2015 में विश्व स्तरीय #MeToo आंदोलन उठा और 2019 में जिलेट कंपनी ने अपना नया वीडियो “वी बिलीव – द बेस्ट मेन कैन बी” (हमारा मानना है – सर्वश्रेष्ठ आदमी होना। ये दोनों घटनाएं, हालांकि अपने आप में अलग-अलग थीं, लेकिन इनसे यौन उत्पीड़न, महिला अधिकार, सहमति और पुरुषत्व पर बातचीत शुरू हुई। इन घटनाओं ने विशेषाधिकार, यौन उत्पीड़न की संस्कृति के बारे में चुप्पी, अपराधियों को मिलने वाली दण्ड मुक्ति, और बाकी कई मुद्दों पर खुलकर सवाल उठाए। जितना ज़्यादा इन सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की गयी, समस्या उतनी ही ज़्यादा प्रबल होती गई।
इस मसले की तह तक जाने के लिए, इन कारकों के बारे में अलग से बात करना काफ़ी नहीं है, बल्कि इस मुद्दे की लक्षणात्मक प्रकृति के बारे में बात करना ज़रूरी है। संस्कृति और बर्ताव का एक समूह है जो इस तरह की प्रथाओं को पनपने की गुंजाइश देता है, और वह है पुरुषत्व।
जब हम पुरुषत्व की बात करते हैं, हम यह ख़ास तौर पर कहना चाहेंगे कि हम ‘पुरुषों’ की बात नहीं कर रहे हैं। नहीं, पुरुषत्व विशेषताओं और लक्षणों का एक समूह है जो किसी के भी द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है लेकिन पितृसत्तात्मक व्यवस्था में, यह ज़्यादातर पुरुषों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। हमारा उससे क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जेंडर हर एक के लिए एक बेहद व्यक्तिगत चीज़ है और हर व्यक्ति अपने जेंडर को किस तरह व्यक्त करते हैं, यह भी व्यक्तिगत है। यही बात पुरुषत्व पर भी लागू होती है – कोई एक पुरुषत्व नहीं हो सकता और हर कोई अपने पुरुषत्व का अभ्यास अलग-अलग ढंग से करते हैं। इस तरह, हम इस लेख में एकवचन की जगह पर “अलग-अलग क़िस्म की पुरुषत्व” लफ्ज़ का प्रयोग करना चाहेंगे।
पितृसत्तात्मक समाज में, पुरुषत्व एक ख़ास तरह के बर्ताव के रूप में ज़ाहिर होता है, जैसे नियंत्रित और हावी होना, अक्सर हिंसक तरीकों से। वास्तव में, पितृसत्तात्मक समाज में अलग किस्म के पुरुषत्व का मूल इसी हिंसा और नियंत्रण पर ज़ोर देता है।
पुरुषत्व एक विशेष प्रकार के पुरुष पर ज़ोर देता है – एक मज़बूत पुरुष जिसका अपने आस-पास के वातावरण और शरीरों, ख़ासकर महिलाओं के शरीरों पर पूरा काबू होता है। इसका मतलब है उन लोगों की पसंद पर नियंत्रण रखना जिन्हें सामाजिक रूप से उनसे कमतर समझा जाता है (महिलाएं, बच्चें)। उदाहरण के लिए, यह तय करना कि उनके परिवार की महिलाएं (मायें, बेटियां, बहनें, भाभियां – मुख्य रूप से महिला रिश्तेदार) कहां काम करेंगी, वे किससे बात करेंगी, क्या पहनेंगी, ‘अजनबियों’ और बाकी पुरुषों के साथ कैसे बर्ताव करेंगी, आदि। यह नियंत्रण अक्सर सुरक्षा की आड़ में आराम से रखा जाता है, जिसे पुरुष की प्रमुख ज़िम्मेदारी माना जाता है।
जब इस नियंत्रण की सीमाएं पार कर ली जाती हैं तो यह नियंत्रण हिंसा में बदल जाता है। जब एक बेटी शादी न करने का फ़ैसला लेती है या जब एक पत्नी अपना वेतन खुद के पास रखने पर ज़ोर देती है, तो इसका मतलब है कि पुरुषत्व जिस नाज़ुक व्यवस्था पर टिका है, वह टूट चुकी है और इसे वापस जोड़कर मज़बूत करने का एकमात्र तरीका हिंसा के अलग-अलग रूपों का इस्तेमाल है। इस हिंसा का अधिकांश भाग अंतरंग साथी या परिवार के सदस्यों के साथ होता है – 2014 की एक रिपोर्ट1 में, 60% भारतीय पुरुषों ने अपनी जीवन-साथियों के प्रति हिंसक होने का विवरण था। ।
इस नियंत्रण की इच्छा भी जगह, शरीर, और अवलोकन/परख के अधिकार से पैदा होती है। यह अलग-अलग तरीकों से ज़ाहिर हो सकती है – महिला के शरीर को वस्तु के रूप में देखने के माध्यम से, रिश्तों में प्रभुत्व के माध्यम से, इत्यादि। इसका यह भी अर्थ है कि चूंकि पुरुषों को लगता है कि उन्हें कुछ स्थानों पर अधिकार है, इसलिए वे दूसरों की उपस्थिति को अतिक्रमण के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, 2017 में कार्यस्थल पर महिलाओं पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि 50% पुरुषों का मानना है कि अगर 10 में से 1 महिला नेतृत्व के पदों पर है, तो नेतृत्व के पदों पर पर्याप्त महिलाएं हैं।
अलग-अलग तरह की पुरुषत्व की कहानी हमारे चारों ओर है – यह वे कहानियां हैं जिन्हें हम अपने कार्यस्थलों पर, अपने परिवारों में देखते हैं, यह सार्वजनिक स्थानों और घरों में भी दिखाई देती है। इस बात पर ज़रा ग़ौर करें कि कितनी बार पुरुषोचित यौनिकता की कोशिश करने वाले लोगों (इस मामले में, पुरुषों) से यह उम्मीद की जाती है कि वे ज़िंदगी में हर भूमिका में प्रभावी रहें? उदाहरण के लिए, यौन संबंधों में प्रमुख भागीदार होना, मेज़ की प्रमुख जगह पर बैठना (शाब्दिक और लाक्षणिक रूप से), एकमात्र निर्णयकर्ता होना, परिवार का एकमात्र कमाने वाला होना? यह एकमात्र कमाने वाली बात बात विशेष रूप से दिलचस्प है, क्योंकि पुरुषवादी सोच यह तय करती है कि परिवार का एकमात्र कमाने वाला पुरुष ही होना चाहिए और महिलाओं को वेतनभोगी काम करने से सक्रिय रूप से हतोत्साहित किया जाता है। इस प्रक्रिया में, परिवार की आर्थिक सफलता सुनिश्चित करने के लिए पुरुष पर अनुचित दबाव पड़ता है और इसके विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। उपरोक्त 2014 की रिपोर्ट2 में पाया गया कि “ आर्थिक तनाव का अनुभव करने वाले पुरुषों – चाहे वे किसी भी उम्र-वर्ग के हों -द्वारा हिंसा करने की संभावना अधिक होती है”।
पुरुषत्व का प्रदर्शन जिस तरह से किया जाता है, वह जाति, धर्म, क्षेत्रीय पहचान, जेंडर पहचान, यौन अभिविन्यास और वर्ग जैसे कई कारकों से प्रभावित होता है। विशेष रूप से भारत में, देश के विभिन्न भागों में पुरुषत्व का स्वरूप इस आधार पर भिन्न होता है कि प्रत्येक क्षेत्र के पुरुषों से क्या अपेक्षा की जाती है (यद्यपि हिंसा और प्रभुत्व सामान्य विषय बने रहते हैं)। वास्तव में, यह भारतीय पौराणिक कथाओं में भी प्रतिबिंबित होता है – देखें कि देवताओं को उनके ‘दिव्य’ पुरुषत्व और अधिक ‘बर्बर’ असुरों को कितने अलग ढंग से चित्रित किया गया है।
उपरोक्त सभी कथाएं सबसे सुलभ रूप – पॉप कल्चर – में पुष्ट होती रहती हैं। उन फिल्मों को याद करना आसान है जिनमें पुरुषत्व को प्रमुख कथा के रूप में दिखाया गया है। एक फिल्म जो तुरंत दिमाग में आती है, वह है कबीर सिंह (2019) – एक ऐसी फिल्म जिसमें एक आदमी को अपने आस-पास के सभी लोगों के प्रति हिंसक और आक्रामक दिखाया गया है और हर कोई (फिल्म सहित) इस हिंसा के लिए जगह बनाता है। इस तरह की फिल्मों के बाहर भी, अधिकांश फिल्मों और यहां तक कि विज्ञापनों में भी पुरुषवादी दृष्टिकोण प्रबल रूप से व्याप्त है – डॉलर जैसे अंडरशर्ट या ऐक्स जैसे डिओडोरेंट के विज्ञापनों को देखें, जहां कथावस्तु अपने उत्पादों को बेचने के लिए प्रभारित यौनिकता, नियंत्रण और हिंसा की एक निश्चित भावना पर ज़ोर देती है।
बात यह है, दुनिया भर में ऐसी कई कहानियां हैं जो मर्दानगी, हिंसा और विशेषाधिकार की एक खास भावना को पुरुष होने के ‘सही’ तरीके के रूप में पेश करती हैं। लेकिन उस कहानी को पलटा जा सकता है और वास्तव में, पलटा जा रहा है।
हकीकत में, पुरुषत्व पुरुषों को उतना ही नुकसान पहुंचाता है जितना कि उनके आस-पास के लोगों को – यह उन्हें सामाजिक अपेक्षाओं और व्यवहार लक्षणों के एक संकीर्ण दायरे में रहने के लिए मजबूर करता है, जो उनके भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है। पुरुषवादी व्यवहार में विविधता को स्वीकार करने या समावेशी होने के लिए बहुत कम जगह होती है – इसलिए सकारात्मक रोल-मॉडल इसमें बदलाव लाने में मदद कर सकते हैं। पॉप कल्चर में ऐसे कुछ उदाहरण पहले से ही मौजूद हैं। युवावस्था और रोमांटिक कॉमेडी फिल्म “जाने तू या जाने ना” में इमरान खान के किरदार के बारे में सोचें या फिर “अंधाधुन” में आयुष्मान खुराना जैसे किसी भी ऐसे किरदार के बारे में जिसमें पुरुष किरदार गैर-मर्दवादी आदर्शों को अपनाता है।
और फिर हमें पुरुष की सर्वोत्तम क्षमता पर विश्वास करना चाहिए।
प्रांजलि शर्मा द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।
References
1. (2014). Masculinity, Intimate Partner Violence and Son Preference in India: A Study. ICRW & UNFPA. ↩︎
2. (2014). Masculinity, Intimate Partner Violence and Son Preference in India: A Study. ICRW & UNFPA. ↩︎
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Cover image: A still from the Hindi film Jaane Tu Ya Jaane Na