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ख़ूबसूरती विरोधाभास में बसती है

Picture of a make-up palette with various colours on it

मुझे लगता है हर बच्चा (चाहे किसी भी जेंडर का हो) कभी न कभी आईने के सामने खड़े होकर मेकअप के सामान से खेलता हुआ नज़र आता है। मैंने ख़ुद ही कई बार ऐसा किया है जिसका नतीजा फ़र्श पर पड़ी टूटी हुई लिप्स्टिक के रूप में दिखता था। हर बार मुझे महंगे इंपोर्टेड मेकअप ख़राब करने के लिए सज़ा मिलती थी, और आज बीस साल बाद जब मैं इसके बारे में सोचती हूं तो मन में ये सवाल आता है कि बच्चे ऐसा क्यों करते हैं? क्या ये घर की औरतों की नकल करने की कोशिश है? क्या उन्हें ‘कलरिंग बुक’ की तरह अपने आप को रंगने में मज़ा आता है? या वजह कुछ और ही है? मैं मनोविश्लेषक नहीं हूं तो इन सवालों के जवाब मेरे पास नहीं हैं, लेकिन मैं एक नारीवादी ज़रूर हूं जो समझने की कोशिश कर रही है कि ख़ूबसूरती और यौनिकता के बारे में उसके विचार क्या हैं।

औरतों को हमेशा से पता होता है कि ख़ूबसूरती नाम की एक चीज़ होती है जिसके कुछ निर्धारित पैमाने होते हैं। मीडिया शारीरिक सुंदरता के इन नियमों का प्रचार करती है और ख़ासतौर पर विषमलैंगिक औरतों को इन पर अमल करने के लिए मजबूर करते हुए उपभोक्तावाद की संस्कृति का निर्माण करती है। लेकिन मैं उपभोक्तावाद, पूंजीवाद, नव-उदारवाद और औरतों पर इनके प्रभाव के बारे में बात नहीं करने वाली। ये सब बातें कभी और करेंगे। मुझे जिस बात से हैरानी और परेशानी होती है और जिस पर हंसी भी आती है वो ये है कि ख़ूबसूरती के बारे में ख़्यालों और यौनिकता के चित्रण में पिछले कई सालों में काफ़ी बदलाव आया है लेकिन आज भी औरतें इनमें अपने आप को नहीं देख पा रहीं। इसकी वजह ये हो सकती है कि हमें हमेशा मुद्दों को एक द्विआधारी नज़रिये से देखना सिखाया जाता है। एक तरफ़ ख़ूबसूरती को आमतौर पर एक ‘आदर्श औरत’ की पहचान के तौर पर देखा जा सकता है, वहीं दूसरी ओर हमें सिखाया जाता है कि नारीवादी होने के लिए ख़ूबसूरती और हमारे लिए इसके मायने को नकार देना ज़रूरी है, जबकि ऐसा नहीं है। सोशल मीडिया पर ही मैंने कई दबंग नारीवादी औरतों को देखा है जो अपने लिपस्टिक में रंगे होंठों की तस्वीरें डालतीं हैं और मुझे बताती रहतीं हैं कि उन्होंने अपनी मनपसंद लिपस्टिक के कौन-कौन से नए शेड ट्राई किये। मुझे इन से प्रेरणा मिलतीं हैं। मेरी ज़िंदगी जब अंधेरे से गुज़र रही होती है तब यही औरतें उसमें रोशनी ला देतीं हैं। मैं लिपस्टिक लगाती हूं तो मुझे कवयित्री माया एंजेलू की ‘फ़ेनोमेनल वुमन’ जैसा महसूस होता है, और ध्यान रहे कि लिपस्टिक मेरे बढ़ते आत्मविश्वास की इकलौती वजह नहीं बल्कि उसे व्यक्त करना का महज़ एक तरीक़ा है।

आप में से कुछ लोगों को इस बात से ऐतराज़ होगा कि मैं नारीत्व की बात सिर्फ़ मेकअप और उन पदार्थवादी कारकों के ज़रिए कर रही हूं जो ‘ख़ूबसूरती’ निर्धारित करते हैं। ये सच है कि मैं ऐसा कर रही हूं लेकिन इसकी कुछ वजहें हैं। पहली बात तो ये है कि औरतों को सिर्फ़ ‘शरीर’ समझा जाता है। हम पर जेंडर-आधारित भूमिकाएं और पहचान थोप दी जातीं हैं और ये उम्मीद की जाती है कि हम अपने शरीर पर इन्हें धारण करें। ‘नारीत्व’ से जुड़ी उम्मीदों का हमारे शरीर के साथ क्या रिश्ता है ये मैं अनदेखा नहीं कर सकती। दूसरी बात ये है कि माया एंजेलू, नेओमी वुल्फ़, जेसिका वैलेंटी, और चिमामांडा न्गोज़ी अडीचे जैसे दिग्गज ख़ूबसूरती और यौनिकता के मुद्दों की चर्चा में अपने बेहतरीन योगदान दे चुके हैं, और मैं उनके तर्कों को यहां दोहराना नहीं चाहती। मैं सिर्फ़ मेकअप और बाहरी दिखावट के संदर्भ में ख़ूबसूरती और यौनिकता पर बात करना चाहती हूं क्योंकि मेरी एक 16 साल की बहन है जिसके व्यक्तित्व और जिसकी यौनिकता की अभिव्यक्ति मुझे ख़ूबसूरती के बारे में अपने विचारों पर ही नहीं बल्कि अपने नारीवाद पर विश्लेषण करने के लिए भी मजबूर करती है।

बहुत ही दुःख और दर्द होता है जब ख़ुद को नारीवादी कहने के बावजूद हम किसी और की ज़िंदगी में एक दकियानूसी पितृसत्ता के समर्थक भूमिका निभाने लगते हैं – जो भूमिका निभाने वालों से हम ख़ुद लड़ चुके हैं। हम जिन तर्कों और विचारों का समर्थन करते आ रहे होते हैं, अगर अचानक ऐसा लगने लगे कि वे काफ़ी नहीं हैं तो हम क्या कर सकते हैं? हमें लगने लगता है कि हम द्वंद्व, विरोधाभास, और पाखंड के जाल में फंसते जा रहे हैं और नारीवाद पर ऐसी कोई किताब नहीं है जो हमें इस पल के लिए तैयार कर सके। इस लेख के ज़रिए मैं इस बात पर थोड़ा ग़ौर करना चाहती हूं कि हमें अपने से कम उम्र की औरतों और लड़कियों के साथ ख़ूबसूरती और यौनिकता के मुद्दों पर कैसे बात करनी चाहिए। ख़ूबसूरती की परिकल्पना अगर एक मिथक है तो इसे नकारने का तरीक़ा भी ग़लत है। हम सब अलग-अलग तरीक़ों से इसे समझते हैं लेकिन सवाल ये है कि शुरुआत कहां से होती है?

मेरी बहन रमोना 16 साल की है और मुझसे 12 साल छोटी है। मैं उसके लिए एक मां से कम नहीं हूं। मैंने उसके डायपर बदले हैं और उसे डकारें दिलवाई हैं, और बड़े होने पर उसके स्कूल की पेरेंट-टीचर मीटिंग्स में भी मैं ही गई हूं। मैंने ही उसे उसका पहला लिप बाम ख़रीदकर दिया और उसके कान छिदवाए। वो बच्ची थी तो उसे नारीत्व, यौनिकता, ख़ूबसूरती, मेकअप, जेंडर-आधारित भूमिकाओं पर मेरे ख़्यालात के बारे में पता नहीं था। वो बस मेरी गुड़िया थी और वैसे ही ख़ुश थी। लेकिन उसके बड़े होते-होते हमारे रिश्ते में भी बदलाव आने लगे हैं।

ख़ूबसूरती से रमोना का रिश्ता मेरे रिश्ते से बिलकुल अलग था। मुझे कभी मुंहासे नहीं आए और उसके चेहरे पर 10 साल की उम्र से ही आने लगे थे। मां-बाप, रिश्तेदार, दोस्त, और अनजान लोग भी उसे उसकी त्वचा ख़राब होने के लिए बुरा महसूस करवाते थे। उसे उन लड़कियों के साथ रहना अजीब लगता था जिनकी साफ़ त्वचा पर निखार था। उसे अक्सर महसूस करवाया जाता था कि वो सुंदर नहीं है। फिर एक सुबह वो स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी तो मैंने उसे मेकअप करते हुए देखा। वो मेरे ही पुराने स्कूल में पढ़ती थी और मैं तो स्कूल जाने से पहले चेहरे पर क्रीम के अलावा कुछ भी नहीं लगाती थी। मैंने उससे पूछा कि वो मेकअप क्यों कर रही है तो उसने कहा कि उसके चेहरे पर धब्बे हैं और त्वचा साफ़ नहीं है इसलिए। “अरे, स्कूल में इन सब चीज़ों से किसे फ़र्क़ पड़ेगा?” मैंने पूछा। उसने जवाब दिया, “तुम नहीं समझोगी” और निकल गई।

हां, मैं नहीं समझ पा रही थी और मैं हैरान थी। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि एक 13 साल की बच्ची को स्कूल जाने के लिए फ़ाउंडेशन और फ़ेस पाउडर लगाने की क्या ज़रूरत हो सकती है?

कुछ समय बाद वो शॉपिंग जाने के लिए तैयार हो रही थी तो मैंने उसे मेकअप करते देखा। इस बार मैंने उसे ताने मार दिए। मैंने कहा कि वो ख़ूबसूरत दिखने के लिए कितनी पागल है और ये कितनी शर्म की बात है, और वो मुझे आंख दिखाकर चली गई। आज जब वो 16 साल की हो गई है, ऐसा एक भी दिन नहीं जाता जब वो मेकअप नहीं करती। उसके लिए मेकअप करना मेरे लिए हर रोज़ डायरी लिखने जैसी ही आम बात हो गई है।

कुछ महीने पहले वो मुझसे मिलने आई थी और मैं युनिवर्सिटी जाने के लिए तैयार हो रही थी। मैंने एक ब्राईट शेड वाली लिपस्टिक निकालकर अपने होंठों पर लगाई और उसने मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा, “अब तुम क्यों ख़ूबसूरत दिखने की कोशिश करना बंद नहीं करती?”

मैंने उसे देखा और फिर आईने में देखा। क्या मैं सचमुच उसके सामने ‘ख़ूबसूरत दिखने की कोशिश करने’ का उदाहरण पेश कर रही थी? क्या ये दोगलापन था? मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या कहूं। वो एक जवान लड़की है जिसे दोस्तों और लड़कों का ध्यान आकर्षित करना पसंद है पर जो अपने परिवार के साथ ज़्यादा सहज नहीं है। मेकअप से जुड़े अपने वैचारिक और राजनीतिक ख़्यालों के बारे में मैं उसे कैसे समझाती? क्या वो ये समझ भी पाती कि ये एक राजनीतिक मुद्दा क्यों है? मुझे देर भी हो रही थी और मुझे पता भी नहीं चला कि मैंने कब उसे कह दिया, “तू नहीं समझेगी।”

रास्ते में भी मैं हमारी बातचीत के बारे में सोचती रह गई। क्या मेरे राजनीतिक विचारों और उसके रोज़ के अनुभवों के बीच कोई समझौता मुमकिन नहीं है? ऐसा क्यों लगता है कि हम दोनों की ज़िंदगी के मुद्दों का आपस में कोई संबंध नहीं हो सकता? क्या मैं उस पर अपने विचार थोप रही हूं? क्या हम नारीवादी यही करते आए हैं? क्या हम अपने विचार तय कर लेने के बाद ये उम्मीद करते आए हैं कि औरतों की अगली पीढ़ी बिना सवाल पूछे इन्हें क़ुबूल कर लेगी? दूसरों के लिए शायद ऐसा नहीं है लेकिन मैं देख रही थी कि मैं ऐसा ही कर रही थी।

उसी दिन मैं रमोना को कॉफ़ी पिलाने ले गई, घर और घर की ज़िम्मेदारियों से दूर। मैंने उससे पूछा, “तू मेकअप क्यों करती है?” उसने मुझे आंखें दिखा दी और कहा, “अब तुम फिर से मत शुरु हो जाना!” मैंने कहा, “इस पर बात करना हमारे लिए ज़रूरी है क्योंकि हम दोनों ही मेकअप का इस्तेमाल करते हैं, चाहे इसके पीछे हमारी वजहें अलग क्यों न हों।” उसने पूछा, “क्या सच में ये ज़रूरी है?”

“हां,” मैंने कहा, “क्योंकि इसके पीछे लंबा इतिहास है।”

उसने पूछा, “किसी को क्या ही पता चलेगा?”

“वही तो!” मैं बोल उठी। “वही तो मैं कह रही हूं। लोग क्या कहेंगे और क्या सोचेंगे इससे हमें फ़र्क़ ही नहीं पड़ना चाहिए। अगर पड़ता भी है, तो हमें अपनी प्रतिक्रिया पर ग़ौर करना चाहिए। हम क्या करते हैं और क्यों इसके ज़िम्मेदार सिर्फ़ हम हैं, हालांकि मैं समझ सकती हूं कि दूसरों के हिसाब से चलने का दबाव झेलना मुश्किल हो सकता है।”

उसने कुछ देर मेरी तरफ़ देखा, फिर कहा, “मुझे मेकअप करना इसलिए पसंद है क्योंकि इससे मेरे चेहरे पर निखार आ जाता है। मेरे मुंहासे ढक जाते हैं। लोग मुझे घूरते नहीं हैं और मुझे लगता है कि मैं दूसरों से अलग नहीं हूं और मुझे कोई बीमारी नहीं है। मुझे पता है कि मेरी शक्ल की वजह से लोग मेरे पीठ-पीछे मुझ पर हंसते थे। मेकअप करने के बाद मैं काली भी नहीं लगती।”

उसकी बातें मेरे दिल को चीरने लगीं और मुझे याद आया कि सातवीं और आठवीं क्लास में लोग मुझे भी बदसूरत कहकर चिढ़ाया करते थे क्योंकि मैं काली थी, मेरा क़द छोटा था, और मेरे स्तन नहीं आए थे।

मैंने उसका हाथ पकड़कर कहा, “तू जो कह रही है मैं उसे पूरी तरह से महसूस कर सकती हूं। स्कूल में लंबे समय तक मुझे भी लोग बदसूरत कहा करते थे। लेकिन ये याद रखना ज़रूरी है कि औरतों की ख़ूबसूरती के पैमाने समाज ही तय करता है और इन्हें इस तरह बदलता रहता है कि हम कभी उन पर खरा उतर ही न पाएं। आज तुझे लगता है कि तू चेहरे पर फ़ाउंडेशन लगाएगी तभी तेरे दोस्त तुझे पसंद करेंगे, लेकिन कल तुझे लग सकता है कि तेरे शरीर के किसी और हिस्से में कोई कमी है और फिर तू उसे बदलना चाहेगी, और ये सिलसिला कभी ख़त्म नहीं होगा। ऊपर से, हम गोरेपन के पीछे भागते हैं अपनी रंगभेदी सोच की वजह से जो फ़िरंगी शासन के ज़माने से बदली नहीं है। ज़रा सोच, तू गोरी क्यों लगना चाहती है? इसीलिए न, क्योंकि बचपन से तूने यही सीखा है कि गोरा रंग अच्छा है और काला रंग बुरा? फ़िल्मों, मीडिया, घरवालों, दोस्तों से हमें हमेशा यही सीख मिली है। ये कितनी अजीब बात है क्योंकि दुनियाभर में लोगों की त्वचा के अलग-अलग रंग होते हैं और वे सभी ख़ूबसूरत लगते हैं!”

मैं कहती रही, “मैं तुझे मेकअप करने से मना नहीं कर रही हूं। मैं मानती हूं कि काजल या लिपस्टिक का कोई प्यारा-सा रंग लगाने से दिल ख़ुश हो उठता है। लेकिन क्या तू इनका इस्तेमाल इसलिए करती है क्योंकि तुझे अच्छा लगता है या लोग तुझे पसंद करें इसलिए? मैं समझती हूं कि इस उम्र में हम सब यही चाहते हैं कि लोग हमें पसंद करें और उनकी नज़र में आना बिलकुल आसान नहीं है, लेकिन तुझे एक दिन पता चलेगा कि हम सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत तभी लगते हैं जब हम सहज होते हैं। जब हम अंदर से महफ़ूज और बेख़ौफ़ महसूस करते हैं। आज सुबह तूने मुझसे पूछा कि मैं लिपस्टिक क्यों लगाती हूं और मैंने तुझे नज़रअंदाज़ कर दिया, लेकिन मैं कहना चाहती थी कि लिपस्टिक मुझे सहज महसूस करवाती है। मुझे ब्राईट लिपस्टिक लगाना अच्छा लगता है और मैं ये बिलकुल नहीं कह रही कि ख़ूबसूरती के सामाजिक पैमानों का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ है। हम सभी कुछ हद तक इन पैमानों पर ख़ुद को बिठाने की कोशिश करते रहते हैं ताकि हम लोगों को पसंद आएं।

“लेकिन हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कई औरतों के लिए ख़ूबसूरती के पैमानों के हिसाब से चलना, ख़ासकर मर्दों की ख़ुशी के लिए, किसी संघर्ष से कम नहीं है। उन पर बहुत ज़्यादा दबाव रहता है। कई बार वे बिना सोचे-समझे ही ऐसा करतीं हैं क्योंकि बचपन से उन्हें एक ‘आदर्श औरत’ होने का पाठ पढ़ाया गया है। कई बार मुझे ही लोगों ने औरत मानने से इनकार किया है क्योंकि मैं ख़ूबसूरती से जुड़े सभी नियमों का पालन नहीं करती। हमें ये याद रखना चाहिए कि वे औरतें भी ख़ूबसूरत हैं जो मेकअप नहीं करतीं। हमें उनका मज़ाक उड़ाने का कोई हक़ नहीं, ठीक उसी तरह जैसे हमें उन औरतों को ‘झल्ली’ या ‘बेवक़ूफ़’ कहकर चिढ़ाने का हक़ नहीं है, जो मेकअप करतीं हैं। हमारी आदत है हर छोटी बात के लिए औरतों को टोकना जहां सिस-जेंडर (यानी जो ट्रांसजेंडर नहीं हैं) मर्दों को कोई कभी कुछ नहीं कहता और वे जो भी उनका मन चाहे वो करने के लिए आज़ाद होते हैं।

“मैं इतना बड़ा भाषण तुम्हें मेकअप करने से रोकने के लिए नहीं दे रही। मेकअप ज़रूर करो, लेकिन इसके पीछे के कारणों को समझो और हम बाहर से कैसे दिखते हैं इसे इतनी अहमियत क्यों दी जाती है इसके बारे में सोचो। हम अपने विचारों और मूल्यों पर अमल करने की कोशिश तो करते हैं लेकिन कई बार ऐसी चीज़ें करते हैं जो हमारे विचारों से मिलते नहीं हैं। इसी तरह हमें अपनी ज़िंदगी में कई विरोधाभास नज़र आने लगते हैं। जैसे कि, हम अक्सर औरतों और ख़ासकर नारीवादी औरतों को नीची नज़र से देखते हैं अगर वे मेकअप करतीं हों या सिंदूर लगातीं हों जबकि हमें पता है कि उनके बारे में ये सोच रखना ग़लत है। हमें पता होता है कि क्या सही और क्या ग़लत है लेकिन फिर भी हम अक्सर वही चीज़ कर बैठते हैं जो हमें सही नहीं लगती। इस विरोधाभास के साथ जीना सीखना ज़िंदगी का ही एक हिस्सा है और ये सामाजिक नाइंसाफ़ी और ग़ैर-बराबरी से हमें वाक़िफ़ करवाता रहता है। हमें इस विरोधाभास को पहचानना सीखना चाहिए ताकि हम ख़ुद को याद दिला सकें कि हमें थोड़ा और संवेदनशील होने की ज़रूरत है, सिर्फ़ नारीवादी हैं इसीलिए नहीं बल्कि इंसान होने के नाते।”

कुछ देर बाद रमोना ने मेरी तरफ़ देखा और कहा, “बात तो सही है लेकिन ये बताओ, मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं मेकअप अपने लिए कर रही हूं या किसी लड़के के लिए? मैं लड़कों के लिए नहीं सजती बल्कि अपनी दोस्तों के सामने अच्छी लगने के लिए सजती हूं। वे मेकअप करतीं हैं, अपने बालों को संवारतीं हैं, और फ़ैशनेबल कपड़े पहनतीं हैं। वे पॉप्युलर हैं और उन्हें सब पसंद करते हैं। कुछ ख़ास है उनमें।”

शायद थोड़ी निराशा से ही मैंने कहा, “हां, मगर शायद उन्हें ये नहीं पता कि वे ख़ुद को एक सांचे में ढालने की कोशिश क्यों कर रहीं हैं। वे ख़ूबसूरती से जुड़े उन्हीं नियमों का पालन कर रहीं हैं जो कुछ विशेषाधिकार-प्राप्त मर्दों ने इस आधार पर तय किए हैं कि वे औरतों को कैसे देखना पसंद करेंगे। लेकिन तुम ये याद रखना कि कोई भी ख़ूबसूरत हो सकता है। ख़ूबसूरती हमारे अंदर से झलकती है। मर्दों को तो उनके व्यक्तित्व के हिसाब से ही पसंद या नापसंद किया जाता है।”

रमोना ने कहा, “शायद तुम जो कह रही हो वो सही है और इसे समझने के लिए मुझे थोड़ा और बड़ा होना पड़ेगा। ये तुम अभी समझने लगी हो और धीरे-धीरे मुझे भी इन चीज़ों का एहसास होगा, है न?”

हां, उसे होगा। ज़रूर होगा। वो अपने तरीक़े से दुनिया को समझेगी और लोगों के साथ मिल-जुलकर रहने के साथ-साथ अपने शरीर में महफ़ूज़ महसूस करना भी सीख जाएगी। ये बातचीत उससे ज़्यादा मेरे लिए ज़रूरी थी। इस पीढ़ी की औरतों के पास हमारे मुक़ाबले ज़्यादा जानकारी उपलब्ध है और उन्हें अपने अनुभवों और विचारों के बारे में बात करने के लिए जगह की ज़रूरत है। उन्होंने उन लड़ाइयों का सामना नहीं किया जिनका सामना हमने किया है इसलिए हम ये उम्मीद नहीं रख सकते कि वे हमारे कहने पर ही इन लड़ाइयों में हमारे साथ शामिल हो जाएँगी। हमें उनसे बात करने और अपने अनुभव उनके साथ साझा करने की ज़रूरत है। कई औरतें आजकल एक ‘उत्तर-नारीवादी’ विचारधारा (ये सोचना कि नारीवाद के लक्ष्य पूरे हो गए हैं और अब इसकी कोई ज़रूरत नहीं है) रखने लगीं हैं जो फ़िक्र की बात है, लेकिन जैसा कि मैंने कहा, हमें तिरस्कार करने के बजाय उन्हें भी अपनी बात रखने का मौक़ा देना चाहिए। मेरे लिए ये ज़रूरी था कि मैं अपने अनुभव अपनी बहन से साझा करूं। ज़िंदगीभर मैंने उसकी ज़िंदगी में एक रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक भूमिका निभाई है लेकिन अब वक़्त आ गया है अपनी बहन के साथ सौहार्द जताने का। मैं ज़रूर उसे अपने फ़ैसलों पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करूंगी लेकिन उसका सहारा बनते हुए। एक ‘जजमेंटल’ नारीवादी के तौर पर नहीं।

शिवानी गुप्ता नैशनल युनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर (NUS) के दक्षिण एशियाई अध्ययन विभाग से जेंडर, यौनिकता, और नगरीय अध्ययन पर पीएचडी कर रहीं हैं। पिछले कुछ सालों में उन्होंने नारीवाद, जेंडर, यौनिकता, और टेक्नॉलजी से जुड़े कई मुद्दों पर काम किया है। उन्हें शहरी और ग्रामीण इलाकों में टहलना और औरतों के स्थानिक व्यवहार पर अध्ययन करना पसंद है। उन्हें पढ़ने का शौक़ है और उनका मानना है कि एक बेहतर इंसान बनने के लिए पढ़ना बहुत ज़रूरी है। उनके पास कॉफ़ी या मसाला चाय, चॉकलेट, नारीवादी उपन्यास, लिप बाम, काजल, और उनकी मनपसंद फ़िल्मों का कलेक्शन हमेशा रहता है।

ईशा द्वारा अनुवादित।
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