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महिलाएं और सादा नारीवाद – फ़ोर  मोर शॉट्स प्लीज़ शो की समीक्षा!

The poster of Four More Shots Please, featuring four women in Western clothing, posing, laughing, dancing and having fun.

ऐसा लगता है कि लोकप्रिय मीडिया ‘महिला-केंद्रित’ सामग्री बनाने और महिलाओं के बीच संबंधों को दिखाने के लिए चार की जादुई संख्या का उपयोग करती है – लिटिल विमेन, सेक्स एंड द सिटी, और हमारे यहाँ वीरे दी वेडिंग (2018) जैसी फ़िल्में। फ़ोर मोर शॉट्स प्लीज़!, रंगिता प्रितिश नंदी द्वारा निर्मित और देविका भगत और इशिता मोइत्रा द्वारा लिखित प्राइम वीडियो पर उपलब्ध शो, मुंबई में रहने वाली चार शहरी, उच्च वर्ग की महिलाओं की कहानी है – दामिनी (सयानी गुप्ता), पत्रकार एवं स्टार्ट-अप की संस्थापक जिसे ऑब्सेसिव कंपलसिव डिसॉर्डर (एक मनोवैज्ञानिक अवस्था) है; ‘गोल-मटोल’ सिद्धि (मानवी गगरू) जिसकी माँ एक कड़ा नियंत्रण रखने वाली सोशलाइट है; उमंग (बानी जे), एक पर्सनल ट्रेनर जो अपनी यौनिकता को स्वतंत्र रूप से जीने के लिए लुधियाना से भाग आई थी; और वकील-तलाकशुदा-एकल माँ अंजना (कृति कुल्हारी) – और किस तरह यह चारों अपने जीवन और व्यक्तिगत संघर्षों का सामना करती हैं। हाँलाकि हर पात्र की अपनी अलग पृष्ठभूमि और विशिष्टताएँ हैं जो उस पात्र को सम्पूर्ण बनाती हैं, वे ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें हम सब जानते हैं या हम ख़ुद उनमें से एक हैं।

भारतीय मुख्यधारा मीडिया के पास अंततः, महिलाओं की मित्रता के विषय पर अपनी ख़ुद की एक नाटक श्रृंखला आ गई है (हाँलाकि मेरी पसंद के मुक़ाबले कुछ ज़्यादा ही सेक्स एंड द सिटी और पश्चिम जगत से प्रेरित)। इतना ही नहीं, मैं ख़ुशी से कह सकती हूं कि यह शो आश्चर्यजनक रूप से महिला नज़र की ज़रूरतों को पूरा करता है – स्क्रीन पर बहुत से सुंदर पुरुष और महिलाएँ देखने को मिलती हैं, महिलाएँ संभोग-सुख (ऑर्गैज़म) लेती हैं (असल में, इसे नकली बनाए बिना – स्वाभाविक रूप से स्क्रीन के लिए ही!), और कभी-कभी महिलाओं की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए पुरुषों के महत्व को कम भी कर दिया गया है, जो आदर्श तो नहीं है, लेकिन जैसा कि अंजना कहती हैं, “पितृसत्ता के 2000 साल, इतना तो बनता है (कम से कम इतने के तो हम हक़दार हैं)”।

हालांकि यह शो किसी भी तरह से अचूक या सर्वोत्तम नहीं है (वास्तव में इससे बहुत दूर), लेकिन यह सही तरीके से यौनिकता, कल्पना और यौन अभिव्यक्ति के तत्वों के अंतर्संबंधों को मुख्य कथानक बिंदुओं के रूप में जोड़ता है। हम चार महिलाओं को अलग-अलग तरीक़े से अपने साथियों और अपनी स्वयं की यौनिकता के साथ खेलते और खोज करते हुए देखते हैं। शुरुआती सीन में एक ‘सुडौल’ मिलिंद सोमन को चुस्त-दुरुस्त कपड़े पहने बोर्डरूम टेबल के ऊपर दामिनी की ओर जाते हुए दिखाया गया है, और पीछे “लेट मी गो डाउन” शब्दों के साथ साउंडट्रैक बज रहा है। बाद में पता चलता है कि यह दामिनी का सपना था, लेकिन यह शुरुआती सीक्वेंस उस नज़र का एक बढ़िया उदाहरण है जिसके माध्यम से महिलाओं की प्रत्येक कल्पना को चित्रित किया गया है। कल्पनाएं और उनकी पूर्ति, शो के पहले सीज़न में काफ़ी सर्वव्यापी है – दामिनी की बोर्डरूम कल्पना डॉ. वारसी (मिलिंद सोमन) के साथ एक बिना किसी वादे से जुड़े, यौन संबंध बनाने के साथ सच होती है, जो “पूरी तरह से उसके बारे में” है, और उमंग अपनी बचपन की सेलिब्रिटी-क्रश समारा कपूर (लिसा रे) के साथ रिश्ते की शुरुआत करती है। मां बनने के बाद अंजना की अपनी यौनिकता की पुनः खोज, उसका अपनी योनी से फिर से जुड़ना, हस्तमैथुन के विफ़ल प्रयास, और अंत में अपने होने वाले प्रेमी अर्जुन (अंकुर राठी) के साथ एक जोखिम भरी पहली सफ़ल मुलाक़ात के बाद यह सब बहुत वास्तविक लगता है और, मुझे यकीन है, कि ये ऐसा ही जीवन जीने वाली दूसरी औरतों के लिए काफ़ी परिचित स्थितियाँ हैं।

सबसे प्रभावशाली कहानी निश्चित रूप से सिद्धि की है। पहले सीज़न की शुरुआत उसकी मां की उसकी शादी करवाने की इच्छा की अनुपालन के साथ होती है और अंत में ख़ुद को बेहतर जानने के लिए वह एक ऐसे व्यक्ति के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार करती है जिसे वह पसंद करती है। समूह का ‘बच्चा‘, सिद्धि, मोटी है, एक ऐसी सच्चाई जो उसकी माँ उसे लगातार याद दिलाती रहती है और उसके उपाय के लिए हर तरह के प्रयास करती रहती है। वह अपनी गहरी असुरक्षाओं को एक खुशमिजाज़ लिबास के नीचे दबा देती है, जो अंततः उसकी मां की लगातार टिपण्णी के कारण उसे उतारना पड़ता है। अपने बारे में अच्छा महसूस करने के एक बेताब प्रयास में, वह एक कामुक वेबसाइट पर ‘बेबीगर्ल‘ की पहचान से लॉग इन करती है। वेबसाइट उपयोग करने वालों से प्रशंसा पाने के लिए, सिद्धि कैमरे से अपना चेहरा छुपाकर, अपने कमरे से लाइव वीडियो करती है। नाटक का यह पहलू उसे अपनी यौनिकता को अपनाने के रास्ते पर ले जाता है – कुछ एपिसोड बाद, हम सिद्धि को यौन रूप से सक्रिय होते हुए देखते हैं। आत्म-दुविधा के बवंडर में फँसना और सोशल मीडिया पर समर्थन के लिए तड़पना शायद ही कोई ऐसी चीज़ है जिससे हममें से कोई अपरिचित रहा हो। अपने शरीर से प्यार करने और अजनबियों से उसकी सराहना के माध्यम से उसे स्वीकार करने की सिद्धि की कोशिशें बहुत वास्तविक हैं – अपने जीवन में पहली बार ‘यौनाकर्षक’ के रूप में देखे जाने पर, वह ख़ुद को आकर्षक मानने लगती है।

यह शो काफी दुर्लभ उपलब्धि भी हासिल करता है – जब से यह शुरू हुआ, इसने राजनीतिक विस्तार के दोनों सिरों के लोगों को शो के खिलाफ़ आक्रोश में एकजुट कर दिया। उदारवादी और रूढ़िवादी और इनके बीच में हर कोई शो की अपनी निंदा में अथक रहा है, उदारवादी इसे बहुत सरल और सतही मानते हैं, जबकि रूढ़िवादी इसे ‘नकली-नारीवाद’ के लेबल से जोड़ते हैं। बहुत सारी आलोचनाएँ निश्चित रूप से मान्य हैं – किरदारों का प्रदर्शन अप्रभावी से लेकर सर्वथा हास्यपूर्ण है, पृष्ठभूमि लगती है जैसे कि ’90 के दशक की हॉलीवुड रूमानी कॉमेडी फ़िल्मों (रोमकॉम) से उठाई गई है, लेखन और पटकथा कहीं-कहीं पर अत्यंत नाटकीय लगती है, डाइलॉग बेहद अकल्पनीय तरीके से पुरुषों और पितृसत्ता की आलोचना करते हैं – और यह सूची काफ़ी लंबी है। इन्हीं अभिनेताओं ने अन्य उपक्रमों में सराहनीय प्रदर्शन दिया है, जिनमें सबसे उल्लेखनीय है अनुभव सिन्हा की आर्टिकल 15 में सयानी गुप्ता का गौरा का किरदार। फिर भी फ़ोर मोर शॉट्स प्लीज़! में जबरन संवाद वितरण देखने को मिलता है, और ज़्यादातर बानी जे. और लिसा रे के उच्च-तनाव वाले दृश्यों, जिनमें गंभीर प्रतिबद्धता की ज़रूरत थी, में अक्सर दर्शक पूरी तरह से जुड़ाव नहीं बना पाते।

हाँलाकि, जो निश्चित रूप से मान्य नहीं है, वह यह कि इस शो को नकली-नारीवादी कहा जा रहा है – यह तर्क, जो दावा करता है कि शो स्वतंत्रता के नाम पर ऐयाशी की वकालत करता है, इसे सेक्स और शराब के ‘दुराचार’ के सीमित नज़रिये से देखता है – यह इसकी उपेक्षा करता है कि इस शो के माध्यम से मुख्यधारा में महत्वपूर्ण बातचीत शुरू करने का मौक़ा मिला है। आलोचकों में से कई जो शो को ज़्यादा सूक्ष्म मानते हैं, वे उस सहानुभूति को देखने में विफ़ल हैं जो ये चार महिलाएं वास्तविक दुनिया में अपने जैसी, विशेष रूप से मध्यम आयु वर्ग की, महिलाओं में पैदा करती हैं। माना कि यह शो शहरी, उच्च-वर्ग और उच्च-जाति की महिलाओं (सामाजिक-राजनीतिक नज़रिये से पूरी तरह से मान्य आलोचना) को चित्रित करता है, लेकिन वे जिन परिस्थितियों से गुज़रती हैं और जिन स्थितियों का वे सामना करती हैं, उनसे ऐसी ही सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की अधिकतम महिलाएँ जुड़ाव महसूस करती हैं। जिस तरह से यह शो बेबाकी से (और इसलिए, ख़ूबसूरती से) दिखाता है कि महिलाएं क्या चाहती हैं और उनकी क्या इच्छाएँ और कल्पनाएँ हैं, ऐसा पहले कभी नहीं दिखाया गया है, और मेरी राय में, जहां तक कि (एक विशेष सामाजिक स्तर की) महिलाओं, उनके जीवन और बड़े पैमाने पर नारीवाद की बात आती है, वहाँ फ़ोर मोर शॉट्स प्लीज़! एक सही दिशा में चलता है – भले ही छोटे, लड़खड़ाते हुए, कदमों से।

सृष्टि गुप्ता ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया और तब से यह समझ गयी हैं कि यह उनके बस की बात नहीं है। वह अब एक स्वतंत्र संपादक के रूप में काम करती हैं, लोकप्रिय संस्कृति के लिए प्रेम रखती हैं, और कभी-कभी पढ़ने, लिखने और पेंटिंग में भी वख़्त गुज़ारती हैं।

निधि अगरवाल द्वारा अनुवादित।

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