Scroll Top

“हमारे जेब मत काटो!” – सुविधायुक्त कपड़ों की मांग का नारीवाद से रिश्ता।

A comic strip. First panel with text "me in a dress" shows a serious girl weairng a green frock, with her hands straight by her side. The 2nd panel with text "me in a dress with pockets" shows her in the same green frock, but with hands in her dress-pocket, feeling chirpy and happy.

औरतों के कपड़ों में ढंग के जेबों का न रहना जेंडर समानता और इंसाफ़ का एक मुद्दा है जिसे हर नारीवादी को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।

क्या हुआ? ये बात ऊट-पटांग सी लग रही है? ज़रा धीरज रखिए और आगे सुनिए।

आप शायद सोच रहे होंगे कि ये कोई फ़िज़ूल का मुद्दा है जो सिर्फ़ एक ख़ास तबक़े (श्वेतांग या सवर्ण उच्चवर्गीय सिसजेंडर औरतों) को प्रभावित करता है। आपको लग रहा होगा कि जब हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां औरतों के अधिकारों के हनन के इतने गंभीर उदाहरण हैं, हम कपड़ों में जेबों के न होने को मुद्दा क्यों बना रहे हैं?

लेखिका तानिया बासु ने अपने लेख में बताया है कि क्यों हमें ये मुद्दा हल्के में नहीं लेना चाहिए। हमारे कपड़ों में जेबों का न होना वैश्विक बाज़ारवाद के ज़माने में औरतों से जुड़ी एक बड़ी समस्या का महज़ एक हिस्सा है। समस्या ये है कि किस तरह 21वीं सदी में भी पितृसत्तात्मक मानदंड औरतों के पहनावे (और उनकी ज़िंदगियों) को प्रभावित करते हैं। हमें ज़रूरत है पितृसत्ता और औरतों के कपड़ों के बीच के संबंध पर नज़र डालने की ताकि हम औरतों की आज़ादी और उनके अपने शरीर, अपने फ़ैसलों, और अपनी यौनिकता के ऊपर हक़ के बारे में कुछ ज़रूरी सवाल उठा सकें। वे सवाल जिनके जवाब आज भी दक्षिण एशिया और पूरी दुनिया के नारीवादी ढूंढने की कोशिश में हैं।

हमने इस बारे में अपने दोस्तों और सहकर्मियों से बात की। उनका कहना था कि उन्हें भारतीय और पश्चिमी शैली के पहनावे में जेबों के न होने से दिक़्क़त तो ज़रूर महसूस हुई है लेकिन उन्होंने कभी भी इस पर विस्तार से बात नहीं की थी। हमारी ही एक दोस्त शायद पहली बार किसी से इस बारे में बात कर रही थी जब वो एक बार डिनर के दौरान बातचीत के बीच में झल्ला उठी, “अरे! आजकल तो पैंट में भी जेब नहीं होते!” उसे (और शायद बहुत लोगों को) इस बात का अचरज होता है कि पैंट के जेबों की भी ‘स्टाईल’ और ‘सुंदरता’ के नाम पर बलि चढ़ा दी गई है।

हम ये बिलकुल नहीं कहना चाहते कि कोई भी ऐसा ‘स्वर्णयुग’ था जब औरतों के लिए सब कुछ अच्छा ही अच्छा था, लेकिन ये बात तो सही है कि एक ज़माने में औरतों और मर्दों दोनों के ही कपड़ों में एक बड़ा-सा जेब सिला हुआ करता था जो एक छोटे पर्स जितना ही था। फ़ैशन इतिहासकार बार्बरा बर्मन के मुताबिक़ औरतें इन जेबों को अपने ‘पर्सनल स्पेस’ का ज़रूरी प्रतीक माना करतीं थीं। उस ज़माने में, ख़ासतौर पर शहरों में, लोग भीड़भाड़ वाले इलाक़ों में एक दूसरे के बहुत क़रीब रहा करते थे इसलिए औरतें अपना व्यक्तिगत सामान इन जेबों के अलावा कहीं और नहीं रख सकतीं थीं।

19वीं सदी में रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक जेंडर भूमिकाओं के कठोरता से लागू होने के साथ-साथ औरतों के कपड़ों से ये जेब ग़ायब होने लगे। ऐसा समझा जाने लगा कि औरतों को अपने साथ सामान रखने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि उनके पति ही उनकी सारी ज़रूरतें पूरी करने के लिए मौजूद हैं। उस दौरान औरतों के शरीरों को भी सुंदर तभी माना जाने लगा था अगर वे पतले और सुडौल होते, इसलिए कपड़े भी इतने टाइट बनाए जाने लगे कि शरीर का अंग-अंग नज़र आए और वो पतला भी दिखे। इस तरह के फ़ैशन के ज़रिए यही बताया जाने लगा कि औरतों की सुविधा से ज़्यादा ज़रूरी है मर्दों को आकर्षित करने की उनकी क्षमता।

पितृसत्ता जीत गई और औरतों के आरामदायक और सुविधाजनक कपड़े पहनने की आज़ादी ख़त्म हो गई।

लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि सोशल मीडिया के ज़रिए आजकल औरतें कपड़ों में जेबों के न रहने और कपड़े सुविधाजनक न होने के बारे में अपनी शिक़ायतें जाहिर करने लगीं हैं। ट्विटर (नया नाम ‘एक्स’) पर #DemandPockets जैसे हैशटैगों के ज़रिए औरतें सिर्फ़ बिना जेब के कपड़ों के ख़िलाफ़ अपनी खीज ही नहीं व्यक्त कर रहीं बल्कि फ़ैशन की दुनिया से ये मांग कर रहीं हैं कि जेबों को सजावट की नहीं बल्कि ज़रूरत की चीज़ मानकर औरतों के कपड़ों में शामिल किया जाए।

सोशल मीडिया पर पहनावे से जुड़ी इस शिक़ायत का नारीवादी आंदोलन से जुड़ जाना कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं है, और न ही कोई पलभर का ट्रेंड। ये इस बात का प्रतीक है कि ऑनलाइन माध्यमों के ज़रिए नारीवादी अब उन मुद्दों पर बात करने लगे हैं जिन पर अब तक कभी खुली चर्चा हुई नहीं है। ये बातें यौनिकता और सुख से जुड़ी होतीं हैं, या उस भेदभाव और उन दोहरे मापदंडों के बारे में जिनका सामना औरतों को करना पड़ता है, या ‘बॉडी शेमिंग’ और पहनावे पर लोगों की निगरानी के बारे में।

जेबों का न होना एक तरह का भेदभाव ही है जिसका सामना लगभग हर औरत कर चुकी है। जुलाई 2016 में चित्रकार लोरिन ब्रैन्ट्ज़ की एक कॉमिक (जो इस लेख की कवर तस्वीर भी है) पर जो प्रतिक्रिया आई वो भी यही दिखाती है। कॉमिक में हम देखते हैं किस तरह एक तरफ़ चित्रकार बिना जेबों वाली ड्रेस पहने हुए मायूस और चिंतित नज़र आतीं हैं और वहीं दूसरी तरफ़ उसी ड्रेस में जेब हों तो वे ख़ुश और आज़ाद नज़र आतीं हैं। हमने पिछली बार जब देखा था तब इस कॉमिक पर 16,000 से भी ज़्यादा लाइक और 17,500 शेयर आ गए थे उन लोगों से जो अच्छी तरह समझ सकते थे कि जेबों वाली ड्रेस में ब्रैन्ट्ज़ को कैसा महसूस हुआ होगा।

हमने शुरुआत में जो बात रखी थी उस पर वापस आते हैं। कभी-कभी हम इस तरह के मुद्दों पर बात करने से कतराते हैं क्योंकि नारीवादी आंदोलनों के तहत अक्सर एक ‘मुद्दों का पदानुक्रम’ बन जाता है, जो ये तय करता है कि कौन-से मुद्दे ‘ज़रूरी’ हैं और कौन-से महज़ ‘फ़िज़ूल की बातें’। हम अगर असुविधाजनक कपड़ों का उदाहरण इस्तेमाल करते हुए जेंडर-आधारित भेदभाव की गंभीरता पर रोशनी डालने की कोशिश भी करें, इस मुद्दे पर विस्तृत चर्चा होने की संभावनाएं बहुत ही कम होतीं हैं क्योंकि हम पर तुरंत ‘ज़रूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने’ का इल्ज़ाम लगा दिया जाता है।

जब भी औरतों ने अपने पहनावे और चलने-फिरने की आज़ादी पर हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है, उनकी आवाज़ को ये कहते हुए दबा दिया जाता है कि ये सिर्फ़ अमीर, ऊंचे तबक़े की औरतों की समस्याएं हैं। हमने ये धारणा ही बना ली है कि उच्च वर्ग की औरतों को ये तय करने की ज़्यादा छूट होती है कि वे क्या पहनें या ख़रीदें। पहनावे और रहन-सहन पर पाबंदियों के ख़िलाफ़ भारत में कई नारीवादी आंदोलन शुरु किए गए हैं, जैसे दिल्ली में ‘स्लट वॉक’ और ‘पिंक चड्डी कैंपेन’। ‘पिंक चड्डी कैंपेन’ के तहत देश भर में आंदोलनकर्ताओं ने मंगलूरू में बार और पब में जातीं औरतों पर दक्षिणपंथी संगठन ‘श्रीराम सेना’ के हमले के ख़िलाफ़ उनके दफ़्तर पर गुलाबी रंग के अंडरवेयर भेजते हुए विरोध प्रकट किया था। इन आंदोलनों पर लिखते हुए रत्ना कपूर[1] बतातीं हैं कि किस तरह कई लोगों के लिए औरतों के अपने पसंद के कपड़े पहनने की आज़ादी ज़रूरी नारीवादी मुद्दों की लिस्ट के बिलकुल आख़िर में आती है।

आलोचकों ने दिल्ली में हुए ‘स्लट वॉक’ को पश्चिमी संस्कृति से आयातित एक आत्म-केंद्रित शौक़ करार दिया था, जिसका भारत की ज़मीनी सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है। उनके मुताबिक़ ऐसे आंदोलन की कोई अहमियत ही नहीं हो सकती जहां भारतीय औरतें हर रोज़ भ्रूण के लिंग चयन, दहेज हत्या, ख़ानदान की ‘इज़्ज़त’ रखने के लिए हत्या, और घरेलू हिंसा का सामना करतीं हैं। लेकिन जैसा कपूर कहतीं हैं, “ऐसी आलोचनाएं ‘स्लट वॉक’ को एक फ़िज़ूल और बेमतलब की परियोजना साबित करने के बजाय यही साबित करतीं हैं कि किस तरह आज भी औरतों की बातों को गंभीरता से नहीं लिया जाता जब वे हिंसा से आज़ाद होने की लड़ाई के तहत यौनिक स्वतंत्रता की मांग करतीं हैं।” ऊपर से, इस तरह के आंदोलनों का असर हमें राजनीतिक स्तर पर भी नज़र आया है। 2014 में श्रीराम सेना के प्रतिनिधि प्रमोद मुतालिक को भारतीय जनता पार्टी से निकाल दिया गया क्योंकि मंगलूरु के पब में हिंसा की घटना और उनके ‘पिंक चड्डी कैंपेन’ न संभाल पाने के बाद ये शंका होने लगी कि शायद उन्हें महिलाओं से वोट नहीं मिल पाएंगे।

मगर सच है कि ये देखना ज़रूरी है कि औरतों के पहनावे की आज़ादी और उनके विभिन्न सामाजिक स्थानों में जगह बनाने के अधिकार से जुड़े आंदोलनों में शामिल औरतें ज़्यादातर किस तबक़े से आतीं हैं, और फ़ैशन डिज़ाइनर उनकी मांगों का जवाब किस तरह से देने लगे हैं। कपड़ों के डिज़ाइन में बदलाव आने लगे हैं। उनमें इस्तेमाल करने लायक जेब लगाए जाने लगे हैं और शायद ये ‘ग्राहक शक्ति’ का एक सकारात्मक असर है। औरतें अब बोलने लगीं हैं और वे फ़ैशन की दुनिया में प्रचलित जेंडर-आधारित भेदभाव पर सोचने में डिज़ाइनरों को मजबूर कर रहीं हैं।

बाज़ारवाद से आए हुए ऐसे किसी भी सुझाव की कठोर आलोचना होनी चाहिए जो औरतों को ‘सशक्त’ करने का दावा करता हो। इस बात पर ग़ौर करना ज़रूरी है कि डिज़ाइनर किन लोगों की मांगें गंभीरता से ले रहे हैं और उनके मक़सद क्या हैं। आजकल ऐसे जेबों की मांग की जा रही है जो इतने बड़े हों कि उनमें टैबलेट और ‘फ़ैबलेट’ (फ़ोन और टैबलेट को मिलकर बनाया गया गैजेट) रखे जा सकें। अब ये तकनीकी उपकरण सस्ते तो होते जा रहे हैं लेकिन आज भी समाज का एक बड़ा तबक़ा इन्हें ख़रीद पाने से वंचित है।

ऊपर से, कपड़ों को सुविधाजनक बनाने के लिए ज़रूरी बदलाव सिर्फ़ महंगे ‘athleisure’ (कपड़े जो कसरत या आराम, दोनों के लिए पहने जा सकते हैं) के ब्रैंड्ज़ और हाई-टेक किस्म के कपड़ों में नज़र आने लगे हैं, जैसे तस्वीर में दिखाया गया स्लीवलेस जैकेट। ये वो कपड़े हैं जो आप कहीं भी पहन सकते हैं, चाहे ऑफ़िस में, दोस्तों के साथ घूमते वक़्त, या किसी ऊंचे पहाड़ी रास्ते पर चढ़ाई करते दौरान। लेकिन ये इतने महंगे होते हैं कि इन्हें ख़रीदने की हैसियत ज़्यादातर लोगों को नहीं होती। इसी तरह उपयोगिता और आराम के लिए ख़ासतौर पर औरतों को एक भारी ‘एंट्री फ़ीस’ भरनी पड़ती है।

इस एंट्री फ़ीस की छिपी क़ीमत आप तब भी नहीं चुका पाएंगे अगर आप वॉटरप्रूफ़ बूट्स के एक जोड़े पर अपनी आधी तनख़्वाह उड़ा दें, जो आपका पॉश्चर सुधारने और सामाजिक स्थितियों में आपकी घबराहट दूर करने का वादा करता हो (और ‘साइड एफ़ेक्ट’ के तौर पर जो शायद बरसात में आपके पैरों को गीले होने से भी बचा लेगा!)

पैटागोनिआ कंपनी का एक हाफ-जैकेट

भारतीय औरतों के लिए निम्न वर्ग से मध्यम वर्ग में आने का मतलब ज़्यादा आज़ादी मिलना नहीं है, बल्कि अक्सर ऐसे में उन पर रखी सामाजिक निगरानी और भी कड़ी हो जाती है। नारीवादी प्रोफ़ेसर शिल्पा फडके[2] लिखतीं हैं कि औरतों की उपस्थिति जिन सार्वजनिक स्थानों में ज़्यादा नज़र आती है वे ज़्यादातर शॉपिंग मॉल जैसे व्यावसायिक केंद्र होते हैं, जो सार्वजनिक कहलाते तो हैं मगर पूरी तरह से निजी स्थान होते हैं और जहां पितृसत्तात्मक पारिवारिक मानदंड ही चलते हैं। औरतों के लिए ऐसे स्थानों में शामिल हो पाना सिर्फ़ महंगे कपड़े ही नहीं हैं जिनसे पता चले कि वे भावी ग्राहक हैं, बल्कि अपने व्यवहार पर भी उन्हें कई लगाम लगाने पड़ते हैं।

फडके ये बात रखतीं हैं कि शहरी भारत में औरतों के पास उनके परिवारों से मिली हुई जातिगत, वर्गीय, या धार्मिक पहचान न हो तो वे ‘unbelonger’ के तबक़े में आ जातीं हैं। ‘Unbelonger’ यानी वो जिसके लिए कहीं भी कोई जगह नहीं है। प्रवासी मज़दूरों, मुसलमानों, दलितों, ग़रीबों, क्वीयर लोगों, विकलांगता के साथ जीने वालों, और उत्तरपूर्वी भारत से आने वालों जैसे हाशिये पर रहने वाले तबक़ों के साथ-साथ औरतों की सामाजिक उपस्थिति को भी महज़ बर्दाश्त ही किया जाता है और बार-बार हिंसा का प्रयोग करते हुए उन्हें सामाजिक स्थानों से हटाने की कोशिश भी की जाती है। छोटे कपड़े पहनने की वजह से उन्हें बॉडी-शेमिंग और स्लट-शेमिंग का शिकार बनाया जाता है और ब्रा का एक स्ट्रैप क्या नज़र आ जाए, मीडिया सरेआम उन्हें ज़लील करती है। किसी भी औरत से पूछ लीजिए। हमें हर क़दम पर अपने पहनावे में तथाकथित ‘ख़ामियों’ के लिए फटकार या उससे बदतर चीज़ों का सामना करना पड़ता है।

अपने हिसाब से सार्वजनिक स्थानों का इस्तेमाल करने के लिए औरतों को जिस स्तर पर उत्पीड़न सहना पड़ता है, उस संदर्भ में हमारे कपड़ों में जेबों के न होने जैसी त्रुटियों को हम किसी छोटी-मोटी मुसीबत की तरह नहीं देख सकते जिसे हल्के में लिया जा सके। हमारे लिए ये समझना ज़रूरी है कि ये उसी भेदभाव का एक और रूप है जिसका सामना हम स्कूलों, घरों, कार्यस्थलों से लेकर हर जगह करते आ रहे हैं।

ये याद रखना ज़रूरी है कि हम भेदभाव के उदाहरणों को ‘असली मुद्दों’ और ‘फ़िज़ूल की बातों’ में नहीं बांट सकते। हर एक मुद्दा ज़रूरी है। सवाल सिर्फ़ ये है कि वो किस हद तक हमें प्रभावित करता है।

हमें मुख्यधारा के फ़ैशन में छिपे उन सामाजिक संकेतों को अनदेखा नहीं करना चाहिए जो औरतों के घर से निकलने और आसानी से घूमने-फिरने पर पाबंदियां लगाते हैं। समाज में एक ‘औरत’ की तरह पेश आने के लिए कंधों में दर्द देनेवाले बड़े-बड़े हैंडबैग लादकर चलना और पतली फ़ैब्रिक से बने असुविधाजनक कपड़े पहनना औरतों के लिए एक अतिरिक्त बोझ बन जाते हैं, ख़ासकर जब औरतें पहले ही ऐसे कठोर शहरी माहौलों में जीने की कोशिश कर रहीं हैं जहां उन्हें तवज्जो नहीं दी जाती।

तथाकथित ‘असली मुद्दों’ की ख़ातिर इस मुद्दे को नज़रअंदाज़ करना और इसे भेदभाव के व्यापक उदाहरणों के संदर्भ में न देख पाना नारीवादी आंदोलन को कमज़ोर ही करता रहेगा।

और फिर हमें जेब अच्छे भी तो लगते हैं! बड़े, गहरे, मोटी लाइनिंग वाले जेब। पैंट के ही नहीं बल्कि ड्रेस और स्कर्ट के भी (इन पर आमतौर पर जेब होते नहीं हैं लेकिन जब भी मिलते हैं, दिल झूम उठता है!)। हम अपने जेबों में कॉन्डम और प्यार के ख़त रखते हैं, इसलिए नहीं कि हम डरते हैं कि कोई इन्हें देख लेगा बल्कि इन्हें अपने क़रीब रखने के लिए। इन चीज़ों के हमारे शरीर के संस्पर्श में रहने से आने वाली अंतरंगता के एहसास के लिए। नदी के किनारे से उठाए गए रंग-बिरंगे कंकड़ पत्थरों के साथ ये चीज़ें भी हमारे जेबों में रह जातीं हैं ताकि हम जब चाहें इन्हें छू सकें, अपनी उंगलियों के बीच इन्हें महसूस कर सकें।

सबसे ज़रूरी बात, जेब ज़रूरी हैं क्योंकि आराम ज़रूरी है। चैन से किसी पार्क के बेंच पर बैठकर या घास पर लेटे हुए किताबें पढ़ पाना ज़रूरी है। बेइंतहा आवारागर्दी की एक दोपहर के लिए जेब तो बिलकूँ ज़रूरी हैं (और आवारा घूमने में सिर्फ़ मज़े ही नहीं बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति के ख़िलाफ़ एक कठोर राजनीतिक संदेश भी है)। फडके का कहना है कि जब औरतें और ‘unbelonger’ समूह में आने वाले दूसरे तबक़ों के लोग आवारागर्दी करते हैं तो ये एक तरह की ‘urban anarchy’ है जिसके तहत वे “सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश करने के लिए ख़ुद पर लगाई गईं शर्तों को दोबारा परिभाषित करते हैं। इन स्थानों का आनंद वे पनाह ढूंढने वाले ग्राहकों के तौर पर नहीं बल्कि अपना हक़ जताने वाले नागरिकों के तौर पर लेते हैं।” हम भी इस बात से पूरी तरह से सहमत हैं।

अच्छा ये बताइए, आप अपने जेबों का इस्तेमाल कैसे करते हैं?

क्रिस्टिन फ्रैंकर और सुरभि श्रीवास्तव को नारीवादी होने पर नाज़ है। वे दोनों भारत और अमेरिका में प्रजनन-संबंधित न्याय और गर्भसमापन के अधिकार पर काम करतीं हैं। ख़ाली समय में वे नारीवादी साहित्य और सामयिक घटनाओं पर बातें करना पसंद करतीं हैं और दोनों का ही मानना है कि गर्मा-गरम पिज़्ज़ा के बग़ैर पितृसत्ता से लड़ने की योजनाएं बनाना नामुमकिन है।

ईशा द्वारा अनुवादित।
To read the original article in English, click here.


[1] रत्ना कपूर, ‘पिंक चड्डीज़ ऐंड स्लट वॉक कूत्यूर – द पोस्ट-कोलोनीयल पॉलिटिक्स ऑफ़ फेमिनिज़्म लाइट’, फ़ेमिनिस्ट लीगल स्टडीज़ 20 (2012), 14.

[2] शिल्पा फडके एट ऑल, “व्हाय लॉइटर? रैडिकल पॉसिबिलिटीज़ फ़ॉर जेंडर्ड डिसेंट”। मेलिसा बुचर और सेल्वराज वेलायुधम द्वारा संपादित डिसेंट ऐंड कल्चरल रेसिस्टैंस इन एशिया’ज़ सिटीज़ (न्यू यॉर्क – रूटलेज, 2009) में प्रकाशित। पृ – 193-194

कवर इमेज: Loryn Brantz