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चाहत

A black pot on a firepit at night

भाषा चाहे बोलचाल की हो या लिखाई की – इन में एक विषय लगभग नही के बराबर रहता है – यौनिकता और सेक्स से जुड़े शब्द, जब मिलते भी हैं, तो फुसफुसाहट में, धीरे से कहे जाते हैं।

बचपन से से हम बहुभाषी रहे है । यह ज़रूरी नहीं रहा कि हम किस भाषा में बोल रहे हैं या वह कहाँ से आई है। तब भी हम एक-दूसरे को खूब समझ पाते है । पर जब लिखने की बारी आई, तो बोलचाल की रली-मिली समृद्ध भाषा को बाहर रखना पड़ता है ;क्योकि भाषा का ‘शुद्ध’ होना जरुरी रहा। यह बात और उलझ जाती जब भाषा चाहे बोलचाल की हो या लिखाई की – इन में एक विषय लगभग नही के बराबर रहता है – यौनिकता और सेक्स से जुड़े शब्द, जब मिलते भी हैं, तो फुसफुसाहट में, धीरे से कहे जाते हैं।

और हममें से जो उत्तर भारत से है, उनके लिए यौनिकता से जुड़े शब्द तो गालियाँ है । कोई भी ‘अच्छी’ औरत उन्हें इस्तेमाल नहीं करती – क्योंकि एक ‘अच्छी’ औरत की तो ‘इच्छा ही नही होती ! हमारे चारों ओर चुप्पी और गोपनीयता की परतें गहरी जमी रहती है। किसी भी औरत के लिए यह कहना कि वह किसी और औरत को चाहती है – खासकर यौन आकर्षण के बारे में कह पाना, या भाषा में जाहिर कर पाना बेहद मुश्किल है और कई बार खतरनाक भी होता है।

यह कविता मेरा एक प्रयास है, उस बात को कहने का जो अक्सर अनकही रह जाती है। मैंने सांस्कृतिक, मिथिक रूपकों का सहारा लिया है – जो कि अस्पष्ट, परिचित और परतदार हैं – एक खामोश चाह, एक गहरी तड़प को व्यक्त करने के लिए।

मैंने इसका नाम रखा है चाहत


चाहत

दिन-ब-दिन, सालों-साल
मुँह छुपाए, कुंडली मारे बैठी रही
केचुली में सिमटी रही
परत दर परत
थोड़ी सी गर्माहट, थोड़ी सी नर्माइश की चाह,
अब मुखरित मन में दबती नहीं
लहूलुहान बढ़ता तन-मन
फेन भरा चित्कार उठता
देखो बावरा
किनारो से टकराता बारम्बार
लौट आता है, जाते-जाते
यह निषेध मन
फनकार है कोई
गुनगुनाता रहता
दबता नहीं
दिन-ब-दिन, सालों-साल
अब मुखरित मन में दबती नहीं
थोड़ी सी गर्माहट, थोड़ी सी नर्माइश की चाह

Cover image by green ant on Unsplash