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एचआइवी / एड्स और कानून

A red-and-white illustration with feminist slogans on it

वालंटरी हेल्थ एसोसिएशन ऑव पंजाब (वीएचएपी) ने जब एचआईवी ग्रस्त लोगों और जिनमें सीडी-4 की संख्या 200 से भी कम हो गयी हो, उनके लिए एंटिरेट्रो वायरल (एआरवी) औषधियां उपलब्ध कराने की खातिर केन्द्र सरकार को निर्देश दिलाने के उद्देश्य से उच्चतम न्यायालय में अनुमति याचिका दाखिल की तब किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि इसकी ऐसी प्रतिक्रिया होगी। याचिका में दक्षिण अफ्रीका के संविधान न्यायालय और दक्षिण अफ्रीकी देशों के उच्चतम न्यायालयों के अनेक फैसलों का हवाला देते हुए बताया गया था कि विभिन्न संविधानों के विभिन्न प्रावधानों के अनुरूप गरीब लोगों को जीवन के अधिकार के तहत एचआईवी के निशुल्क इलाज का हक है। जिस समय यह याचिका दाखिल की गयी थी, उस समय केवल तपेदिक जैसे संक्रमणों के लिए ही दवाइयां उपलब्ध कराने की भारत सरकार की नीति थी। भारत सरकार इस बात पर अड़ी हुई थी कि वह एंटिरेट्रो वायरल (एआरवी) पर धन खर्च नहीं करेगी। पर उच्चतम न्यायालय ने जब केन्द्र सरकार को हलफनामा पेश कर एआरवी उपचार के बारे में अपनी नीति बताने का निर्देश दिया तो सरकार के लिए संकट पैदा हो गया। काफी टालमटोल एवं ना-नुकुर के बाद तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री सुषमा स्वराज ने अचानक यह घोषणा कर दी कि केन्द्रीय नीति बदल गयी है और सरकार एआरवी औषधियां उपलब्ध कराना शुरु कर देगी। इसके बाद सरकार ने एआरवी दवाइयां उपलब्ध कराने का दिखावा किया। नीति में परिवर्तन सिर्फ कागजों पर हुआ है, यह देखकर वीएचएपी ने चंडीगढ़ में एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया जिसमें देश भर से आए एचआइवी संक्रमित लोगों ने अपनी व्यथा सुनाई। विभिन्न राज्यों से जो आंकड़े प्राप्त हुए, वे काफी निराशाजनक थे। इन सब बातों से ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क (एचआरएलएन) इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि सरकार के साथ निरंतर मिलकर काम करना तो जरूरी है ही लेकिन जहां सरकार उपेक्षापूर्ण रवैया अपना रही हो या ध्यान नहीं दे रही हो वहां इलाज के संवैधानिक अधिकार को न्यायपालिका के जरिए लागू कराने की जरूरत है। भारतीय संविधान दुनिया में सबसे अच्छे संविधानों में एक है। यह हमें उन अधिकारों को लागू कराने के लिए उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दायर करने का अवसर प्रदान करता है, जो लोग इतने गरीब हैं या निरक्षर हैं कि खुद अदालतों में नहीं जा सकते। इस तरह सरकारी अस्पतालों में भेदभाव, बच्चों के बहिष्कार, कर्मचारियों को निकालने, अनिवार्य जांच और अपर्याप्त चिकित्सा सेवा जैसी डॉक्टरी सलाह की कमी, जांच और दवाइयों की व्यवस्था आदि मुद्दों पर बड़ी अदालतों मे जाया जा सकता है। एचआरएलएन अपने सहयोगी विधि-वेत्ताओं के साथ यह चाहता है कि इस किताब के जरिए वकीलों, जजों, गैर सरकारी संगठनों, शिक्षाविदों और प्रेस के बीच एचआइवी संक्रमित लोगों में कानूनी अधिकारों के प्रति जागृति पैदा हो।

एचआरएलएन द्वारा विकसित इस किताब ‘एचआइवी / एड्स और कानून’ को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।