’ – भारतीय इतिहास में पान की शृंगारिक भूमिका

A photograph of a man washing betel leaves with water in a steel bucket.

“तेरी बातों में किमाम की ख़ुश्बू है…”
-फ़िल्म ‘बंटी और बबली’ (2005) में ‘कजरा रे’ गाने के बोल

फ़िल्म ‘लगे रहो, मुन्नाभाई’ (2006) में ‘गांधीगिरी’[1] का पैग़ाम फैलाने वाले मुन्ना (संजय दत्त) के पास एक परेशान अपार्टमेंट निवासी का फ़ोन आता है, जो सबसे ऊपर वाले माले पे रहने वाले अपने पड़ोसी की हरकतों से तंग आ चुका है। ये पड़ोसी, जो सोने की चेन पहने रहता है और एक अमीर व्यापारी जान पड़ता है, हर सुबह नीचे उतरते वक़्त इस आदमी के दरवाज़े के सामने पान की पीक का फ़व्वारा छोड़कर जाता है। वो बेचारा आदमी मुन्ना को फ़ोन लगाता है ये पूछने के लिए कि इस मुसीबत से कैसे झेला जाए क्योंकि वो अगर इस हट्टे-कट्टे, लड़ाकू पड़ोसी से बात करने जाए तो कहीं उसकी मुलाक़ात मौत से ही न हो जाए। वो अचरज से सुनता है जब मुन्ना कहता है कि ग़ुस्से से पेश आने के बजाय एक बिलकुल निःस्वार्थ भाव अपनाना ज़्यादा ज़रूरी है। गांधी की तरह एक गाल पर चमाट पड़े तो दूसरा गाल आगे बढ़ा देने में ही मुसीबत का समाधान है।

मुन्ना इस पीड़ित को नेकदिली के ज़रिए अपने पड़ोसी को सबक सिखाने की सलाह देता है। वो कहता है कि अगली बार जब भी ऐसा हो, उसे अपने पड़ोसी को एक ‘मस्त स्माइल’ देते हुए उसी के सामने उसकी गंदगी साफ़ करनी चाहिए। वो आदमी कुछ दिन इसका पालन करता है फिर अचानक एक दिन उसका पड़ोसी उसके दरवाज़े के बाहर थूकना बंद कर देता है और उससे माफ़ी भी मांगता है। हमने देखा कि उसे शर्म आई और अपनी ग़लती का एहसास तो हुआ, लेकिन क्या पता, हो सकता है कि उसने किसी और के घर के बाहर थूकना शुरु कर दिया हो और उस नये बेचारे पर उसकी गंदगी साफ़ करने का भार आ गया हो।

अब पान से जुड़ी इस कहानी के ज़रिये मैं गांधीवादी दर्शन या शांति और अहिंसा की बात तो नहीं करने वाली, बल्कि मेरा मक़सद है पान के इतिहास पर रौशनी डालना और इस बात पर ग़ौर करना कि कैसे ये एक ही साथ घृणा का पात्र और कामुकता का प्रतीक रहा है। इस दृश्य में पान को एक कलंक की तरह दिखाया गया है जिसे समाज की बेहतरी के लिए हटाना ज़रूरी है। पान के बारे में हमारी वर्गवादी और उपनिवेशवादी (फ़िरंगी शासन से उत्पन्न) सोच इस कहानी में उभर आती है, मगर इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो यौनिकता, वासना, प्रेम, भक्ति, और राजसी गौरव के साथ पान का एक खट्टा-मीठा सा रोमांस[2] नज़र आता है। फिर इस रोमांस को घृणा, गंदगी, अश्लीलता, तिरस्कार, और व्यभिचार के साथ कैसे जोड़ा जाने लगा? शायद ये सभी अलग-अलग भावनाएं एक ही डोर से बंधी हुईं हैं जिसकी वजह से ये एक-दुसरे से जुड़ी हुईं हैं। जो चीज़ एक इंसान की वासना जगाती है, वही किसी दूसरे को अश्लील लग सकती है (जैसे पॉर्नोग्राफ़ी या कोई लोकप्रिय सेक्सी गाना)। दो लोगों के बीच के प्यार का रिश्ता भी सामाजिक रिवाजों के मुताबिक़ घृणित नज़र आ सकता है (जैसे अंतर्जातीय विवाह या तथाकथित ‘लव जिहाद’)। शायद हमारी ग़लती ये है कि हम इन भावनाओं को एक-दुसरे से अलग करते हैं, जबकि इनका विरोधात्मक मिलन वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के लिए एक कठोर चुनौती बन सकता है। हमारे इतिहास में पान की विवादजनक भूमिका को समझने की शुरुआत हम यहीं से कर सकते हैं। आख़िर पान है क्या? दिल के आकार का एक बड़ा पत्ता जिस पर सलीक़े से गुलकंद, चूने, और कत्थे का मिश्रण लगाया जाता है और फिर जिसे चार लाल धागों से बांधकर, इलायची की छोटी-सी खूंटी लगाकर पेश किया जाता है। इसी से साबित होता है कि पान कई अलग-अलग क़िस्म के पदार्थों का शानदार मेल है, जो पदार्थ एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी बेहतरीन तरीक़े से आपस में मिल जाते हैं।

बचपन की यादें

मेरे पापा पान और तंबाकू के शौक़ीन थे। ये शौक़ ख़ानदानी था, इस हद तक कि मैंने अपने चाचा को ही एक लाइलाज ब्रेन ट्यूमर के साथ जीते देखा है जिसकी एक वजह शायद तंबाकू था। जब मैं दस साल की थी, मुझे बाथरूम के सफ़ेद बेसिन पर अक्सर लाल-लाल निशान नज़र आते थे और पूरे बाथरूम में किमाम की कड़क, मीठी ख़ुश्बू आती थी। ये ख़ुशबू गंदे कपड़ों, साबुन और डिटर्जेंट की बू के साथ घुल जाती थी और ख़ून की तरह गंधाने लगती थी। इसी से मझे पता चलता था कि मुझसे पहले पापा बाथरूम गए थे। मुझे आज भी घिन्न का वो अनुभव याद है जो मुझे होता था। ऐसा लगता है जैसे वो बू मेरे नाक में बस गई हो। लेकिन जब मैं जानती ही नहीं थी की ये लाल रंग और नशीली ख़ुश्बू किस चीज़ की है, तब मुझे इतनी घिन्न कहां से आती थी? शायद इसलिए क्योंकि ये ख़ुश्बू मुझे अपनी ओर खींच लेती थी, किसी ऐसे सुख की याद दिलाती थी जिससे ‘अच्छी लड़कियां’ वंचित हैं। या शायद इसलिए क्योंकि मुझे डर लगता था और बेसिन साफ़ करते-करते मेरी मम्मी ग़ुस्से में पान के उन निशानों से भी ज़्यादा लाल हो जाती थीं।

पान, फ़िरंगी शासन, और यौनिकता

पान के इतिहास की एक झलक कई विरोधाभासों को सुलझा देती है। ये सिर्फ़ कई कहानियों का पात्र ही नहीं बल्कि कहानियां सुनाने का एक ज़रिया भी था और इसके हर एक हिस्से की अपनी कहानी है।

पान में चूने और कत्थे का इस्तेमाल किया जाता है, जिन पर हल्के से उंगली चलाने पर ये दोनों आपस में घुल जाते हैं और एक शानदार सुर्ख़ रंग पैदा करते हैं। 17वीं सदी में मुग़ल शासक शाहजहां की बेग़म नूरजहां के होंठों की लाली इसी सुर्ख़ रंग से आती थी (मेनन, 2018)। ऐसे ही नवाबी वर्ग की महिलाओं और तवायफ़ों में एक नया ‘फ़ैशन ट्रेंड’ चालू हुआ। पान में इस्तेमाल की जानेवाली सारी चीज़ें चांदी से जड़े ‘पानदान’ में रखी जाने लगीं ताकि ज़रूरत पड़ने पर इनके मिश्रण का इस्तेमाल आज की लिपस्टिक की तरह किया जा सके। कुछ हद तक इस मिश्रण का इस्तेमाल माहवारी के दौरान दर्द से राहत पाने के लिए भी किया जाता था। आल्मंड आईज़, लोटस फ़ीट –इंडियन ट्रैडीशन्ज़ इन ब्यूटी ऐंड हेल्थ (2005) में शारदा द्विवेदी और शालिनी देवी होलकर पान के फ़ायदों के बारे में कहती हैं कि “ये सांसों में मीठी ख़ुशबू लाता है, होंठों को लाल करता है, खाना हज़म करने में मदद करता है, और इसका स्वाद स्वर्गीय है।”

मगर उपनिवेशवादी कल्पना में लाल ख़ौफ़ का रंग था। जब यूरोपीय सौदागर सूरत की बंदरगाहों में आ पहुंचे, उन्हें ये देखकर डर लगा कि वहां के निवासी चलते-फिरते सड़कों पर ख़ून थूक देते हैं जैसे वे किसी अनजान बीमारी के मरीज़ हों (17वीं सदी में इटैलियन यात्री निकोलाओ मानुची ने इसका वर्णन किया है)। यूरोपीय वर्णनों में पान की ओर ये घिन्न और हैरानी बहुत देखने को मिलती है, और कुछ हद तक ये उस अपार्टमेंट निवासी की भावनाओं से मिलतीं-जुलतीं हैं, जिसकी बात इस लेख की शुरुआत में की गई है। उपनिवेशकों के लेख भारतियों की इस ‘बर्बर’ और ‘घिनौनी’ आदत के बारे में कहते हैं कि इससे दांत काले पड़ जाते हैं और इसे थूकने की वजह से सड़कों पर घटिया लाल निशान पड़ जाते हैं (गौडा, 1951)। पान के बारे में उपनिवेशकों की राय से विक्टोरियन नैतिक दृष्टिकोण याद आ जाता है, जो स्थानीय निवासियों की यौनिकता को ‘जंगली’ और ‘अश्लील’ समझता था। पान, जो कभी सुंदरता और श्रृंगार रस का प्रतीक था, उपनिवेशवादी दृष्टिकोण के मुताबिक़ बीमारी और घृणा का प्रतीक बन गया।

मज़े की बात ये है कि पान थूकने का रिवाज कुछ 500 साल पहले ही शुरु हुआ है। पहले चबाने के बाद पान को निगल लिया जाता था। इसके थूके जाने में भी उपनिवेशवाद का राजनैतिक हाथ है, जो हमें 16वीं सदी में नज़र आता है जब पुर्तगालियों ने अपने फ़ायदे के लिए तंबाकू का व्यापर शुरु किया। इसी दौरान पान में तंबाकू ने सुपारी की जगह ले ली। भारतीय साहित्य और पौराणिक कथाओं में सुपारी के पेड़ को ‘स्वर्ग से आनेवाला तीर’ कहा गया है (गौडा, 1951), और तंबाकू का उत्पादन भारत में पान चबाने की परंपरा पर भारी पड़ गया। वनस्पति-वैज्ञानिक और इतिहासकार एम. गौडा का कहना है कि तंबाकू के आने के बाद पान सिर्फ़ तंबाकू सेवन का एक ज़रिया बनकर रह गया। पान में ख़ुशबूदार मसालों और कामोद्दीपक पदार्थों की जगह ले ली सस्ते मेवों और तंबाकू ने।

पान पर उपनिवेशकों ने अपना एकाधिकार क़ायम तो कर लिया, मगर आज भी हमने इसका शौक़ नहीं छोड़ा। आज भारत में पान के फ़्लेवर में कुल्फ़ी से लेकर कॉंडोम तक बहुत कुछ मिलता है। पान के रंग-रूप और स्वाद में भी कई बदलाव आए हैं। अब तो आग वाला पान, बर्फ़ पान, चॉकलेट पान, चाय पान और पता नहीं कैसे-कैसे नए पान आने लगे हैं। पान भी उसे खाने वाले लोगों की तरह बदलने लगा है। ये ‘न इधर है, न उधर’। ये एक छिपाने जैसा राज़ भी नहीं मगर समाज में पूरी तरह स्वीकृत भी नहीं है। बड़े-बड़े रेस्टोरेंटों में, हुक्के के ‘बार’ में, और शादियों में पान खाना इज़्ज़त और ठाठ-बाट की निशानी है, वहीं गली के नुक्कड़ों में बेचे जाने वाले पान को आज भी हम शर्म और घिन्न की निगाह से देखते हैं क्योंकि इसका सेवन ‘छोटे तबक़े के लोग’ करते हैं। फिर भी, पान की आदत को हमने आज भी क़ायम रखा है।

पान और श्रृंगार रस

पान का शुरुआती इतिहास श्रृंगार रस, प्रेम, और लुभाव का एक सुंदर मेलबंधन पेश करता है। कहते हैं पान के पत्तों के आसपास कामदेव का वास है (मेनन, 2018)। कई हिंदू विवाह रस्मों में देवी-देवताओं को पान का पत्ता अर्पित किया जाता है। पान की इस द्वैत भूमिका के बारे में माधवी मेनन लिखतीं हैं कि, “ये पवित्र भी है और कामोद्दीपक भी। इसे देवी-देवताओं और प्रेमियों को अर्पित किया जाता है, ख़ासकर श्रृंगार रस की उन कविताओं में जहां प्रेमी और देवता के बीच फ़र्क़ अस्पष्ट हो जाता है। पान काव्यात्मक भी है और गद्यात्मक भी।”

कामसूत्र पान की कामोत्तेजकता के वर्णन का एक उदाहरण है। वात्स्यायन बताते हैं कि पान वो ज़रिया है जिससे प्रेमी एक नई भाषा में एक-दूसरे की ओर अपना आकर्षण बयां कर सकते हैं। श्रृंगार रस की इस भाषा में किसी को पान खिलाने के पूरे तेरह तरीक़े बताए गए हैं जिनके ज़रिये पहली बार किसी से अपने प्यार का इज़हार करने की बेताबी और घबराहट क़ायदे से बयां किया जा सके। पान खिलाने के बारे में सोचते ही हमें लाल होंठों, ख़ुशबूदार किमामी सांसों, और चुपके से नज़रें मिलाने की बात याद आने लगती है। तेरह तरीक़ों की इस सूचि में पान देने के ऐसे तरीक़े बताए गए हैं जिनसे आप ये बता सकें कि आप ‘प्यार में पागल’ हैं (‘कौशल पान’)। पान के सभी मसालों को सलीक़े से सजाकर पेश करने की ये एक ख़ास प्रक्रिया है। वहीं पान भेजने के ज़रिए किसी को दूर भगाने के तरीक़े भी बताए गए हैं (जैसे इलायची की ख़ुश्बू वाला पान)। पान की ताक़त ऐसी है कि ये प्रेमियों को हमसे जुदा कर सकता है, उन्हें सम्मानित करने का ज़रिया बन सकता है, या उन्हें हमारे क़रीब ला सकता है। आज ‘स्वाईप कल्चर’ और ‘डिसापियरिंग मेसेजेज़’ के ज़माने में पान इंतज़ार करने का प्रतीक सिद्ध होता है। इंतज़ार हमारे दिल की भेद्यता को प्रकट करता है, जो अंतरंगता का ही एक जानलेवा रूप है। रोलैंड बार्थ्स के शब्दों में, “एक प्रेमी का परिचय यही है – मैं वो हूं जो इंतज़ार करता है।”

किमामी रातों में प्रेमियों के लिए पान बनाने की रस्म औरतों को एक-दूसरे के क़रीब लाती है। पान को लपेटने के ऐसे तरीक़े बताए गए हैं जिनसे अपनी सहेलियों तक ये संदेश पहुंचाया जा सके कि, “वो घर पे नहीं हैं। आ जाओ!” द्विवेदी और होलकर (2005) खूबसूरती से ये कहानियां बताती हैं –

“त्योहार के दिनों में दावत के बाद मेहमानों को पान देने की ज़िम्मेदारी ज़नाना की औरतों पर ही पड़ती थी। हमें बहुत मज़ा आता था। हम एक बड़ा गोला बनाकर बैठ जाते और काम करते-करते हंसी-मज़ाक और गपशप में लगे रहते और एक-दूसरे को छेड़ते। हम पान के पत्तों को धोने के बाद उनके डंठल फेंक देते और पत्तों को पंक्तियों में सजाते। फिर उन पर सारे मसाले सजाने के बाद उन्हें अलग-अलग आकारों में लपेटते – छोटे-छोटे त्रिकोणों या चौकोणों में, जिन पर हम एक लौंग फंसा देते।”

किमाम वाली रात

2021 में दिल्ली छोड़कर जाने से पहले मैं कुछ दोस्तों से मिली। वो रात भी अजीब थी। मैं एक नई ज़िंदगी शुरु करने के लिए बेताब थी मगर दिल्ली छोड़कर जाने में डर भी लग रहा था। हम हंस रहे थे, गा रहे थे, बात कर रहे थे, और अपनी आंखों पे पुराने दिन की यादें सजा रहे थे। हमने एक-दूसरे के लिए फूल भी ख़रीदे। जनवरी की रात थी फिर भी न जाने क्यों ठंड बहुत कम थी। रात के खाने और एक गैलरी में घूमने के बाद हम बंगाली मार्केट की सड़कों पर मौज से टहल रहे थे और फिर हमने सड़क पार करके सिगरेट ख़रीदने का फ़ैसला किया। मुझे देखकर अचरज हुआ कि सिगरेट की इस दुकान में पान भी मिल रहा था और मैं पुरानी यादों में खो गई। मुझे ‘पान’ शब्द सुनते ही अपनी मां का गुस्सा याद आने लगा, पापा का नशा याद आ गया जो वो कभी छुड़ा नहीं पाए, “अच्छी लड़कियां पान नहीं खातीं” वाले भाषण याद आए, और मीठा पान खा लेने के बाद पड़ने वाली डांट भी याद आई। ये सारी यादें किमामी मिठास का अनुभव करने की मेरी इच्छा की ओर मेरी घिन्न का प्रतीक थीं।

शायद सहेलियों के बीच में रहने से आने वाली आज़ादी की भावना से ही मुझे उस रात अपनी ‘हदों से बाहर आकर’ पान चखकर देखने की हिम्मत मिली। हमने चार सिगरेट और चार पान लिए। चाहे वात्स्यायन हो या मुग़ल इतिहासकार या ई. एम. फ़ोर्स्टर, सभी ने ये क़ुबूल किया है कि पान खाने की कला भी एक ‘तहज़ीब’ है जिसे निभाने का एक तरीक़ा है। फ़ोर्स्टर पान के बारे में लिखते हैं –

“[पहली बार पान खाने वाले को] ऐसा लगा जैसे एक सब्ज़ पर्दे की आड़ में खनिज तत्वों की पूरी दुनिया ने उस पर क़ब्ज़ा कर लिया हो, क्योंकि तभी उसे कड़क चूने का झटका लगने लगता है। अगर वो इसे सह सकता है तो कुछ ही देर में उसके मन में स्वर्गीय सुकून छा जाएगा। मसाले एक दूसरे को सलामी ठोकते हुए आपस में घुल-मिल जाते हैं और एक सुकून का अनुभव जन्म लेता है। पान फिर मुसीबत से सुख में बदल जाता है।”

क्योंकि “पान खाना कमज़ोर दिल वालों के लिए नहीं है, ये उन्हीं के लिए है जो काम वासना को समझते हैं और जिनमें ज़िंदगी जीने का जुनून है” (मेनन 2018)। पान के बारे में अपना मन बना लेने से पहले ज़रूरत है मसालों, सुपारी, नारियल, गुलकंद, सौंफ़, इलायची, और चूने का जादू शुरु होने के लिए थोड़ा इंतज़ार करने की। मैं पान के साथ अपने नए रोमांस में बिलकुल समा गई थी पर अफ़सोस, मेरी सहेलियों ने अपना पान मुंह में रखते ही उसे टिशू पेपर में थूक दिया। तभी दुकानदार ने हमारी सिगरेटें वापस मांग ली। कहीं हमने उसकी भावनाओं को ठेस तो नहीं पहुंचाया? आख़िर हम में से किसी ने ‘पान वाले’ के बारे में ख़ुसरो की चेतावनी तो पढ़ी नहीं थी, जिसमें वो लिखते हैं,

“उसने अपनी दुकान पर आने वालों को पत्ते दिए और बदले में उन्होंने उसे अपनी जानें सौंप दी।”

तो हमने उसके हाथों अपनी सिगरेटें सौंप दी और अपनी जान कि फ़िक्र करने लगे। दुकानवाले ने अपने पानदान से नीम की पतली टहनी निकाली और उसे एक घने लाल-भूरे मिश्रण में चलाने लगा। ये मिश्रण उसने हमारी सिगरेटों पर लगा दिया।

हमें सिगरेटें वापस करते हुए उसने कहा, “अब जलाइए!”

हम सिगरेट पीने लगे और मेरी सहेली ने एक मीठे सुरूर में खोते हुए पूछा, “ये क्या है?”

दुकानवाला मुस्कुराया और बोल उठा, “किमाम!”

संदर्भ
  1. आनंद, सीमा। 2017। द आर्ट्स ऑफ़ सेडक्शन। ऐलेफ़ बुक्स।
  2. बार्थ्स, रोलैंड। 1978। अ लवर्स डिस्कोर्स – फ़्रैगमेन्ट्स। विंटेज।
  3. दवे, नियति। 2023। ‘स्टेनिंग लिप्स रेड फ़ॉर सेंचुरीज़।’ गार्लैंड मैगज़ीन। https://garlandmag.com/article/paan-betel-leaf/
  4. द्विवेदी, शारदा एवं होलकर, शालिनी देवी। 2005।आल्मंड आईज़, लोटस फ़ीट – इंडियन ट्रैडीशन्ज़ इन ब्यूटी ऐंड हेल्थ। न्यू यॉर्क – हार्परकॉलिन्स।
  5. फ़ोर्स्टर, ई. एम. 1966। ऐबिंजर हार्वेस्ट। कैलिफ़ोर्निया – हार्कोर्ट ब्रेस ऐंड कंपनी।
  6. ख़ुसरो, अमीर। 2013। ‘द पान सेलर’। इन द बाज़ार ऑफ़ लव – द सिलेक्टेड पोएट्री ऑफ़ अमीर ख़ुसरो। अनुवाद – पॉल ई. लोसेन्स्की एवं सुनील शर्मा। नई दिल्ली – पेंगविन बुक्स इंडिया।http://www.jstor.org/stable/41762124
  7. मानुची, निकोलाओ। 1913। अ पेपीस ऑफ़ मंगोल इंडिया, 1653-1708। निकोलाओ मानुची के ‘स्टोरीया डो मोगोर’ का संक्षिप्त रूप। न्यू यॉर्क – ई. पी. डटन।
  8. मेनन, माधवी। 2018। इंफ़िनिट वैराईटी – अ हिस्ट्री ऑफ़ डिज़ायर इन इंडिया। स्पीकिंग टाईगर।
  9. रीड, कैथलीन बी; ऐडम्स, लेनर्ड पी; मैककॉय, ऐलफ़्रेड डब्ल्यू। 1972। द पॉलिटिक्स ऑफ़ हेरोइन इन साउथईस्ट एशिया। हार्पर ऐंड रो।
  10. गौडा, एम। 1951। “द स्टोरी ऑफ़ पान च्युइंग इन इंडिया।” बोटैनिकल म्यूज़ीयम लीफ़लेट्स, हावर्ड यूनिवर्सिटी 14, नं 8: 181-214। http://www.jstor.org/stable/41762124.

अन्निका अंबर हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी की छात्रा हैं। उनकी रुचि जेंडर, यौनिकता, और मीडिया के समजशास्त्रीय विश्लेषण में है।

To read the original article in English, click here.


[1]‘गांधीगिरी’ यानी सत्य और अहिंसा के गांधीवादी दर्शन पर मुन्नाभाई की अधकचरा समझ

[2] सीमा आनंद (2017), माधवी मेनन (2018), और नियति दवे (2023) को पढ़ें

कवर इमेज: Photo by Ravi Sharma on Unsplash