जलवायु परिवर्तन अब केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं रहा, बल्कि यह हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत जीवन के कई पहलुओं को प्रभावित कर रहा है। इन प्रभावों में एक महत्त्वपूर्ण चर्चा का विषय है सेक्शूऐलिटी या यौनिकता। यौनिकता यानी हमारी यौन पहचान, इच्छाएं, संबंध और उन पर आधारित सामाजिक व्यवहार इत्यादि। जब जलवायु परिवर्तन की वजह से बड़े संकट मानव जीवन को प्रभावित करते हैं, तब उसका प्रभाव केवल खाना, पानी या आवास तक सीमित नहीं रहता; वह हमारी यौनिकता और उससे जुड़ी स्वतंत्रताओं पर भी पड़ता है।
आपदा और यौन हिंसा का संबंध
जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाएं जैसे बाढ़, सूखा, चक्रवात या भूस्खलन जब किसी क्षेत्र को प्रभावित करती हैं, तब वहां की सामाजिक व्यवस्था बिख़र जाती है। इन परिस्थितियों में महिलाओं और किशोरियों को यौन हिंसा, तस्करी और शोषण का अधिक ख़तरा होता है। आपदा राहत शिविरों में पर्याप्त रोशनी, शौचालयों की कमी और निजता की अनुपस्थिति उनके लिए असुरक्षित माहौल बनाती है। उदाहरण के तौर पर, भारत के बिहार, असम और ओडिशा में बाढ़ के बाद कई बार रिपोर्ट किया गया कि राहत शिविरों में महिलाओं को यौन शोषण का सामना करना पड़ा।
प्रजनन स्वास्थ्य और सेवाओं पर असर
जलवायु परिवर्तन के कारण जब लोग विस्थापित होते हैं, तो वे अपने नियमित स्वास्थ्य सेवाओं से कट जाते हैं। इससे खासकर महिलाओं और किशोरियों के प्रजनन स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। गर्भवती महिलाओं को नियमित जांच नहीं मिलती, प्रसव की सुविधाएं नहीं होतीं, और गर्भनिरोधकों की उपलब्धता घट जाती है। एक अध्ययन के अनुसार, 2020 में बांग्लादेश के तटीय क्षेत्रों में चक्रवात ‘अम्फान’ के बाद कई महिलाओं को बिना चिकित्सकीय मदद के प्रसव करना पड़ा, जिससे कई जच्चा-बच्चा की जान जोख़िम में पड़ी और कई महिलाओं की मौत भी हुई थी।
यौनिकता शिक्षा और जागरूकता पर प्रभाव
जलवायु संकट का सीधा प्रभाव शिक्षा व्यवस्था पर भी पड़ता है। आपदा आने पर अक्सर स्कूल बंद हो जाते हैं, या फिर शिक्षा पर संसाधनों की कमी हो जाती है। इससे बच्चों और किशोरों की न केवल सामान्य शिक्षा बाधित होती है, बल्कि यौनिकता शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जानकारी तक उनकी पहुँच भी सीमित हो जाती है।
ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में, जहां पहले से ही यौनिकता शिक्षा पर खुलकर बातचीत नहीं होती, वहाँ जलवायु आपदाओं के कारण यह स्थिति और भी बदतर हो जाती है। युवाओं को मासिक धर्म, गर्भनिरोधक, यौन संचारित रोगों या यौन सहमति जैसी ज़रूरी जानकारी नहीं मिलती। इसके कारण वे भ्रम, डर और जोख़िम भरे व्यवहारों के शिकार हो सकते हैं, जिससे अनचाहे गर्भ, यौन संचारित रोग, यौन हिंसा या मानसिक तनाव जैसी समस्याएँ बढ़ जाती हैं।
यौनिकता के अभिव्यक्तिकरण पर प्रभाव
जलवायु आपदाएं केवल भौतिक जीवन पर नहीं, बल्कि लोगों की भावनात्मक और मानसिक स्थिति पर भी गहरा प्रभाव डालती हैं। जब कोई परिवार बाढ़ या तूफ़ान जैसी आपदा में अपना घर, संपत्ति और रोज़गार खो देते है, तो उनकी प्राथमिकता जीवन यापन बन जाती है। ऐसे में वे अपनी भावनात्मक, आत्मीय या यौन ज़रूरतों को या तो नज़रअंदाज़ करते हैं या उन्हें पूरी तरह दबा देते हैं। यह खासकर LGBTQIA+ समुदायों के लिए और कठिन हो जाता है, जिनकी यौनिकता पहले ही समाज अस्वीकार करता आया है। जलवायु संकट की स्थिति में ऐसे समुदायों के लिए सुरक्षित स्थानों, सहायक नेटवर्क और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव उन्हें और हाशिए पर धकेल देता है।
बाल विवाह और तस्करी का बढ़ना
जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़ी आपदाएं जैसे सूखा, बाढ़, या तूफ़ान जब परिवारों को आर्थिक संकट में डालती हैं, तो अक्सर वे कम उम्र की लड़कियों की शादी कर देने को ‘समाधान’ मान लेते हैं। यह प्रथा ख़ासकर ग़रीब, ग्रामीण और दलित-आदिवासी समुदायों में अधिक देखी जाती है, जहाँ लड़कियों को बोझ समझा जाता है।
कम उम्र की शादी से लड़कियों की शिक्षा रुक जाती है, वे जल्दी माँ बन जाती हैं, और घरेलू हिंसा या यौन उत्पीड़न की शिकार बनती हैं। साथ ही, आपदाओं के दौरान महिलाओं और किशोरियों की तस्करी का भी जोख़िम बहुत बढ़ जाता है – राहत शिविरों और अस्थायी बस्तियों में असुरक्षा, बेरोज़गारी और निगरानी में कमी इसके कारक हैं।
NFHS-5 सर्वे और Girls Not Brides जैसे संगठनों की रिपोर्टों में यह स्पष्ट है कि जलवायु संकट के बाद बाल विवाह के मामलों में वृद्धि देखी गई है।
जलवायु परिवर्तन और यौन श्रम
कई बार जब आपदा किसी परिवार की रोज़ी-रोटी छीन लेती है, तब जीविका के सीमित विकल्पों के कारण कुछ लोग यौन श्रम या सेक्स वर्क की ओर धकेल दिए जाते हैं। यह स्थिति उन महिलाओं, युवाओं और ट्रांसजेंडर लोगों के लिए और भी कठिन हो जाती है, जिनके पास शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा या वैकल्पिक रोज़गार के अवसर नहीं होते।
ऐसे हालात में यौन श्रम अक्सर ज़बरदस्ती, तस्करी या शोषण की सीमा तक पहुंच जाता है। कई बार इन्हें स्वास्थ्य सेवाएं, यौन संचारित रोगों से सुरक्षा या कानूनी सहायता नहीं मिलती, जिससे उनका यौनिक और मानसिक स्वास्थ्य गंभीर संकट में आ सकता है। यह केवल आर्थिक असुरक्षा नहीं, बल्कि मानवाधिकार और यौनिक स्वतंत्रता का भी हनन है। इसलिए राहत और पुनर्वास योजनाओं में यौनिक श्रमिकों को भी सम्मान और अधिकारों के साथ शामिल करना ज़रूरी है।
यौन और मानसिक स्वास्थ्य – एक अनदेखा संकट
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न आपदाएं, जैसे बाढ़, सूखा, चक्रवात या भूस्खलन जब किसी एक या समुदाय को उनके घर, ज़मीन, आजीविका या प्रियजनों से वंचित कर देती हैं, तब यह केवल एक भौतिक हानि नहीं होती; यह गहरे मानसिक और भावनात्मक आघात का कारण बनती है। यह आघात धीरे-धीरे चिंता (Anxiety), अवसाद (Depression), और पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दे सकता है।
बिगड़ते मानसिक स्वास्थ्य यौन व्यवहार और संबंधों पर भी व्यापक असर डालती है। कई बार लोग इस तनाव और असुरक्षा की स्थिति में यौन संबंधों से दूरी बना लेते हैं, जिससे रिश्तों में भावनात्मक दूरी, अकेलापन और असंतोष पैदा होता है। वहीं दूसरी ओर, कुछ लोग मानसिक पीड़ा से राहत पाने के लिए अनियोजित, असुरक्षित या क्षणिक यौन संबंधों की ओर बढ़ सकते हैं, जिससे यौन संचारित रोगों, अवांछित गर्भ या भावनात्मक चोटों का ख़तरा बढ़ जाता है।
इसके अतिरिक्त, यौन हिंसा के शिकार लोगों को अक्सर पर्याप्त काउंसलिंग, चिकित्सा सहायता और न्याय नहीं मिल पाता, जिससे उनकी मानसिक स्थिति और भी नाज़ुक हो जाती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण या NDMA की साइकोसोशल सपोर्ट या मनोसामाजिक देखरेख गाइडलाइन्स (2023) में इस ओर ध्यान तो दिया गया है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इस पर क्रियान्वयन बहुत सीमित है।
इसलिए यह आवश्यक है कि जलवायु नीति और आपदा राहत प्रयासों में मानसिक स्वास्थ्य और यौनिकता के अंतर्संबंध को गंभीरता से समझा जाए। समुदाय-आधारित मानसिक स्वास्थ्य सहायता, परामर्श सेवाएं, और सुरक्षित स्थानों की उपलब्धता सुनिश्चित कर केवल भौतिक पुनर्वास नहीं, बल्कि भावनात्मक और यौनिक पुनर्निर्माण की भी दिशा तय की जानी चाहिए।
नीति और हस्तक्षेप की भूमिका
जलवायु नीति और आपदा प्रबंधन योजनाओं में जेंडर और यौनिकता से जुड़े मुद्दों को शामिल किया जाना अत्यंत आवश्यक है। विशेष रूप से राहत शिविरों में सुरक्षित स्थान, महिलाओं के लिए अलग और स्वच्छ शौचालय, सैनिटरी नैपकिन और गर्भनिरोधक की उपलब्धता, यौन हिंसा से सुरक्षा, तथा काउंसलिंग सेवाएं जैसी व्यवस्थाओं का होना अनिवार्य है।
सरकारी नीतियों को केवल पर्यावरणीय क्षति तक सीमित न रहकर, अन्य सामाजिक और यौनिक प्रभावों को भी पहचानना चाहिए।
कई महत्वपूर्ण योजनाएं और उपाय की रूपरेखा
- NDMA की जेंडर‑संवेदनशील आपदा प्रबंधन नीतियाँ
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम (2005) के अंतर्गत NDMA ने आपदा राहत में जेंडर दृष्टिकोण अपनाने हेतु कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिनमें प्रमुख हैं –
Psycho-Social Support and Mental Health Services in Disasters या आपदाओं में मनो-सामाजिक सहायता और मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ (संशोधित – 2023)
Temporary Shelters या अस्थायी आश्रय
Minimum Standards of Relief या राहत के न्यूनतम मानक
इन दिशानिर्देशों में सुरक्षा, गोपनीयता, मानसिक स्वास्थ्य, यौन हिंसा से संरक्षण, और प्रणालीबद्ध सहायता पर विशेष बल दिया गया है।
ओडिशा में OSDMA ने राज्य व ज़िला स्तर पर जेंडर सेल गठित किए हैं, जो आपदा के दौरान महिलाओं से जुड़े आंकड़े संग्रहित करने, उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने और निर्णय प्रक्रिया में उन्हें शामिल करने का कार्य करते हैं। अब तक 21 जिला‑स्तरीय जेंडर सेल स्थापित किए जा चुके हैं।
- जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजनाएँ (SAPCCs)
अधिकांश राज्य कार्य योजनाओं (SAPCCs) में जेंडर संवेदनशीलता का उल्लेख तो है, परन्तु इनका क्रियान्वयन अक्सर अधूरा और सतही रहता है। हालांकि, ओडिशा SAPCC (2018–2023) में जेंडर‑संवेदनशील दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से शामिल किया गया है, जहां महिलाओं को केवल पीड़ित के रूप में नहीं, बल्कि “परिवर्तन के वाहक” (Agents of Change) के रूप में देखा गया है। इस योजना में नेतृत्व, भागीदारी और निगरानी‑अखंडता पर विशेष बल है। - नारीवादी और जलवायु न्याय आधारित रूपरेखा
शोध पत्र “Urgent Imperatives – Advancing Gender Equality in Climate Action” (तत्काल अनिवार्यताएँ – जलवायु कार्रवाई में जेंडर समानता को आगे बढ़ाना) में पाँच रणनीतियाँ प्रस्तावित की गई हैं –
महिला नेतृत्व को बढ़ावा देना
सामाजिक सुरक्षा योजनाएं
महिला स्व-सहायता समूहों (SHGs) की भूमिका
स्थानीय भाषाओं में मीडिया संप्रेषण
सरकारी योजनाओं के साथ समन्वय
विशेष रूप से SHGs को आर्थिक और सामाजिक समर्थन के मज़बूत स्तंभ के रूप में रेखांकित किया गया है, जो आपदा के समय सामुदायिक स्तर पर प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं।
- महिला‑केंद्रित जलवायु अनुकूलन उपाय
भारत में जलवायु संकट से निपटने के लिए महिला‑केंद्रित अनुकूलन रणनीतियाँ अत्यंत आवश्यक हैं।
पॉलिसी सर्कल, मोंगाबे-इंडियाऔर इंडिया वाटर पोर्टल जैसे स्रोतों ने सुझाया है कि –
नीतियों में जेंडर‑संवेदनशील संकेतक (Gender-responsive indicators) शामिल किए जाएं
जलवायु‑उत्तरदायी बजट निर्धारण (Climate-responsive budgeting) किया जाए
स्थानीय स्तर पर जलवायु सहायता केंद्र (Local Climate Support Hubs) स्थापित किए जाएं
यह कदम न केवल महिलाओं की ज़रूरतों को प्राथमिकता देंगे, बल्कि उन्हें जलवायु समुत्थान और नेतृत्व में भागीदारी का अवसर भी प्रदान करेंगे।
इंडिया वाटर पोर्टल की एक रिपोर्ट बताती है कि सूखे और अन्य आपदाओं के समय घरेलू हिंसा, विशेषकर अंतरंग साथी द्वारा हिंसा या Intimate Partner Violence (IPV), की घटनाएं महिलाओं में बढ़ जाती हैं। अतः नीतिगत ढांचे में इन सामाजिक पहलुओं को भी समाविष्ट किया जाना चाहिए।
- प्रजनन एवं यौन स्वास्थ्य सेवाओं की सुरक्षा
असम के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में Boat Clinics (नाव आधारित मोबाइल क्लिनिक) की व्यवस्था की गई है, ताकि गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं को सुरक्षित व निरंतर स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त हो सके। यह व्यवस्था आपदा की स्थिति में स्थायी क्लिनिक तक पहुंच की कठिनाई को ध्यान में रखते हुए विकसित की गई है। - मानसिक स्वास्थ्य और जेंडर‑आधारित आपदा समर्थन
NDMA की साइको-सोशल सपोर्ट गाइडलाइन (संशोधित 2023) के अंतर्गत –- PTSD और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों के लिए सहायता यौन हिंसा से जूझ रहे लोगों के लिए काउंसलिंग और सुरक्षित स्थानों की उपलब्धता सुनिश्चित करने पर विशेष बल दिया गया है
ये सभी उपाय विशेष रूप से महिलाओं और किशोरियों की सहायता में प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं।
निष्कर्ष
सेक्शूऐलिटी और जलवायु परिवर्तन के कारण जलवायु आपदाओं के बीच का रिश्ता भले ही सीधा न दिखाई दे, लेकिन यह बेहद गहरा और महत्वपूर्ण है। यौनिकता केवल व्यक्तिगत विषय नहीं है यह हमारे समाज की संरचना, न्याय, और समानता से जुड़ा मुद्दा है। जलवायु संकट का सामना करते समय यदि हम यौनिकता और उससे जुड़े अधिकारों की उपेक्षा करते हैं, तो हम संकट की गंभीरता को अधूरा समझ रहे हैं। हमें एक समावेशी और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने की ज़रुरत है, जो केवल पर्यावरण की रक्षा न करे, बल्कि लोगों की गरिमा, यौन स्वतंत्रता और स्वास्थ्य की रक्षा भी सुनिश्चित करे। यही एक सच्चे, समग्र और न्यायपूर्ण जलवायु समाधान की दिशा है।
References
- https://en.gaonconnection.com/reportage/climate-change-bangladesh-women-reproductive-health/https – //ndma.gov.in/Governance/Guidelines
- https://www.indiawaterportal.org/health-and-sanitation/health/india-needs-gender-responsive-strategies-cope-climate-change-impacts
- https://wrd.unwomen.org/explore/insights/bihar-women-face-floods-and-increasing-violence
- https://www.preventionweb.net/publication/rapid-gender-analysis-cyclone-amphan
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