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फ़िल्टर कॉफ़ी, शादीशुदा ज़िंदगी और यौनिकता का जश्न

Of filter coffee, marriage and mixed celebrations of sexuality

“जब तुम अपने पति के लिए दोपहर की कॉफ़ी बनाओगी…” मेरे रिश्तेदार ने कहना शुरु किया और मैं मन ही मन हंसने लगी। मेरे दिमाग़ में तब नब्बे के दशक में टीवी पर आनेवाला ‘लीओ कॉफ़ी’ का वो तमिल ऐड चलने लगा जिसमें एक शादीशुदा संस्कारी औरत अपने धार्मिक और वैवाहिक कर्तव्य निभाती नज़र आती है। वो शिद्दत से अपने पति के लिए एक कप फ़िल्टर कॉफ़ी बनाकर लाती है, जिसकी महक से उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान खिल उठती है। क्या मेरे रिश्तेदार मुझे जानते नहीं थे? सालों पहले कॉलेज में रहते ही मैंने अपने सबसे अच्छे दोस्त से कह दिया था कि मैं कभी अपने पति के लिए कॉफ़ी नहीं बनाऊंगी। वो अपनी कॉफ़ी ख़ुद बनाएगा और मैं अपने लिए ‘माईलो’ बनाऊंगी। अब मैं ‘माईलो’ छोड़कर चाय पीने लगी हूं लेकिन आज भी मैंने कभी अपने पति के लिए कॉफ़ी नहीं बनाई, जो एक शादीशुदा तमिल औरत के वैवाहिक कर्तव्यों में से एक है, जिसे छोटी-छोटी ख़ुशियों और शादीशुदा ज़िंदगी का जश्न मनाने का एक तरीक़ा माना जाता है।

समाज में स्वीकृत शादियों को एक तरह से यौनिकता के जश्न के तौर पर देखा सकता है, कम से कम यौनिकता के उन पहलुओं का जिन्हें समाज जायज़ मानता है – जैसे समाज-स्वीकृत यौन संबंध और प्रजनन। साथ ही में, ये जश्न है जेंडर-आधारित भूमिकाओं का (जब तक आप उनका पालन करते रहें), यौन क्रियाओं और इच्छाओं का (जिन्हें ‘शालीनता’ की हद पार नहीं करनी चाहिए और जो सिर्फ़ अपने वैवाहिक साथी के साथ पूरे करने चाहिए), और ताक़त और ख़ुद पर अधिकार का (मगर सिर्फ़ एक हद तक!)।

नारीवादी नज़रिये से देखा जाए तो शादी का मामला पेचीदा लगता है। शादी दो लोगों और उनके परिवारों को एक ऐसी व्यवस्था में क़ैद करके रखती है जो बनी ही है पितृसत्ता को क़ायम रखने, औरतों का शोषण करने, और मर्दों और औरतों को रूढ़िवादी परंपराओं में बांधे रखने के लिए। इसमें संस्कृति, जाति, धर्म, परवरिश का तड़का लगा दिया जाए तो हमें मिलती है एक ऐसी कमज़ोर सामाजिक संस्था जिसे टिकाऊ न होने के बावजूद न जाने क्यों समाज की बुनियाद माना जाता है।

कुछ साल पहले मैंने अपनी मर्ज़ी से शादी करने का फ़ैसला लिया। मैं कहती तो हूं कि ये मेरी मर्ज़ी थी मगर ये बताइए, आख़िर हमारे कितने फ़ैसले पूरी तरह से हमारी मर्ज़ी से लिए गए होते हैं? क्या हम कई बार अपने हालातों के साथ तरह-तरह के समझौते नहीं कर बैठते?

बचपन में मुझे लगता था कि बड़े होकर शादी करनी ही होगी, बच्चे करने ही होंगे। बस उम्मीद यही थी कि किससे शादी होगी इस बात का फ़ैसला मैं ख़ुद कर सकूं। उस वक़्त बराबरी के बारे में मेरे विचार भी बड़े नादान से थे। मेरी मां अकसर मज़ाक में कहतीं थीं कि शादी के बाद जब मैं चावल पकाऊंगी तब जितना पानी मैंने कुकर में डाला है उतना ही फिर एक बार बराबरी की ख़ातिर अपने पति से भी डलवाऊंगी।

मैं बड़ी होती गई और नारीवाद और बराबरी के मुद्दों को भी अच्छे से समझने लगी। मुझे ये महसूस होने लगा कि मेरे और मेरे हमसफ़र के विचार और नैतिक मूल्य चाहे कुछ भी हों, जेंडर-आधारित मतशिक्षा तो समाज ने हम दोनों को दी है जो हमारे रिश्ते में भी नज़र आएगी। मैंने ये तय कर लिया कि मैं और मेरा साथी हर बार एक-दूसरे से गहरी बातचीत करने के बाद ही किसी फ़ैसले पर आएंगे, वैसे ही जैसे एक रिबन के दो हिस्सों को आपस में जोड़कर उसे ‘बो’ की आकृति दी जाती है। फिर मैं छाती चौड़ी करके उसे कहूंगी, “देखा? इस शादी में हम दोनों एक दूसरे के बराबर हैं! ऐसा भी हो सकता है!”

ये आसान तो बिलकुल नहीं रहा है। ज़रूरी मुद्दों पर हमारी बातें तनाव से भरपूर रहीं हैं क्योंकि हम दोनों के अपने-अपने अलग पूर्वाग्रह हैं। वो कहता है कि मैं हर बात में अपने ‘नारीवादी पूर्वाग्रह’ घुसा देती हूं और मुझे लगता है वो अपने ‘आध्यात्मिक पूर्वाग्रह’ नहीं छोड़ता। इसका असर हमारी कई सारी बातों पर पड़ता है जैसे रसोईघर में कौन क्या काम करेगा (और कैसे), हमारे परिवारों के साथ हमारे रिश्ते कैसे होने चाहिए, हम बच्चे चाहते हैं या नहीं, हमारे घूमने-फिरने की बातें और ये भी कि हमें वो वाला लैंपशेड रखना चाहिए या नहीं। “तुम हर बात में जेंडर कैसे घुसा देती हो?” वो अचरज से पूछता है और मैं आंखें मटकाकर उसके विचारों के बारे में भी कोई ऐसा सवाल पूछ लेती हूं। कुछ फ़ैसले लेना हमारे लिए रिबनों से ‘बो’ बनाने जैसा आसान है मगर कई फ़ैसले एकतरफ़ा होते हैं जो दूसरे को न चाहते हुए भी क़ुबूल करने पड़ते हैं, हालांकि वो दूसरा बाद में ये मान भी लेता है कि इस फ़ैसले का नतीजा अच्छा ही रहा।

जेंडर और यौनिकता के संयोग पर मेरे काम ने शादी के साथ मेरे रिश्ते में कई उलझनें पैदा की हैं, लेकिन काफ़ी चीज़ों को स्पष्टता से समझना भी सिखाया है।

पहले बात करती हूं उलझनों की। मुझे ये देखकर अचरज होता है कि शादी होते ही औरतों को अचानक से एक ख़ास इज़्ज़त दी जाने लगती है और ये मुझे बिल्कुल मंज़ूर नहीं है। मेरी शादी होते ही लोग मेरे विचारों को ज़्यादा तवज्जो देने लगे, मुझे उन सारी रस्मों में शामिल होने का मौक़ा मिला जो विधवाओं और अनब्याही औरतों के लिए वर्जित हैं और मैंने देखा कि मैं घर के काम या पति के व्यस्त होने का बहाना बनाकर किसी भी सामाजिक कार्यक्रम में शामिल होने से छुटकारा पा सकती हूं। मुझे ये देखकर चिढ़ होने लगी कि मुझसे उम्र में कहीं ज़्यादा बड़े रिश्तेदार भी मेरे पति के लिए ‘अवर’ का इस्तेमाल करते हैं, जो कि बड़े-बुज़ुर्गों के लिए इस्तेमाल किए जानेवाला अन्य पुरुष सर्वनाम है। साथ में मुझसे अजीबोग़रीब उम्मीदें रखी जाती हैं, जैसे कि मुझे ये पता होना चाहिए कि मेरा पति ठीक कितने बजे अपनी कॉफ़ी लेता है और कितनी रोटियां खाता है। एक बार मेरे पापा ने मुझसे सुबह का अख़बार मेरे पति को दे देने के लिए कहा, और मैंने जवाब दिया, “वो ख़ुद ले लेगा!” पापा अचंभित होकर मेरा मुंह ताकते ही रह गए।

एकसंगमन (मोनोगैमी) और मातृत्व की सामाजिक अपेक्षा मुझे परेशान कर देती है। मुझे इस बात का भी थोड़ा दुःख होता है कि आजकल मुझे खाना बनाने में मज़ा आने लगा है, जिसे बचपन में मैं घर के कामों में से सबसे ज़्यादा ‘नारीवाद-विरोधी’ काम समझती थी। इंस्टाग्राम पर शादी की तस्वीरों से लेकर मातृत्व के बारे में “थका देने वाला काम है, पर अनोखा है” क़िस्म की कहानियों से मैं तंग आ गई हूं। ये सब मुझे विषमलैंगिकता का नंगा नाच ही लगता है। सास-बहू के झगड़ों और “शादीशुदा औरतों को मंगलसूत्र पहनना चाहिए या नहीं?” की चर्चाओं से भी मैं ऊब चुकी हूं। मुझे चिल्लाकर कहने का मन करता है, “अरे, बस भी करो! नारीवाद पर चर्चाएं इससे आगे क्यों नहीं बढ़ पातीं?”

शादीशुदा होने के नाते मुझे कई विशेषाधिकार मिले हैं जो घर किराए पर लेते वक़्त या बैंक और अस्पताल की औपचारिकताओं में काम आते हैं। मुझे शर्मिंदगी और नाराज़गी महसूस होती है कि ये विशेषाधिकार मुझे सिर्फ़ शादीशुदा होने की वजह से मिले हैं, और मैं सोचती रहती हूं कि अकेली औरतों और क्वीयर लोगों के लिए रोज़ की ज़िंदगी कितनी मुश्किल होती होगी।

कभी कभी किसी से बातचीत के दौरान मैं ये देखने की कोशिश करती हूं कि मैं कितनी देर तक उनसे अपने शादीशुदा होने की बात छिपाए रख सकती हूं, तो कभी कभी मैं सामनेवाले से इज़्ज़त पाने या किसी स्थिति में सुरक्षित महसूस करने के लिए शादीशुदा होने का फ़ायदा उठाने से भी नहीं कतराती।

मैं पहली औरत नहीं हूं जिसे ये उलझनें महसूस हुई हैं। कई पीढ़ियों से लोग ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि जेंडर-आधारित मतशिक्षा (कंडीशनिंग) का बोझ ढोते हुए जेंडर-समावेशी स्थानों में कैसे अपनी जगह बनाई जाए। मेरे पति और मैं कई बार इस पर बात करते हैं। जब भी उसका परिवार हमसे मिलने आता है, मुझे हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि घर बिलकुल चकाचक होना चाहिए, और अगर ऐसा नहीं होता तो मैं इसे अपनी ग़लती क्यों मानती हूं? क्या ऐसे ख़्याल आना महज़ एक निजी समस्या है या क्या इसमें जेंडर का कोई हाथ है? और फिर कभी-कभी हम इस सोच में भी पड़ जाते हैं कि क्या उसे अच्छा लगेगा अगर मैं रोज़ उसके लिए कॉफ़ी बनाना शुरु कर दूं?

उपन्यास ‘डीट्रांज़िशन, बेबी’ की एक किरदार अपने तलाक़ को “आन्वी ऑफ़ हेट्रोसेक्शुअलिटी” – यानी विषमलैंगिकता से असंतोष – कहती है। ये पढ़कर मुझे अपनी रूह में बिजली का झटका सा महसूस हुआ। ऐसा लगा जैसे किसी ने शादी को लेकर मुझ जैसे लोगों की सारी असहजता, नाराज़गी और अपराधबोध (और साथ में हमारी ख़ुशियों और प्राप्त विशेषाधिकारों) को शब्दों में बयां किया है।

नारीवाद और यौनिकता पर मेरा काम भी मुझे चीज़ों को स्पष्टता से देखने के लिए मजबूर करता है। मैंने सीखा है कि ज़िंदगी इतनी सरल नहीं है कि हम आसानी से अपने सभी अनुभवों और फैसलों को ‘सच्चा नारीवाद’ या ‘सच्ची क्वीयरता’ के तमग़े दे दें और जो फ़ैसले या अनुभव इन दोनों तबक़ों में से किसी में न आएं, उन्हें सारी ज़िंदगी दुत्कारते रहें। ये ज़रूरी है कि हम एक ज़िंदगी में जो हज़ारों किरदार निभाते हैं उन्हें पहचानें और सिस शादीशुदा औरतों के उन छोटे-छोटे मगर मज़बूत क़दमों की सराहना करें, जो वे शादी की परंपरागत रूढ़ियों को ढा देने के लिए अपनातीं हैं जैसे एकाधिक साथियों के साथ ज़िंदगी बीताना, समलैंगिक शादियां करना, करियर को आगे बढ़ाने के लिए जल्दी बच्चे कर लेना, चालीस की उम्र में किसी डिग्री के लिए पढ़ाई पूरी करना, सोशल मीडिया पर कामवासना के बारे में लिखना और शादीशुदा ज़िंदगी ठीक नहीं चल रही हो तो तलाक़ ले लेना। नारीवाद और यौनिकता पर काम करना मुझे उन औरतों की ओर संवेदना का हाथ बढ़ाने के लिए याद दिलाता है, जो औरतें आज भी रोज़ सास-बहू के बीच झगड़ों से जूझतीं हैं या जिन्हें मां बनने का दर्द पहली बार महसूस हो रहा है। ये काम मुझे अपने आप से प्यार से पेश आना भी सिखाता है।

इसी तरह आदर्शवाद, बातचीत और झगड़ों से गुज़रते हुए मैं और मेरा साथी उस जगह आ पहुंचते हैं जहां हम दो लोगों की एक साथ गुज़ारने वाली ज़िंदगी शुरु होती है। हम एक-दूसरे के विचारों से सीख लेने की कोशिश करते हैं। हम अपने रिश्ते पर मेहनत करते हैं, संघर्ष करते हैं, कभी-कभी नाराज़ होकर चले जाते हैं मगर फिर एक-दूसरे के पास वापस आ जाते हैं।

इसीलिए मैंने हाल ही में उसके लिए चाय बनाना शुरु कर दिया है (मगर फ़िल्टर कॉफ़ी नहीं!) बिना ये सोचे कि ये मेरी पहचान या मेरे नारीवादी उसूलों के ख़िलाफ़ है। शायद एक दिन मैं कॉफ़ी भी बनाने लगूंगी। हाँ, कई बार ऐसा भी होता है कि मैं दिन भर ज़रूरी कॉल्स में मशगूल रहती हूं और वो चुपके से मेरे टेबल पर एक कप कैमोमाइल की चाय रख देता है।


ईशा द्वारा अनुवादित

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कवर इमेज: Pixabay