आज़ाद कर दो मुझे
आज़ाद कर दो मुझे इन बेड़ियों से –
जो मुझे खुल कर हँसने नहीं देती,
रोने नहीं देती,
गाने नहीं देती।
आज़ाद कर दो मुझे इन बेड़ियों से –
जो मेरे सोचने को ज़रूरी नहीं समझती
जो मुझे समझने को ज़रूरी नहीं समझती
जो मेरे बोलने को ज़रूरी नहीं समझती।
आज़ाद कर दो मुझे इन बेड़ियों से –
जो मुझे प्यार करने नहीं देती,
इनकार करने नहीं देती,
एक देह से ज़्यादा कुछ बनने नहीं देती!
आज़ाद कर दो मुझे इन बेड़ियों से –
जो मुझे रात में अकेले घूमने नहीं देती,
मनचाहे कपड़े पहनने नहीं देती
जो मुझे तथा–कथित मर्यादा को तोड़ने नहीं देती!
आज़ाद कर दो मुझे इन बेड़ियों से –
जो मुझे आसमान की ऊँचाईयों को छूने से रोकती हैं
जो मुझे ख़ुद से दूर कर देती हैं
जो मुझसे मेरे होने को छीन लेती हैं।
यह बेड़ियाँ हैं तुम्हारी सोच की;
अपनी सोच से मुझे आज़ाद कर दो।
पीके
संदर्भ – पीके 2014 की फ़िल्म है। इसमें पीके का किरदार आमिर ख़ान ने निभाया है जो कि दूसरे ग्रह से आया है, और उसके ग्रह में लोग कपड़े नहीं पहनते इसलिए वह फ़िल्म के शुरुआती अंश में धरती पर निर्वस्त्र ही घूम रहा होता है। जब हमने यह फ़िल्म पहली बार देखी थी उस समय फ़िल्म में ऐसे दृश्य देखकर हम हँसा करते थे। पर अब जब उसके बारे में सोचती हूँ कि अगर वहाँ पीके लड़का नहीं लड़की होता, और तब अगर पीके निर्वस्त्र धरती पर घूमती तो क्या होता? इसी कल्पना पर आधारित है मेरी यह कविता।
अगर पीके लड़का नहीं लड़की होता तो क्या होता?
तो लोग उसे देख कर हँसते नहीं!
कुछ लोग उसे देख उसपर तरस खाते,
तो कुछ लोग उसे देख ताने कसते।
कुछ लोग उसे देख गाली देते,
तो कुछ लोग उसे देख ख़ुश होते।
कुछ लोग उसे देख लार टपकाते,
तो कुछ लोग उसे ऐसे देखते जैसे उसे आँखों से ही खा जाते।
कुछ लोग उसे देख ख़ुद को उसके साथ बिस्तर में चाहते,
तो कुछ लोग उसे देख उसी के सामने हस्तमैथुन कर लेते।
कुछ लोग उसे बिना छूए ही उसके अंगों को नाप लेते,
तो कुछ लोग उसे चिकोटी काटते, उसे जबरन पकड़ते।
कुछ लोग उसके क़रीब आ उसे छूने की कोशिश करते,
तो कुछ लोग उसे छूने की कोशिश में सफ़ल भी हो जाते।
कुछ लोग उसे देख उसकी मदद करने के बहाने उसकी आत्मा सहित देह को चीड़ जाते
और बाकी के बचे कुचे लोग उसी पर आरोप डालते।
पर जब वह मर जाती तो ये “सारे” लोग (एक कतार से) उसके लिए न्याय माँगते,
उसके लिए मोमबत्ती जलाते।
पर मान लो कि पीके दूसरे ग्रह से आयी एक लड़की होती,
और अगर वह कपड़े भी पहने होती
तो भी उसका हश्र और क्या ही हुआ होता?
हमें नहीं बनना महान
हमें नहीं बनना महान
हमें इंसान ही रहने दो।
हम ग़लतियाँ भी करना चाहते हैं,
हम ग़लतियों से सीखना भी चाहते हैं,
अगर हम कुछ नहीं चाहते तो वह है यह ‘महान’ और ‘स्पेशल’ का टैग।
हमें यह टैग दे कर तुम हमें केवल बहलाना चाहते हो।
बच्चों को जैसे बहलाते फुसलाते हैं
ताकि बच्चे हमारी बात मान लें –
ठीक वैसे ही तुम हमें फुसलाते हो।
जैसे घर के सारे काम अकेले कर लेने की उम्मीद हमसे रखते हो
कर लें तो सूपर वुमन नहीं तो कामचोर कह देते हो
और ऐसा कर के हमें घर की चार दिवारी में समेट कर रख देते हो
बस इसलिए कि तुम समझते हो हमें महान
तो हमें देना चाहिए अपनी महानता का परिचय और प्रमाण।
तुम्हारा मुझे महान कहना
मेरे लिए कोई प्रशंसा कोई बड़ाई नहीं है!
तुम्हारा मुझे महान कहना सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी कातरता है
जो तुम्हें रोकती है इस असमान सामाजिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ खड़े होने से
पर उससे भी ज़्यादा अपने आप को बोझ रहित रखने के लिए।
Cover Image: Photo by Vidar Nordli-Mathisen on Unsplash