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सबसे ख़ूबसूरत बात यह है कि समावेशी दोस्ती समाज में भी बदलाव लाती है। जब दोस्त एक-दूसरे को बिना भेदभाव अपनाते हैं, तो यह उदाहरण बनता है और धीरे-धीरे एक ऐसी संस्कृति का निर्माण होता है जहाँ विविधता को सम्मान और स्वीकार्यता मिलती है।
कुछ साल पहले ही मुझे एहसास हुआ कि जब भी मैं भविष्य के बारे में सोचती हूँ, तो मेरे मन में हमेशा अपनी सबसे करीबी महिला मित्रों की तस्वीर उभरती है। मेरे हर फ़ैसले पर सबसे ज़्यादा असर उन्हीं का पड़ता है…
जबकि सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म भारत में क्वीयर लोगों को जुड़ने, ख़ुद को अभिव्यक्त करने और गैर-अपराधीकरण के बाद समुदाय ख़ोजने के लिए एक मंच प्रदान करते हैं, संबद्धता के विचार अभी भी जाति, वर्ग, सौंदर्यशास्त्र आदि में उलझे हुए हैं जो बहिष्कार को कायम रखते हैं।
जलवायु परिवर्तन का नाम सुनते ही हमारे मन में केवल पर्यावरण और अर्थव्यवस्था का विचार आता है, लेकिन इसका ग़हरा संबंध हमारी मानसिक सेहत और यौनिकता से भी है
जलवायु न्याय की बात करना इस बारे में बात करना है कि कौन सुरक्षित महसूस करेंगे, कौन चुनने का अधिकार पाएंगे, कौन चाहने का अधिकार पाएंगे
सेक्स वर्क को जलवायु परिवर्तन के नज़रिए से कम ही देखा जाता है, लेकिन इस संबंध को समझना ज़रूरी है
हमने सालों में जो हुनर, रिश्तों के जाल और टिके रहने की ताक़त बनाई है, वो सिर्फ़ हाशिए की कहानियाँ नहीं हैं – वो ऐसे औज़ार हैं जिनसे पूरी व्यवस्था सीख सकती है।
सेक्शूऐलिटी और जलवायु परिवर्तन के कारण जलवायु आपदाओं के बीच का रिश्ता भले ही सीधा न दिखाई दे, लेकिन यह बेहद गहरा और महत्वपूर्ण है।
क्या आपने अपनी माँ के साथ ऐसी बातें की हैं, उनके प्यार, चाहत, इच्छा के बारे में कभी बात हुई है? कैसा था आपका अनुभव? मुझे लगता है कि परंपरा, संस्कृति, इज़्ज़त ने मेरे अंदर एक डर बैठा दिया है और मैं अपनी इच्छा के बारे में बात करने के लिए शब्द और जगह दोनों ही ढूंढती रहती हूँ।
कानूनी नियमों और हिंदी भाषा के व्याकरणिक नियमों में एक ऐसी समानता है जो द्विलिंगी ढांचों अर्थात जेंडर बाइनरी में न आने वाले लोगों को बहिष्कृत करती है। कानून की नींव परिभाषाओं पर आधारित होती है।
हम भाषा पर निर्भर करते हैं। “हाँ” का मतलब इजाज़त देना, और “ना” का मतलब मुकरना। आसान और सरल शब्दों में हमें बताया जाए तो सहमति का मतलब इन्हीं दो अल्फ़ाज़ों से आता है। आसान है, है न?
भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, यह पहचान, संबंध और संघर्ष का भी ज़रिया है। भाषा सामाजिक संरचना, पहचान और सत्ता-संबंधों को दर्शाने का भी औज़ार है।
जब मैं इस बात पर विचार करता हूं कि मैंने क्या सक्रिय रूप से दबा दिया था और लगातार भूलने की कोशिश की थी, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने बारे में क्या सोचता हूं, इसे परिभाषित करने में भाषा कितनी ज़रूरी थी। मौखिक दुर्व्यवहार और धौंसियाना बर्ताव ने गैर-मानक व्यवहार, समलैंगिकता और क्वियरनेस के साथ मेरी पहचान बना ली।
किशोरावस्था के दौरान जब हम अपनी यौनिकता से रूबरू हो रहे होते हैं, तब सामाजिक तौर पर हमे बताया गया जेंडर ही निर्धारित करता है कि हम अपनी पहचान कैसे बना रहे हैं जो ज़्यादातर मामलों में हमारी पूरी ज़िन्दगी को प्रभावित करती है।