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भाषा की ताकत – LGBTQIA+ पहचान और समावेशिता की दिशा में क़दम

A pride flag in the sky

भाषा एक पुल है जो अनुभवों से समाज तक का रास्ता तय करती है। लेकिन जब यह पुल अधूरा हो, या कुछ आवाज़ों के लिए टूट जाए, तो वे आवाज़ें गूंजने से पहले ही खो जाती हैं। क्वीयर समुदाय की पहचान और स्वीकृति की राह में भाषा की यही अधूरी संरचना सबसे बड़ी चुनौती बन जाती है। भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, यह पहचान, संबंध और संघर्ष का भी ज़रिया है।

यह वाक्य उस समाज के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है जहाँ विविध यौनिकताओं और जेंडर पहचानों को अभी भी पूर्ण स्वीकृति नहीं मिली है – क्वीयर समुदाय के संदर्भ में यह बात और भी गहराई से लागू होती है। जब कोई अपने शरीर, इच्छाओं या जेंडर पहचान को लेकर समाज की मुख्यधारा से अलग होते है, तो उन्हें उस भाषा की तलाश होती है जो उन्हें बिना शर्म, भय या हिंसा के ख़ुद को व्यक्त करने दे। यह तलाश न केवल व्यक्तिगत बल्कि राजनीतिक भी होती है।

जब भाषा चुप थी – पहचान का संकट

भारत का सामाजिक ढांचा लंबे समय तक पितृसत्तात्मक, विषमलैंगिक और नैतिकतावादी मूल्यों से संचालित रहा है। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभाव और ब्राह्मणवादी सोच ने मिलकर उन सभी पहचानों को ‘अप्राकृतिक’ करार दिया जो समाज की तथाकथित परंपराओं से मेल नहीं खाती थीं।

इस पृष्ठभूमि में यौनिक और जेंडर विविधताओं के लिए उपयुक्त भाषिक अभिव्यक्तियाँ या तो कभी अस्तित्व में ही नहीं आईं, या फिर वे दबा दी गईं। उदाहरण के लिए, हिंदी में “ट्रांस मैन” के लिए कोई सहज, सम्मानजनक शब्द नहीं है। “लड़का जो पहले लड़की था” कहना न केवल अपूर्ण है बल्कि उस व्यक्ति की पहचान का अपमान भी है।

इसी तरह “नॉन-बाइनरी”, “एसेक्सुअल”, “जेंडरक्वीयर” जैसे शब्दों के लिए हिंदी में ऐसे शब्द नहीं हैं जो न केवल सही अर्थ दें, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में भी स्वीकार्य हों। इस कमी ने अनेक LGBTQIA+ लोगों को चुप्पी, शर्म और भ्रम के घेरे में धकेल दिया है।

नई शब्दावली की रचना – आत्म-स्वीकृति से समाज तक

इस भाषिक शून्यता को क्वीयर समुदाय ने निष्क्रिय होकर स्वीकार नहीं किया। इसके विपरीत, उन्होंने अपने अनुभवों, संघर्षों और सांस्कृतिक ज़रूरतों के आधार पर एक नई भाषा गढ़नी शुरू की; एक ऐसी भाषा जो जीवंत, समावेशी और सशक्त ह

सामुदायिक भाषाएँ और प्रतीक

भारत में हिजड़ा समुदाय बहुत पुराना है और यह सैकड़ों सालों से हमारे समाज का हिस्सा रहा है। इस समुदाय ने अपनी एक खास भाषा, पहचान के तरीक़े और सामाजिक नियम बनाए हैं, जो उन्हें एक-दूसरे से जोड़ते हैं।

उदाहरण के लिए, इस समुदाय में “गुरु-चेला” की परंपरा होती है। यानी एक अनुभवी हिजड़ा को गुरु माना जाता है और वह नए सदस्य को चेला बनाकर उसकी देखरेख करते है। “डेरा” उस जगह को कहते हैं जहाँ हिजड़ा लोग एक साथ रहते हैं – ये उनका घर और परिवार जैसा होता है। “टोकरा” दान को कहते हैं, जिसे वे आशीर्वाद देकर लोगों से प्राप्त करते हैं। “निरवानी” का मतलब है वह समय जब कोई हिजड़ा अपना अंतिम रूप अपनाते है – यह उनके जीवन में बहुत खास माना जाता है।

डिजिटल युग का असर

इंटरनेट और सोशल मीडिया ने LGBTQIA+ लोगों को वैश्विक समुदाय से जोड़ने का काम किया। अब युवा इंस्टाग्राम, यूट्यूब और ब्लॉग्स के ज़रिए “क्वीयर”, “पैनसेक्शुअल”, “एरोमेंटिक”, “जेंडरफ्लुइड” जैसे शब्दों से परिचित हो रहे हैं। हालांकि ये शब्द अंग्रेजी में हैं, फिर भी उन्होंने हिंदी भाषी युवाओं को आत्म-अभिव्यक्ति का नया माध्यम दिया है।

अकादमिक और सामाजिक सक्रियता

पिछले एक दशक में अनेक समाजशास्त्री, जेंडर एक्टिविस्ट और लेखक हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में इन शब्दों का अनुवाद और नव-निर्माण कर रहे हैं। जैसे -“जेंडर पहचान”, “यौनिक रुझान”, “लैंगिक विविधता”, “स्व-पहचान” आदि शब्द अब अनेक शैक्षणिक और सामाजिक दस्तावेज़ों में शामिल किए जा रहे हैं।

हिंदी में शब्दों की कमी – प्रभाव और चुनौती

पहचान की अस्पष्टता

जब कोई अपने जेंडर को “नॉन-बाइनरी” मानते है, लेकिन हिंदी में इसके लिए कोई सहज और सम्मानजनक शब्द नहीं मिलता, तो वे या तो चुप हो जाते है या ख़ुद को ‘गलत’ समझने लगते है। यह भ्रम मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है।

भाषा में भेदभाव

हिंदी सहित कई भारतीय भाषाओं में “हिजड़ा”, “छक्का”, “मूक्का” जैसे शब्दों को अपमानजनक रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जब भाषा खुद गाली बन जाए, तो वह क्वीयर समुदाय के लोगों की गरिमा को छिन्न-भिन्न कर देती है।

मीडिया में गलत प्रतिनिधित्व

टीवी धारावाहिकों, फ़िल्मो और समाचारों में LGBTQIA+ लोगों को अक्सर मज़ाक, भ्रम या बीमारी के रूप में दिखाया जाता है। “समलैंगिक प्रवृत्ति”, “विकृति”, या “पश्चिमी प्रभाव” जैसे शब्द आम हो गए हैं, जो समाज में ग़लत धारणाओं और हिंसा को बढ़ावा देते हैं।

आगे की राह – क्या ज़रूरी है?

भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना, पहचान और सत्ता-संबंधों को दर्शाने का भी औज़ार है। जब हम LGBTQIA+ समुदाय की बात करते हैं, तो स्पष्ट होता है कि भाषा के ज़रिए उन्हें स्वीकार्यता, सम्मान और जगह मिलती है – लेकिन जब भाषा में भेदभाव और संकीर्णता हो, तो यही शब्द समुदाय के लिए अपमान, अस्वीकार और बहिष्कार का कारण बनते हैं। इसलिए भविष्य में एक अधिक न्यायपूर्ण और समावेशी समाज की दिशा में हम जिन ठोस कदमों की अपेक्षा कर सकते हैं, वे निम्नलिखित हैं।

समावेशी शब्दों का विकास और प्रशिक्षण

क्वीयर समुदाय से जुड़े लोगों को अक्सर ऐसी संस्थाओं से दो-चार होना पड़ता है जहाँ उनकी पहचान को समझा नहीं जाता जैसे स्कूलों में छात्रों के लिए, अस्पतालों में मरीज़ों के लिए या किसी सरकारी कार्यालय में आवेदन करते वक़्त। इन सभी जगहों पर जब भाषा LGBTQIA+ समावेशी नहीं होती, तो वह कुछ लोगों को अदृश्य कर देती है या ग़लत पहचान में डाल देती है।

इसलिए ज़रूरी है कि शैक्षिक संस्थानों, स्वास्थ्य सेवाओं, सरकारी विभागों, पुलिस प्रशासन और न्याय व्यवस्था में कार्यरत लोगों को समावेशी भाषा और जेंडर-यौनिकता की विविधताओं पर नियमित प्रशिक्षण दिया जाए। उदाहरण के लिए, केवल ‘थर्ड जेंडर’ कह देना पर्याप्त नहीं – हमें यह समझने की ज़रूरत है कि हर ट्रांसजेंडर व्यक्ति थर्ड जेंडर नहीं होता, और हर कोई जो नॉन-बाइनरी है, उन को किसी पुरुष या स्त्री वर्ग में डालना ग़लत हो सकता है।

ट्रेनिंग का एक उद्देश्य यह भी होना चाहिए कि लोग केवल ‘सही शब्द’ रटें नहीं, बल्कि उनके पीछे की संवेदना और सामाजिक महत्व को समझें। जब कोई डॉक्टर या शिक्षक किसी ट्रांस व्यक्ति से उनके चुने गए सर्वनाम (‘he’, ‘she’, ‘they’, ‘ze’ आदि) से बात करते है, तो वह सिर्फ़ भाषा नहीं बदलते – वे संबंधों में गरिमा जोड़ते है।

मीडिया गाइडलाइंस बनाना

मीडिया चाहे वह समाचार पत्र हों, टेलीविज़न हो, वेब सीरीज़ या सोशल मीडिया हो, समाज के सोचने के ढंग को आकार देता है। इसलिए जब मीडिया में LGBTQIA+ समुदाय को ग़लत ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, या उनके लिए असंवेदनशील शब्दों का प्रयोग होता है, तो यह समाज में और अधिक पूर्वग्रह और भेदभाव को जन्म देता है।

आवश्यक है कि भारत में मीडिया संगठनों द्वारा LGBTQIA+ के लिए स्पष्ट भाषा नीति और गाइडलाइंस तैयार की जाएं। जैसे, ‘हिजड़ा’ को गाली के रूप में इस्तेमाल करना बंद हो, ट्रांसजेंडर लोगों को उनके चुने गए नाम और सर्वनाम से संबोधित किया जाए, और समलैंगिकता को ‘बीमारी’ या ‘पश्चिमी प्रभाव’ कहने से बचा जाए।

हालांकि LGBTQ+ समुदाय की प्रतिनिधित्व को बेहतर बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास हो रहे हैं, लेकिन ये अभी भी सीमित स्तर पर हैं और व्यापक बदलाव की आवश्यकता है। उदाहरण के तौर पर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर GLAAD जैसी संस्थाएं मीडिया को ऐसे मार्गदर्शन प्रदान करती हैं। और भारत में नवंबर 2022 में पत्रकार अंकुर पॉलिवाल ने queerbeat लॉन्च किया, एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म जो भारतीय क्वीयर समुदाय की विविध और गहराई से जुड़ी कहानियों को सामने लाता है, जैसे बुज़ुर्ग क्वीयर लोगों की समस्याएँ या धर्म-पृष्ठभूमि के भीतर संघर्ष। इसके अलावा, The News Minute, Queer Chennai Chronicles और क्वीयरबीट के सहयोग से Inqlusive Newsrooms जैसी पहलों के अंतर्गत छह भाषाओं में पत्रकारों को LGBTQ+-सुरक्षित भाषा सीखने और कहानियाँ लिखने का प्रशिक्षण दिया गया। फिर भी, मुख्यधारा के मीडिया में ये नैरेटिव अभी भी अल्पसंख्यक हैं और इसके विस्तार में कई चुनौतियाँ, जैसे स्टाइल गाइड और ब्रांड विज्ञापनों में समावेशी दृष्टिकोण की कमी हैं।
ज़रूरत है कि इन प्रयासों को लोकल टीवी, समाचारपत्रों, विज्ञापनों और ब्रांड कैंपेन जैसे तमाम क्षेत्रों तक फैलाया जाए, ताकि सच्चा बदलाव और समावेशी मीडिया निर्माण संभव हो सके। भारत में भी यह आवश्यक है कि पत्रकारिता और फ़िल्म जगत में काम कर रहे लोग क्वीयर संवेदनशील भाषा और प्रस्तुति पर कार्यशालाओं, कोड ऑफ कंडक्ट और गाइडबुक्स के ज़रिए प्रशिक्षित किए जाएं।

समुदाय-केंद्रित अनुवाद

शब्दावली केवल शब्दों का समूह नहीं होती – वह अनुभवों, संघर्षों और भावनाओं की नकल होती है। इसलिए LGBTQIA+ शब्दों का अनुवाद करते समय यह आवश्यक है कि वे शब्द समुदाय के भीतर से निकलें, न कि बाहर से थोपे जाएं।

LGBTQ+ समुदाय की बेहतर प्रतिप्रतिनिधित्व की दिशा में विश्व स्तर पर कदम उठाए जा रहे हैं, और भारत में भी समावेशी पहल जोड़-तोड़ कर बढ़ रही हैं। उदाहरण के तौर पर, एनुअल प्लेटफ़ॉर्म क्वीयरबीट के अलावा, चेन्नई की सक्रिय संस्था Orinam ने तमिल भाषा में समझ और संवेदनशीलता बढ़ाने हेतु कई पहलें की हैं। इसमें 2022 में तमिलनाडु सरकारी गज़ट में LGBTQIA+ के तमिल-अंग्रेज़ी शब्दकोश का प्रकाशन शामिल है, जो Orinam, Queer Chennai Chronicles और The News Minute के सहयोग से तैयार किया गया, जिससे मीडिया और सरकार दोनों में सटीक और सम्मानजनक भाषा का उपयोग बढ़ा। इसके अलावा Orinam द्वारा आयोजित कविता-सम्मेलन “Quilt” व “Reel Desires” क्वीयर फ़िल्म महोत्सव जैसे कार्यक्रमों ने तमिल भाषी क्वीयर लोगों को सांस्कृतिक और कलात्मक मंच प्रदान किए।

जब कोई शब्द केवल अकादमिक या सरकारी प्रक्रिया के तहत बिना सामुदायिक भागीदारी के बनाया जाता है, तो वह ज़मीनी लोगों से नहीं जुड़ता। उदाहरण के लिए, अगर ‘जेंडरक्वीयर’ शब्द का अनुवाद करते हुए बिना परामर्श लिए कोई शब्द बना दिया जाए, तो वह शब्द लोगों की पहचान का हिस्सा नहीं बन पाएगा। इसके बजाय, जब ट्रांस, नॉन-बाइनरी, इंटरसेक्स, लेस्बियन और अन्य लोग स्वयं बैठकर यह तय करें कि वे ख़ुद को किन शब्दों से सहज महसूस करते हैं, तभी उस भाषा में सच्चा प्रतिनिधित्व संभव है।

यह प्रक्रिया समय लेती है, लेकिन यही टिकाऊ और सम्मानजनक रास्ता है। अनुवाद केवल शब्दों का नहीं, दृष्टिकोण का होना चाहिए।

बहुभाषिक समावेश

भारत एक बहुभाषी देश है जहाँ सैकड़ों भाषाएं और बोलियाँ बोली जाती हैं। जब समावेशी भाषा की बात होती है, तो अक्सर प्रयास केवल हिंदी या अंग्रेज़ी तक सीमित रह जाते हैं। लेकिन LGBTQIA+ लोग हर भाषा-भाषी समाज में मौजूद हैं – पंजाबी, बंगाली, तमिल, मलयालम, मराठी, उर्दू, तेलुगू, कश्मीरी, भोजपुरी, संथाली – हर कोई।

इसलिए समावेशी शब्दावली का निर्माण केवल राष्ट्रीय भाषाओं में नहीं, बल्कि क्षेत्रीय और आदिवासी भाषाओं में भी होना चाहिए। इसका मतलब यह है कि हर भाषा में स्थानीय सन्दर्भों और सांस्कृतिक धारणाओं के आधार पर ऐसे शब्द विकसित किए जाएं जो समुदाय को सम्मान, स्वीकृति और अभिव्यक्ति दे सकें।

इसके लिए स्थानीय LGBTQIA+ संगठनों, भाषाविदों, और लेखकों को एक साथ आकर काम करना होगा। जब कोई जिनकी पहचान नॉन-बाइनरी है, तमिल या कोंकणी में अपने लिए सम्मानजनक सर्वनाम पा सकेंगे, तभी हम भाषा की असल समावेशिता की बात कर पाएंगे।

भाषा कोई तटस्थ या न्यूट्रल माध्यम नहीं है। LGBTQIA+ समुदाय के लिए भाषा को अधिक समावेशी बनाना केवल सामाजिक न्याय की दिशा में एक कदम नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रतीक भी है। जब हम शब्दों को बदलते हैं, तब हम दृष्टिकोण भी बदलते हैं और यही सामाजिक बदलाव की सबसे प्रभावशाली शुरुआत होती है। भाषा सिर्फ एक माध्यम नहीं, बल्कि वह स्थान है जहां हमारी पहचान, संघर्ष और संभावनाएं आकार लेती हैं। क्वीयर समुदाय ने इस भाषा को दर्द, आशा और आत्म-स्वीकृति से गढ़ा है। यह प्रक्रिया जारी है कभी आसान नहीं रही, लेकिन ज़रूरी है।

हमें एक ऐसे समाज की ओर बढ़ना है जहां हर किसी को यह कहने की आज़ादी हो “हम हैं, जैसे हैं, वैसा कहने का हमें हक़ है – अपनी भाषा में, अपनी पहचान में”।

Cover image by Sophie Popplewell on Unsplash