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नारीवाद और विज्ञान: विज्ञान रचते हुए पढ़ाना और सीखना चयनिका शाह का विवेक वेलांकी द्वारा लिया गया साक्षात्कार

Dr Chayanika Shah wearing glasses, blue earrings, and a blu chunni round her neck.

एपिसोड ४, अप्रैल २०१३

अनुवाद: योगेंद्र दत्त

चयनिका शाह एवं विवेक वेलंकी के बीच यह संवाद इन प्लेनस्पीक के मार्च २०१४ के संस्करण में प्रकाशित हुआ था। यहाँ इस संवाद के कुछ अंश हिंदी में पुनः प्रकाशित किए जा रहे हैं। चयनिका ने २०१६ के ‘विज्ञान एवं यौनिकता’ संस्करण में अपनी एक अन्य रचना साझा की हैं जिसे आप अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ सकते हैं।

विवेक वेलांकी: आपने अस्सी के दशक में आईआईटी से भौतिकी में अपनी पीएचडी पूरी की थी। उस दौर के अपने अनुभवों का जिक्र करते हुए आपने लिखा है कि “हमारे समाज में इस आशय की एक आम धारणा व्याप्त रही है कि विज्ञान और विज्ञान के संस्थान आमतौर पर पुरुषों की, खासतौर से ब्राह्मण पुरुषों की दुनिया होते हैं।”आईआईटी में एक महिला और विज्ञान की छात्रा के रूप में आपके क्या अनुभव रहे?

चयनिका शाह: असल में अब जो मैं सोचती हूं वे मेरे बाद के अहसास हैं। जब मैं वहां पढ़ रही थी तब कुछ और लड़कियां भी वहां थीं मगर हममें से किसी ने भी यह नहीं सोचा कि हम औरों से अलग हैं। मेरे खयाल से पहला नारीवादी संघर्ष जो हमने आईआईटी कैंपस में शुरू किया वह हमारे छात्रावास को ‘हॉस्टल नंबर १०’ के नाम से पहचाने जाने की लड़ाई का था। इससे पहले हमारे हॉस्टल को केवल ‘लेडीज़ हॉस्टल’ कहा जाता था। हमारा कहना यह था कि क्योंकि “दूसरों की तरह हम भी यहां की विद्यार्थी हैं“ और क्योंकि बाकी सारे छात्रावासों के नाम हॉस्टल१ से हॉस्टल९ तक रखे गए हैं इसलिए हमारे हॉस्टल को भी इसी तरह नंबर से पहचाना जाना चाहिए। यह एक विद्यार्थी के रूप में और समान सहभागी के रूप में जगह पाने का संघर्ष था। हमारा कहना था कि हम औरतें हैं (और ‘लेडीज़’ तो कतई नहीं), इस बिनाह पर हमारे साथ औरों से अलग बर्ताव न किया जाए।

अब जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ तो वाकई लगता है कि वह बहुत ही मरदाना माहौल था; आज भी है। जब मैं आईआईटी में गई थी तो ३००० विद्यार्थियों में कुल जमा ७० लड़कियां थीं। लिहाजा, जाहिर है हमें अजूबों की तरह देखा जाता था। मैंने इसके बारे में लिखा भी है। उस समय कैंपस में ये कहावत मशहूर थी कि हमारे यहां तीन जेंडर होते हैं: मर्द, औरतें और आईआईटी की औरतें! आईआईटी में पढ़ने वाली छात्राओं की खिल्ली उड़ाने का ये उनका ढंग था। ऊपर से, उस जमाने में आईआईटी छात्राएं भी पुरुषों की तरह होने की कोशिश करती थीं और लिहाजा इस तरह की तानाकशी को भरसक नजरअंदाज ही करती थीं। मगर २०११ में मैंने कहीं पढ़ा कि आईआईटी के लड़के अभी भी यही दलील देने की कोशिश कर रहे हैं कि आईआईटी में औरतें नहीं होतीं, वे भयानक लगती हैं, वे मेहनत नहीं करतीं। यानी लड़के आज भी यही मान रहे हैं कि आईआईटी में तीन ही जेंडर होते हैं: मर्द, औरतें और वो जिन्हें अब वहां के लड़के ‘गैर-मर्द’ कहने लगे हैं।

मेरे खयाल में यह खालिस मर्दाना वातावरण है। बहुत सारे विद्यार्थियों में अल्पसंख्यक होने, ६० की कक्षा में अकेली लड़की होने को आप तभी समझ सकते हैं जब आप खुद उस स्थिति में हो। और हां, गौर करें कि ये कोई आम लड़के नहीं हैं। ये ऐसे पुरुष हैं जिन्हें पूरे समाज में सबसे प्रतिभाशाली और सबसे ज़हीन होने का तमगा मिल चुका है और लिहाजा उनके पास अच्छा-खासा अहंकार होता है। आमतौर पर वे उच्च वर्गों से और ऊंची जातियों से होते हैं। बहुत सारी चीजें हैं जो उनके हक में जाती हैं और लिहाजा वे गहरी हद परंपरापोषक होते हैं। हममें से जो लोग वहां किसी भी वजह से हाशिए पर छूट जाते हैं, जो वहां के माहौल में खुद को नहीं ढाल पाते – या तो जाति की वजह से या जेंडर की वजह से या जाति और जेंडर, दोनों वजहों से – उन्हें हाशिए पर छूट जाने का बहुत गहरा अहसास रहता है। मगर वे इसे कह नहीं पाते क्योंकि हम सभी वहां पर हावी स्टूडेंट कल्चर का हिस्सा बनना चाहते हैं। लिहाजा, हम अपनी भिन्नता को व्यक्त नहीं करना चाहते। इसको व्यक्त करने में बहुत लंबा समय लगता है। मुझे तकरीबन २०-२५ साल लगे। बहुत सारी दूसरी महिलाओं के अनुभव पढ़कर, मसलन ऐवलिन फॉक्स केलर आदि को पढ़कर लगता है कि प्रायः सभी को इन निजी अनुभवों के बारे में बात करने में सालों लग जाते हैं। लब्बोलुआब ये कि एक पुरुष वर्चस्व वाले विज्ञान एवं तकनीकी संस्थान में अपने और विज्ञान की कक्षाओं में आने वाली दूसरी महिलाओं के अनुभवों पर सोचने से पता चलता है कि समस्या मेरी नहीं थी – समस्या उस जगह की संस्कृति, उस जगह के माहौल की थी।

विवेक वेलांकी: आपकी राय में यह एक ऐसा सवाल है जिसका लगातार निषेध किया जाता रहा है। ऐतिहासिक रूप से विज्ञान में जेंडर भेद पर प्रायः संख्या के धरातल पर ही बात होती रही है। आप भी जानती हैं कि यह केवल संख्या का मामला नहीं है और अभी आपने भी जिक्र किया कि यह इससे भी कहीं ज्यादा पेचीदा मसला है। क्या है जो छूट जाता है?

चयनिका शाह: किसी भी क्षेत्र में किसी खास तबके के लोग क्यों नहीं हैं, मसलन, विज्ञान के क्षेत्र में महिलाएं क्यों नहीं हैं, इसकी एक वजह यह हो सकती है कि वे उस क्षेत्र में काम करने के लिए कुदरती तौर पर ही काबिल न हों। है ना? और आम धारणा भी यही है कि विज्ञान की दुनिया में हरेक को उसकी मेरिट और काम के आधार पर परखा जाता है इसलिए वहां तो किसी भेदभाव की गुजाइश ही नहीं हो सकती। यानी, अगर विज्ञान के क्षेत्र में किसी खास तबके के लोग नहीं हैं तो इसका मतलब है कि वे उस क्षेत्र के लायक ही नहीं हैं। मगर अब तो यह कहना भी बेतुका लगता है। आज के दौर में अगर आप ये कहें कि हमारे देश के सिर्फ ऊंचे वर्गों के मर्द – या यूं कहिए कि अमेरिका में श्वेत पुरुष और हमारे यहां ब्राह्मण पुरुष – ही इतने दिमागदार होते हैं कि विज्ञान जैसे कठिन विषयों की पेचीदगियों को संभाल सकें तो यह बात सुनने में ही बचकाना लगती है। यह एक ऐसा बयान है जिस पर हमें ठहरकर सोचना चाहिए। क्या इसकी वजह ये है कि कुछ खास लोग काबिल नहीं है या इसकी वजह ये है कि अलग-अलग क्षेत्रों में कोई ऐसी चीज हो रही है जिसकी वजह से आपको ऐसा महसूस होने लगता है कि आप वहां पहुंचने के लायक नहीं हैं? ये आपकी दुनिया नहीं है, यह सोच कई धरातलों पर काम करती है। एक संस्थान के भीतर यह आपको हाशिए पर धकेल देती है, लोग आपकी खिल्ली उड़ाते हैं या आम समाज की तरह औरतों के प्रति हिकारत की नजर रखते हैं। यह रवैया खुद-ब-खुद आपको एक रक्षात्मक मुद्रा में धकेल देता है जिसे आप उस वक्त नहीं समझ पाते। आप वैसी औरत नहीं बनना चाहतीं जिसका मजाक उड़ाया जा रहा है। और इस तरह, मैं खुद ही उनके जैसा बनने के लिए, स्वीकार्य दिखने के लिए नाना प्रकार से अपने आप का निषेध करने लगती हूं।

ये सारे भेदभाव तब और स्पष्ट हो जाते हैं जब हम संख्याओं को गौर से देखते हैं। अगर आप देखें कि विज्ञान के विषयों में कितनी महिलाएं हैं जो आखिर तक पढ़ाई जारी रखती हैं तो आप पाएंगे कि विज्ञान के विषयों में उनकी संख्या घटते जाने के पीछे सिर्फ सामाजिक वजहें काम नहीं करतीं। बेशक सामाजिक कारण भी अपनी भूमिका अदा करते हैं – समाज खुद ही ये मान लेता है कि महिलाएं विज्ञान के लायक नहीं होतीं। महिलाओं को घर पर दोहरा बोझ ढोना पड़ता है। अगर वे वैज्ञानिक से विवाह कर लेती हैं तो भी इसका मतलब ये नहीं है कि उनका वैज्ञानिक पति घर के कामों में हाथ बंटाने के लिए समय निकाल लेगा। मगर सबसे अव्वल सवाल ये है कि आप लोगों का चुनाव या भर्ती कैसे करते हैं। यदि मुझे ऐसा लगता है कि औरतें विज्ञान के लिए बहुत योग्य नहीं होतीं तो मैं उनकी भरती के लिए वह कसौटी नहीं अपनाऊंगी जो औरों के लिए अपनाती। मैं उन्हें उसी ढंग से भीतर आने के लिए प्रोत्साहित नहीं करूंगी जिस तरह औरों को प्रोत्साहित कर सकती हूं। तो इस तरह मेरे पूर्वाग्रह उस उम्मीदवार से जुड़ी हर चीज में फैलते चले जाते हैं – मेरे भर्ती करने के ढंग में, मैं उनके काम को किस नजर से देखती हूं, मेरे मूल्यांकन में, अनुदानों के आवंटन में, पर्चों को उद्धृत करने में और बहुत सारे दूसरे मामलों में।

विवेक वेलांकी: अपने ताजा लेख में भी आपने इस बात की तरफ ध्यान आकृष्ट कराया है। भारत और अमेरिका की कई रिपोर्ट और शोध का हवाला देकर विज्ञान के संस्थानों में जेंडर आधारित भेदभाव का जिक्र किया है…।

चयनिका शाह: अब जब मैं इन चीजों को बारीकी से देखती हूं तो मुझे लगता है कि दूसरे विषयों के मुकाबले विज्ञान के विषयों में आने वाली महिलाओं की संख्या (और महिलाओं का प्रतिशत) स्नातक/स्नातकोत्तर स्तर तक ज्यादा फर्क नहीं होता। विज्ञान के क्षेत्र में हमारे पास ऐसे पर्याप्त आंकड़े नहीं हैं जिनके सहारे हम ये दिखा सकें कि तुलनात्मक रूप से ‘सॉफ्ट साइंसेज़’ में ज्यादा महिलाएं जाती हैं और हार्ड साइंसेज़ में कम महिलाएं जाती होंगी। फिर भी, पिछले ७-८ सालों में महिलाओं ने, खासतौर से भौतिकी के क्षेत्र में, यह समझने के लिए कई अध्ययन किए हैं कि भौतिकी के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या पर्याप्त क्यों नहीं रहती। इस सवाल पर अलग-अलग देशों में भी अध्ययन किए गए हैं। इस प्रसंग में हमारे यहां जो पहला अध्ययन किया गया उसमें विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की कम मौजूदगी के लिए समाज को ही जिम्मेदार पाया गया। बाद के एक और अध्ययन में ये भी देखा गया कि विज्ञान विषयों में डॉक्टुरल डिग्री हासिल करने के बाद या बीच में ही शोध अध्ययन छोड़ देने पर महिलाओं की क्या स्थिति होती है। इस अध्ययन की खास बात यह थी कि इसमें हम सिर्फ उन महिलाओं की बात नहीं कर रहे हैं जो विज्ञान के क्षेत्र में बनी रहती हैं। हमें उन लोगों के बारे में भी बात करनी चाहिए जो वहां नहीं हैं ताकि यह समझा जा सके कि वे वहां क्यों नहीं हैं और सक्रिय शोध को छोड़ देने का उनका फैसला सामाजिक वजहों से तय होता है या उसकी वजहें उनके भीतर होती हैं।

शोध के इस दृष्टिकोण से बदलाव में एक नई समझ पैदा हुई है और लिहाजा इन महिलाओं की मांग भी बदली है। उन्होंने कहा कि हमें अकादमिक जगत का बर्ताव बदलना होगा, हमें ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो महिलाओं को अकादमिक जगत में टिकने के लिए प्रोत्साहित करें – यह उनकी भीतरी ख्वाहिश है। शोधकर्ता खुद वैज्ञानिकों के रूप में बात कर रहे हैं और वे कह रहे हैं कि समस्याएं सिर्फ बाहर ही नहीं हैं। समस्याएं संस्थानों के भीतर भी हैं क्योंकि संस्थान जेंडर तटस्थ नहीं होते, गहरे तौर पर जेंडर पहचानों के साथ काम करते हैं। और यह पूर्वाग्रह हर कदम पर सिर उठाये मिलता है: भर्ती में, पदोन्नतियों में, अनुदानों के बंटवारे में और नाना दूसरे स्तरों पर। अब महिलाएं ज्यादा मुखर हो गई हैं और पहले से ज्यादा खुलकर बोलने लगी हैं। लिहाजा, अब हम देख सकते हैं कि समस्या यह नहीं है कि हमारा समाज लोगों को बाहर खींच लेता है या उन्हें आगे बढ़ने नहीं देता। यह समस्या आंशिक रूप से ही समाज तक सीमित है। समस्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा स्वयं संस्थानों के भीतर है। संस्थान किस तरह जेंडर पहचानों से चलता है, किस तरह एक मर्दाना माहौल गढ़ता है और किस तरह उसकी पूरी संरचना महिलाओं को आसानी से भीतर आने और टिकने नहीं देती।

विवेक वेलांकी: अपने लेख में आपने एक कदम और आगे जाते हुए यह भी कहा है कि ”विज्ञान के संस्थानों का जेंडरभेदी चरित्र विज्ञान के हर आयाम में फैले मर्दानेपन से पैदा होता है।“ आपके इस तर्क को उलट कर देखें तो यह सवाल पूछा जा सकता है कि बाॅयल के नियम में जेंडर कहां है?

चयनिका शाह: यह एक फिसलन भरा तर्क है जो हमें बार-बार उठाना पड़ता है क्योंकि मर्दानेपन को आज भी सिर्फ पुरुषों से जोड़ कर देखा जाता है। है ना? बेशक, मर्दाना दुनिया मर्दों की दुनिया है। मगर मर्दानाकरण एक ज्यादा व्यापक अवधारणा है और मुझे इसका सुराग नारीवाद में मिलता है : यह एक ऐसी चीज है जो पुरुषों को लाभ पहुंचाती है। यानी, इसका आशय सिर्फ पुरुष होने से नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे नारीकरण का आशय सिर्फ नारी होने से नहीं है। किसी खास जगह के मर्दानेकरण की पूरी सामाजिक प्रक्रिया या कुछ खास दायरों के नारीकरण की प्रक्रिया पुरुषों को लाभ पहुंचाती है और महिलाओं को हाशिए पर धकेलती है। मगर मर्दानाकरण पुरुष होने से कहीं ज्यादा है। मैं यहां नारीवादी व्याख्या का सहारा ले रही हूं। विज्ञान की जिस तटस्थता की इतनी दुहाई दी जाती है – कि विज्ञान तो वैज्ञानिकों का काम है और वैज्ञानिकों के काम में किसी तरह का सामाजिक पूर्वाग्रह नहीं होता – मेरे ख्याल में यह अपने आप में मर्दानाकरण का ही एक उदाहरण है। मैं आपको बताती हूं कि मैं इसे मर्दानाकरण क्यों कह रही हूं। दरअसल इस दलील में उस वस्तुनिष्ठता पर जोर दिया जा रहा है जिसके सहारे वैज्ञानिक विज्ञान को देखते हैं। यह विज्ञान को ऐसी परियोजना में ढाल देने का तरीका है जो इस बात को और पुष्ट करती है कि दुनिया के बारे में कोई वस्तुनिष्ठ सत्य होता है जो हमारी सोच और धारणाओं से परे होता है।

मेरे खयाल में यह पृथक्कता और इस पर जोर देने की जरूरत, यह भी अपने आप में एक जेंडर आधारित तथ्य है। इसका आशय पुरुष होने से नहीं है, इसका आशय औरतों को दबाने से नहीं है, इसका आशय पुरुषों के हाथ में सत्ता होने से भी नहीं है। इसका आशय कहीं ज्यादा व्यापक है। इसका आशय यह कहने से है कि दुनिया एक ऐसे ढर्रे पर बनायी गई है कि उसमें वस्तुनिष्ठ और मनोगत, इन दोनों को एक दूसरे से पृथक किया जा सकता है और मेरे विचार में यही मर्दानाकरण है। विज्ञान की पद्धति को किसी भी तरह की सामाजिक जड़ों से कटा हुआ मानना ही अपने आप में विज्ञान का मर्दाना संस्करण है। जब आप विज्ञान के इतिहास को देखते हैं और पीछे मुड़कर चीजों को समझने की कोशिश करते हैं तो पता चलता है कि वस्तुनिष्ठ और मनोगत, इन दोनों के बीच ऐसी पृथक्कता नहीं होती, बाहर की प्रकृति और हमारे समाज, यहां की अध्ययन और उसके विषय के बीच ऐसा भेद नहीं होता। इस तरह का भेद इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि दोनों एक-दूसरे को लगातार प्रभावित करते हैं और यह समझ अपने आप में विज्ञान को मर्दाना मानने की सोच को दिशा दे रही है।

जब भी मैं किसी नारीवादी समालोचना के साथ बात करती हूं तो वो ये सवाल उठाते हैं – अगर औरतें विज्ञान करतीं तो क्या उनके पास बॉईल का नियम नहीं होता? क्या गुरुत्वाकर्षण का नारीवादी सिद्धांत कुछ अलग होता? सवाल यह नहीं है कि एक औरत के तौर पर मैं गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को अलग तरह से देखती या नहीं बल्कि मसला यह है कि औरत होने के नाते, एक नारीवादी होने के नाते मैं इस दुनिया को समझने के लिए बिल्कुल अलग तरह के सवाल खड़े करती। शायद मैं दुनिया की हर चीज को समझने के लिए कोई सरल नियम ढूंढने की कोशिश नहीं करती। शायद मेरी ऐसी कोई चाह नहीं होती। शायद हम दुनिया को बिल्कुल अलग ढंग से देखते, शायद हम इन्हीं पद्धतियों का प्रयोग न करते और इनमें से बहुत सारी चीजें पिछले कुछ सालों के दौरान गलत भी साबित हो चुकी है, जैसे यह दावा कि भौतिकी की पद्धति ही सारे विज्ञानों पर लागू होनी चाहिए और विज्ञान की पद्धति सारे समाज विज्ञानों पर लागू होनी चाहिए। अब यह बात कोई नहीं मानता। हम ये सारी चीजें कब की पीछे छोड़ चुके हैं। यह बदलाव इसलिए आया क्योंकि हम इस बात को समझने लगे हैं कि यह भेद ज्यादा नहीं चलता और यह मान लेना भौतिकी यानी विज्ञानों में सबसे कठोर विज्ञान के पैरोकारों के लिए भी अच्छा है कि यह पृथक्कता मिथ्या है। इस तरह, अब आप समझ सकते हैं कि आपको एक नारीवादी बायल का नियम ढूंढने की जरूरत नहीं है। मगर आपको बॉईल के नियम को वैज्ञानिक ज्ञान की दुनिया में इस तरह से रखना है कि वह एक अलग रोशनी में दिखाई दे – वह सबसे निर्णायक ही न बन जाए।

मुझे लगता है कि इसके बहुत सारे वृत्तांत हो सकते हैं कि विज्ञान में कितनी सारी चीजें जेंडर के धरातल पर चलती हैं। लोग मर्दानाकरण को समझें इसके लिए शायद उन्हें नारीवाद को समझना होगा और उन्हें नारीवाद को महिलाओं के उत्पीड़न के ज्यादा बड़े दायरे में देखना और समझना होगा। मेरे ख्याल में यही असली पेंच है।

विवेक वेलांकी: आपने अभी एक बहुत दिलचस्प और अहम पहलू की तरफ इशारा किया है – आपने विज्ञान के स्वरूप और विज्ञान के इतिहास के बारे में बात की है जिसके बारे में स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है। मैं खुद विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूं और मैंने कभी इन चीजों के बारे में नहीं पढ़ा है। मगर विज्ञान के नारीवादी अध्ययन ने एक नई सोच दी है। जैसा कि आपने अपने लेख में जिक्र किया है, यह बदलाव बने-बनाए विज्ञान से लगातार रचे जा रहे विज्ञान की ओर ले जाने वाला कदम है। क्या आप इस पर और रोशनी डाल सकती हैं?

चयनिका शाह: मेरे मामले में ही देखें तो जब मैंने वैज्ञानिक शोध छोड़ने का फैसला लिया तो उस समय मुझे विज्ञान इतना पराया और भिन्न क्यों दिखने लगा था, इसकी एक वजह ये थी कि यह मुझे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से बहुत कटा हुआ लगने लगा था।  विज्ञान के इतिहास, विज्ञान के समाजशास्त्र और सामान्य वैज्ञानिक अध्ययनों पर मुड़ कर देखते हुए मुझे लगता है कि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें विज्ञान अभी भी दूसरे विषयों से पीछे है जिसका आपने अभी जिक्र किया था। यह पृथक्कता विज्ञान में इतनी सघन है कि हम सिर्फ नतीजों की बात करते रह जाते हैं। हम उस ऐतिहासिक संदर्भ की बात ही नहीं करते जिसमें अलग-अलग आविष्कार हुए हैं। हम समाज पर इन चीजों के प्रभावों की बात तक नहीं करते। हम इस बात पर भी बात करने से मुंह चुराते रहते हैं जब इन विचारों पर हंगामेदार चर्चाएं हो रही थीं तो बहस के सवाल क्या थे। जब इन सिद्धांतों को हम विज्ञान के बनने की प्रक्रिया में पिरो देते हैं तो हम इस पृथक्कता से छुटकारा पाने की तरफ बढ़ने लगते हैं – हम दोनों को नजदीक लाते हैं, एक-दूसरे में गूंथ देते हैं, इस बात को रेखांकित करते हैं कि समाज का विज्ञान पर और विज्ञान का समाज पर सीधे असर पड़ता है और हमें इस संबंध को शिक्षा के भीतर लाना होगा।

यह एक ऐसी चीज है जो ऐसे बहुत सारे लोगों को विज्ञान के नजदीक लाने और जोड़े रखने का जरिया बन सकती है जो कि विभिन्न प्रकार से हाशिए पर छूट जाते हैं, चाहे वे महिलाएं हों, चाहे वे दलित हों; ऐसे तमाम लोग जिन्होंने मान लिया है कि विज्ञान की दुनिया उनकी पहुंच के बाहर है। हो सकता है तब उन्हें ये महसूस होने लगे कि अब विज्ञान उनकी पहुंच में आ गया है क्योंकि यह ज्यादा वास्तविक हो गया है, उनकी जिंदगी से ज्यादा जुड़ गया है, उनकी दुनिया के ज्यादा भीतर आ गया है। इससे निश्चय ही विज्ञान भी समृद्ध होगा। तब आप विज्ञान को एक ऐसी चीज के रूप में देख सकते हैं जो मनुष्यों में, बिल्कुल साधारण मनुष्यों में रची-बसी हुई है; यह एक ऐसी ज्ञान प्रणाली है जो समाज के भीतर से विकसित हुई है और उसको वैसे ही सींचा गया है जैसे किसी भी दूसरी ज्ञान प्रणाली को सींचा जाता है। मेरे खयाल में हम अपने विज्ञान के पाठ्यक्रमों में जो करते हैं और शिक्षा के क्षेत्र में हमारी जो कोशिशें रहती हैं वह यह है कि जब हम विज्ञान पढ़ाते हैं तो सिर्फ उसके अंतिम नतीजों के बारे में न पढ़ाएं। हमें ये भी पढ़ाना चाहिए कि उसका विकास कैसे हुआ, उसका इतिहास, समाजशास्त्र में उसकी जगह क्या थी और उसके बारे में क्या बहसें चल रही थीं। ये सब बहुत अहम बातें हैं। यह एक ऐसी बात है जिसको हम पूरी तरह भुला चुके हैं। हम यह मान कर चलने के आदी हो गए हैं कि वैज्ञानिक पद्धति कोई ऐसी चीज है जिसे वैज्ञानिक खुद-ब-खुद जान जाते हैं। हम इसके बारे में कतई नहीं पढ़ाते। इसके बाद भी, हम सबके पास ये धारणा रहती है कि विज्ञान वस्तुनिष्ठ होता है क्योंकि हम उसे इसी तरह पढ़ाते रहे हैं – कि यह सिर्फ एक ऐसा ज्ञान है जो लोगों को न जाने कहां से मिल गया है और यह हमें दुनिया के बारे में बताता है।

विवेक वेलांकी: आपने विज्ञान शिक्षा पर एक पाठ्यक्रम तैयार करने में भी अहम भूमिका अदा की है। उस पाठ्यक्रम में विज्ञान के नारीवादी अध्ययन का सहारा लिया गया है और उन पहलुओं को शामिल किया गया है जिनका अभी आपने जिक्र किया। यह एक उल्लेखनीय बदलाव है। इस पाठ्यक्रम पर विद्यार्थियों की प्रतिक्रिया क्या रही है? और बीते सालों के दौरान इस दिशा में खुद आपकी समझदारी में क्या बदलाव आए हैं?

चयनिका शाह: सबसे पहले बाद वाली बात से शुरू करती हूं। मेरे खयाल में लगातार सृजनशील विज्ञान और एक अंतिम उत्पाद के रूप में विज्ञान के इस भेद की मेरी समझदारी इस पाठ्यक्रम को पढ़ाने के मेरे अनुभवों से ही बनी है। इसने मुझे भी शिक्षा के क्षेत्र में चल रही बहसों और विज्ञान के अध्ययन से जुड़ी बहसों को समझने में मदद दी है। मैं इस क्षेत्र में नारीवाद की अपनी समझदारी और जैसे मैंने विज्ञान पढ़ा था, उसी तरह की विज्ञान की समझदारी के साथ दाखिल हुई थी। मैं शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में काम करने लगी और इससे नारीवादी आलोचनाओं की मेरी समझ पर भी असर पड़ा है। मैं नारीवादी आलोचना को बहुत सारी दूसरी आलोचनाओं की तरह एक और आलोचना मानती हूं। हमारे सामने उत्तर आधुनिकतावादी आलोचना, विज्ञान की दूसरी आलोचनाएं भी हैं और मैं नारीवादी आलोचना को भी इसी शृंखला में एक और आलोचना मानती हूं। इसी तरह, शिक्षा के प्रसंग में हम यह देख सकते हैं कि दूसरे विषयों को किस तरह पढ़ाया जा रहा है। इसके आधार पर हम यह देखने की कोशिश करते हैं कि विज्ञान इन सारे विषयों से किन-किन बिंदुओं पर भिन्न है और उसे संदर्भ से जोड़ने पर किस तरह नए ढंग से देखा जा सकता है।

जहां तक उस पाठ्यक्रम का सवाल है जिसका आपने जिक्र किया तो मेरे ख्याल में मैं बहुत खुशकिस्मत रही क्योंकि हमारे पास बहुत कम विद्यार्थी थे। और पुनः, मेरे ख्याल में विज्ञान शिक्षा का सवाल यहां फिर उठ खड़ा होता है कि आप इस दिशा में जाना चाहते हैं या नहीं। दूसरा मसला यह है कि लोग शिक्षाशास्त्र के पाठ्यक्रम चाहते हैं। वे ऐसा पाठ्यक्रम नहीं चाहते जिसमें शिक्षाशास्त्र पर भी मुख्य विषय जितना ही या उससे ज्यादा जोर न दिया गया हो। फिर भी, इस पाठ्यक्रम में शिक्षाशास्त्र के बारे में भी बात की गई है और साथ में विज्ञान को भी आलोचनात्मक दृष्टि से देखा गया है। हमारे पास कुछ ही विद्यार्थी थे मगर हमारे पास बहुत बढ़िया विद्यार्थी थे और हर बैच में दो या तीन विद्यार्थी जरूर ऐसे होते हैं जो विज्ञान शिक्षा के साथ किसी तरह का जुड़ाव बना लेते हैं। मेरे लिए यह बहुत संतोष की बात है क्योंकि हमारे समाज में चीजों के बारे में इस तरह बात करने वाले ज्यादा लोग नहीं होते। इस लिहाज से किसी पाठ्यक्रम का क्या मकसद होना चाहिए – लोगों में एक चाह पैदा करने, पाठ्यक्रम के विचारों को आगे ले जाने और उस विषय को और समृद्ध बनाने की चाह पैदा करना एक ऐसी चीज है जो इस पाठ्यक्रम से संभव हुआ है जबकि अभी इसे चलते हुए सिर्फ चार-पांच साल हुए हैं।

यह कोई आसान काम नहीं था क्योंकि यह आपके भीतर भी बहुत कुछ झिंझोड़ देता है। लोगों को सबसे ज्यादा एतराज नारीवाद को विज्ञान से जोड़ देने पर रहता है। उन्हें इस बात से दिक्कत नहीं होती कि आप विज्ञान में उसके इतिहास, दर्शन या समाजशास्त्र की बात कर रहे हैं। मगर जैसे ही आप नारीवाद को विज्ञान में ले आते हैं तो उनके सब्र का बांध टूट पड़ता है। फिर भी इससे लोगों पर असर पड़ता है; इससे उन्हें अलग ढंग से सोचने का मौका मिलता है। लोग चाहे किसी भी ढंग से या किसी भी स्थान पर खड़े हों, अगर वे पुनर्विचार के लिए तैयार हैं तो वे नई दिशा में सोचने लगते हैं। अगर वे पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं हैं और हमारे पास ऐसे विद्यार्थी भी रहे हैं, जिन्हें लगता है कि ये समस्या को बेवजह खींचने वाली बात है तो उनकी अभी तक चली आ रही दलीलें भी और पुख्ता होती चली जाती हैं। मेरे ख्याल में इससे हर विद्यार्थी को कुछ न कुछ सोचने की खुराक तो जरूर मिलती है। ऐसा नहीं है कि हर कोई मेरी तरह सोचने लगता है। यह इस पाठ्यक्रम का मकसद भी नहीं है। मगर यह सबके भीतर सोचने की प्रक्रिया शुरू करता है। यह निश्चय ही एक सफल पाठ्यक्रम की निशानी है क्योंकि किसी पाठ्यक्रम का कुल मकसद यही होना चाहिए।

संदर्भ: शाह, सी. (2012), फ्रॉम नंबर्स टू स्ट्रक्चर्स: नेविगेंटिंग दि कॉम्प्लेक्स टेरेन ऑफ़ साइंस, एजुकेशन ऐण्ड फेमिनिज़्म, कंटेम्प्रेरी एजुकेशन डायलॅग, 9 (2) 147-171.

डॉ. चयनिका शाह एक नारीवादी और क्वियर अधिकार कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भौतिक विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि ली है और २० साल से भी ज्यादा समय तक मुंबई विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाया है। उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़, मुंबई के स्नातकोत्तर विद्यार्थियों के लिए ‘फेमिनिस्ट साइंस स्टडीज’ और ‘साइंस एजुकेशन’ शीर्षकों पर पाठ्यक्रम भी तैयार किए और पढ़ाए हैं। ‘भारत की छाप’उनकी संयुक्त रूप से लिखी गई पुस्तिकाओं की एक शृंखला है जिसे भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इतिहास पर १३ कड़ियों के धारावाहिक के लिए तैयार किया गया था। इसके अलावा उन्होंने ‘वी ऐण्ड ऑउर फर्टिलिटी: दि पॉलिटिक्सऑफ़ टेक्नोलॉजिकल इंटरवेंशंस’का भी सहलेखन किया है। आप उनसे Chayanika.Shah@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।

विवेक वेलांकी मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी, कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन में करिकुलम इंस्ट्रक्शन एंड टीचर एजुकेशन पर डाक्टरल कर रहे हैं। आप उनसे vivek.vellanki@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। यह पाठ डायलॉगिंग एजुकेशन नामक पॉडकास्ट शृंखला का एक रिकार्डेड इंटरव्यू है। यह पॉडकास्ट शृंखला आप आरआरसीईई की वेबसाइट www.rrcee.net पर देख सकते हैं।

चित्र श्रेय: टाइम्स ऑफ़ इंडिया
स्त्रोत: Shah, C., & Vellanki, V. (2016). Feminism and science: Teaching and learning “science in the making.” In V. Vellanki & P. Batra (Eds.), Y. Dutt (Trans.), Dialoging Education (pp. 46–52). Delhi: Regional Resource Centre for Elementary Education.
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