जब 2003 में चेन्नई में बाढ़ आई, पूरे शहर में दरारें पड़ गयीं। गलियां गायब हो गयीं। बसों की जगह नाँव ने ले ली। कई दिनों तक बिजली नहीं थी। ऐसा लग रहा था जिस भविष्य के बारे में हमें चेतावनी दी जा रही थी, वह अभी आ चुका था। सारे मोहल्ले पानी से भर गए थे। बुनियादी ढांचे के साथ-साथ सुरक्षा और गरिमा भी डूब गए थे।
क्वीयर लोगों के लिए, ख़ासकर जो अपने परिवारों से अलग थे या अनौपचारिक गृहस्थियों में रह रहे थे, जलवायु आपदा केवल घटना तक ही सीमित नहीं है। इसका मतलब फिर से पूरी तरह से अदृश्य हो जाना होता है। बहुत लोग जिन्होंने बहुत मुश्किल से अपने खुद के चुने हुए परिवार बनाये थे या जिन्होंने कुछ सुरक्षित कमरे किराये पर लिए थे, उन्हें वापस अपने “घर” लौटना पड़ा – ऐसे रिश्तेदारों के बीच जो उनकी जेंडर पहचान, उनके रिश्तों, और उनके अपने चुने हुए नाम और असल पहचान को मानने से भी कतराते हैं।
भारत में कितने क्वीयर लोग जलवायु-जनित आपदाओं की वजह से बेघर या विस्थापित होते हैं, इस पर बहुत कम आधिकारिक आँकड़े मौजूद हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि आपदा आकलनों में शायद ही कभी यौनिकता के आधार पर पहचान या जेंडर पहचान की जानकारी ली जाती है। और जब कभी ली भी जाती है, तो लोग यह जानकारी साझा करते हुए ख़ुद सुरक्षित महसूस नहीं करते। राहत और जनगणना के फ़ॉर्म में अक्सर सिर्फ़ दो जेंडर के विकल्प होते हैं, जिससे नॉन-बाइनरी और ट्रांस लोगों की पहचान आधिकारिक गिनती से गायब हो जाती है। आधारभूत डाटा में बिना इस मान्यता के, क्वीयर लोगों का विस्थापन आपदा के आंकड़ों में गायब रहता है। तो, एक ऐसी दुनिया जिसमें करीबन 70% से ज़्यादा LGBTQ+ युवा को अभी भी परिवार से अस्वीकृति मिलती है, उनके लिए किसी भी आपदा के दौरान घर लौटने की मजबूरी सिर्फ असुविधाजनक ही नहीं बल्कि असुरक्षित भी होता है।
जलवायु परिवर्तन का असर हम सब पर पड़ता है, पर यह वे नाज़ुक सहारे भी छीन लेता है, जिन्हें हाशिए पर रह रहे और भेद्य समुदाय1 बड़ी मुश्किल से खड़ा कर पाते हैं। और जो लोग पहले से ही घर, स्वास्थ्य सेवाओं और सार्वजनिक व्यवस्थाओं से किनारे कर दिए गए हैं, उनके लिए आपदा सिर्फ़ ज़मीन नहीं हिलाती, बल्कि सिर से छत भी छीन लेती है।
और फिर भी, किसी तरह हम खड़े रहते हैं। और हम फिर से उभरतेहैं।
मुसीबत के समय एक-दूसरे का पेट भरना
2018 की केरल की बाढ़ के समय, क्वीयर समुदाय और समवर्गी समाज ने ज़रूरी सामग्री जुटाई ताकि ट्रांस लोग जो बाढ़ के इलाकों में फंसे हुए हैं, उन तक यह सामग्री पहुंचाई जा सके। उन्होंने चंदा इकट्ठा किया, राशन बांटा, और छोटे-छोटे सहायता केंद्र तैयार किये उन इलाकों में जहां पर राहत नहीं पहुंच पा रही थी।
इसी तरह, जब कोरोना की दूसरी लहर दौड़ी, पिंक लिस्ट इंडिया ने ग़ैर सरकारी संगठनों की संयोजित सूची तैयार की जिससे क्वीयर लोगों को तुरंत राहत मिले।
लेकिन आपदाएँ तब ख़त्म नहीं होतीं जब बाढ़ का पानी उतर जाता है, या जब लॉकडाउन हट जाता है।
क्या होता है जब किसी को “घर” भेज दिया जाता है – एक ऐसी जगह, जहां पर उनके आघात की शुरुआत हुई? जहाँ उनका नाम कभी लिया ही नहीं गया? जहाँ वे अपनी असल पहचान को कभी ख़ुल के जी ही नहीं पाए? कभी-कभी हिंसा दिखती नहीं है। वह छिपी हुई होती है। ऐसा कमरा जिसमें आईना नहीं होता है। ऐसी जग़ह जहाँ पर वह नाम इस्तेमाल ही नहीं हुआ हो सालों से। ज़िंदा रहना एक भूमिका को निभाने की तरह हो जाता है। क्वीरनेस को चुपचाप और ध्यान से समेट दिया जाता है और नज़रों से दूर कहीं बंद कर दिया जाता है।
अब समय आ गया है अलग तरह से बनने का
भारत एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। हमारी आपदा प्रतिक्रिया प्रणालियाँ ज़्यादा समावेशी और अधिक न्यायसंगत बन सकती हैं। यह समझना ज़रूरी है कि अलग-अलग समुदायों की परिस्थिति और असर झेलने की स्थिति बराबर नहीं होती। इसलिए उन्हें ऐसी मदद चाहिए जो उन कमियों और फ़ासलों को कम कर सके। यह जो हम पहले से जानते हैं उसी पर आगे बढ़ने की बात है — साथ ही संसाधन, सुरक्षा और फ़ैसले लेने की ताक़त को और बराबरी से बांटने की ज़रूरत है।
हमारे पास ऐसे ढांचे तैयार करने का वास्तविक मौका है जो जेंडर-विविध लोगों को जनसंख्या का अभिन्न अंग मानते हैं। राहत के फ़ॉर्म सिर्फ़ दो जेंडर विकल्पों तक सीमित न रहकर आगे बढ़ सकते हैं। ऐसे आश्रय बनाए जा सकते हैं जहाँ ट्रांस और नॉन-बाइनरी लोगों के लिए सुरक्षित और सम्मानजनक जगह हो। पहचान प्रणालियाँ भी ऐसी हो सकती हैं जो देरी नहीं, बल्कि गरिमा दें।
हमें ठोस और काम आने वाले आँकड़ों की भी ज़रूरत है – कितने क्वीयर लोग आपदाओं में बेघर होते हैं, जिन्हें आश्रय से लौटाया जाता है, और यह भी देखना ज़रूरी है की किस तरह की मदद सच में कारगर होती है। इस सारी जानकारी के बिना उनकी ज़िंदगी के अनुभव अनदेखे रह जाते हैं। लेकिन यह कमी अपने आप में एक बुलावा भी है – स्पष्ट और ज़रूरी वजह कि हमें दस्तावेज़ बनाना शुरू करना चाहिए, सुनना चाहिए और योजनाएं अलग ढंग से बनानी चाहिए।
हमें क्वीयर ज़िन्दगियों के लिए जगह बनाने के लिए अगले चक्रवात का इंतज़ार नहीं करना चाहिए । अब समय आ गया है जब इस पर काम करने की बेहद ज़रुरत है – ऐसे ढाँचे तैयार करने का जहाँ पर लोगों को सुरक्षित महसूस करने के लिए खुद को मिटाना न पड़े।
जो हमें संभाले रखता है वह हमारी तक़दीर नहीं है। वह एक सामूहिक याद है। दुनिया भर के क्वीयर समुदायों ने लंबे समय से जीने-बचने के ऐसे तरीक़े बनाए हैं, जो किसी एक बार की दान-दक्षिणा नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की देखभाल का हिस्सा हैं। ये सिर्फ़ आपातकाल के इंतज़ाम नहीं हैं। ये एक-दूसरे के लिए लंबे समय तक साथ खड़े रहने के तरीक़े हैं। ये हमें याद दिलाते हैं कि बदलाव के साथ ढलना सिर्फ़ तकनीक या नीतियों की बात नहीं है – यह इस बारे में भी है कि हम चीज़ें कैसे बाँटते हैं, एक-दूसरे की हिफ़ाज़त कैसे करते हैं और मिलकर कैसे संगठित होते हैं।
तो अब हमें क्या करना चाहिए?
सिर्फ समावेशन काम नहीं करेगा। व्यवस्थाओं को हमारे साथ और हमारे आस-पास पुनर्निर्माण करना होगा।
आपदा से जुड़ी योजनाएं बनाने वाली टीमों को LGBTQ+ समूहों से सलाह लेनी चाहिए – क्योंकि जो लोग इसे अपनी ज़िंदगी में जीते हैं, वही सचमुच जानते हैं कि दाँव पर क्या लगा है। यह काम सिर्फ़ दिखावे के लिए नहीं है। यहीं पर क्वीयर नज़र और सोच सबसे ज़रूरी हो जाती है।
जैसे कि जलवायु शोधकर्ता मई थाज़िन आंग बताते हैं, “जलवायु न्याय की दोबारा कल्पना के लिए क्वीयर सोच एक प्रभावशाली नज़रिया देता है। यह सोच जेंडर, पहचान और सत्ता से जुड़े हावी मानकों को चुनौती देती है, और हमें यह देखने के लिए आमंत्रित करती है कि समस्या केवल किसी एक की कमज़ोरी नहीं है, बल्कि ग़हरी और व्यवस्थित वजहें हैं जो जलवायु जोख़िम को जन्म देती हैं। जब हम जलवायु कार्रवाई को क्वीयर नज़र से देखते हैं, तो हम ‘हर किसी के लिए एक जैसी’ और सिर्फ़ हालात सँभालने वाली योजनाओं से आगे बढ़कर ऐसी राह पर चलते हैं जो अंतर्विभागीय , समावेशी और जीए गए अनुभवों पर टिके हों। इसका मतलब है ऐसी मानवीय और जलवायु से जुड़ी योजनाएं बनाना जो सिर्फ़ सुरक्षा ही न दें, बल्कि असल बदलाव लाएँ – और उन ढांचागत असमानताओं को भी तोड़ें जो मौलिक रूप से ही समुदायों को असुरक्षित बना देती हैं।
क्वीयर सोच सिर्फ एक सिद्धांत नहीं है – यह इस बात को आकार दे सकता है, और देना भी चाहिए कि संस्थाएँ संकटों के लिए कैसे तैयार होती हैं। कुछ जगहों पर इसकी शुरुआत हो चुकी है। 2015 में, केरल का सामाजिक न्याय विभाग ऐसा पहला सरकारी निकाय था जिसने ट्रांसजेंडर नीति तैयार की थी। अब केरल राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के साथ काम करने के बाद यह भारत का पहला ऐसा राज्य है जिसने अपनी आपदा जोख़िमन्यूनीकरण नीति में ट्रांसजेंडर लोगों और LGBTQ समुदाय को शामिल करने के लिए एक योजना तैयार की है।
और भी कई सारे राज्यों ने भी ट्रांस कल्याण बोर्ड और ट्रांसजेंडर संरक्षण सेल की स्थापना करके कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। ये मौजूदा ढांचे हमें पहले से ही एक मज़बूत नींव देते हैं, जिस पर आपदा से जुड़ी तैयारी और राहत के ऐसे इंतज़ाम खड़े किए जा सकते हैं जो जेंडर-विविध समुदायों को भी शामिल करें। अगर सही तरह से वित्तीय मदद, प्रशिक्षण और आपदा प्रबंधन विभागों के साथ तालमेल मिले, तो यही समिति और कक्ष, बदलाव के ताक़तवर यंत्र बन सकते हैं – जहाँ नीतियों के वादे सिर्फ़ काग़ज़ पर न रहकर हक़ीक़त बनें। इससे सुरक्षित आश्रय बनेंगे, राहत की प्रक्रियाएं सम्मानजनक होंगी और संकट के समय भी गरिमा की हिफ़ाज़त करने वाली व्यवस्थाएं खड़ी होंगी।
ऐसी नीतियां दरवाज़ें खोल देतीं हैं। यह एक मौका है कि क्वीयर समुदायों के पास जो जीने-बचने का अपना तज़ुर्बा और समझ है, उसे आपदा से निपटने की योजनाओं का हिस्सा बनाया जाए – ताकि वही समझ आगे का रास्ता तय करे। हमने सालों में जो हुनर, रिश्तों के जाल और टिके रहने की ताक़त बनाई है, वो सिर्फ़ हाशिए की कहानियाँ नहीं हैं – वो ऐसे औज़ार हैं जिनसे पूरी व्यवस्था सीख सकती है। हमें इतने लंबे समय तक “कमज़ोर” कहा गया कि जैसे हम भूल ही गए हों कि जीने-बचने का सबसे बड़ा हुनर भी हमारे ही पास है। क्योंकि हम पहले भी ये कर चुके हैं। उधार के कमरों में, चुने परिवारों में, दोस्तों के छोटे-छोटे समूहों में, और ऑनलाइन भुगतानसे हमने अपनी सुरक्षा बनाई है। हम जानते हैं कि दुख को कैसे थामना है और उसे किसी नर्म, काम आने वाली और ज़िंदा चीज़ में कैसे बदल देना है।
जब अगली बाढ़ आएगी, और वह कभी-न-कभी आएगी ही यह तो तय है, तो सिर्फ हम ज़रुरत में नहीं होंगे। हम तो पहले से ही वहाँ होंगे – कतार बनाकर खाना बांटते हुए, तिरपाल जोड़कर तंबू खड़े करते हुए, चारों तरफ़ देखते और पूछते हुए कि, “ठीक है, अब और किसे बुलाना है?” सोचिए, अगर इस तैयार रहने वाली भावना को संस्थाएँ भी साथ मिलकर आगे बढ़ाएँ – जहाँ नीतियां लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से हों, आश्रय संसाधनों से भरे हों, और राहत की व्यवस्थाएं शुरू से ही बराबरी को ध्यान में रखकर बनी हों। जब समुदाय के नेटवर्क और सरकारी तंत्र हाथ से हाथ मिलाकर काम करें, तब हर आपदा में यह तय किया जा सकता है कि सबको सुरक्षा, सम्मान और अपनापन मिले – और कोई भी दरकिनार न किया जाए।
- “हाशिए पर रह रहे और भेद्य समुदाय” से मतलब यहाँ उन समूहों से है जो सुरक्षा और अवसरों तक पहुँच में लगातार रुकावटों का सामना करते हैं। इसमें क्वीयर और ट्रांस लोग भी शामिल हैं, लेकिन सिर्फ़ इन्हीं तक सीमित नहीं है। ↩
प्रांजलि शर्मा द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।
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Cover image by Claudio Schwarz on Unsplash