बुंदेलखंड में, कुएँ हफ़्तों से ख़ाली पड़े हैं। धरती धूप से फट गई है, और हवा गर्मी और धूल से भारी हो गई है। जलवायु परिवर्तन अब कोई दूर की आपात स्थिति नहीं है; ये आ चुकी है, और यह समान रूप से नहीं फैल रही है। भारत में, जहाँ अभी भी जाति यह तय करती है कि किसके पास ज़मीन, साफ़ पानी और आश्रय है, जलवायु संकट इन असमानताओं को और ग़हरा करता है। लेकिन यह सिर्फ़ अस्तित्व या अभाव की कहानी नहीं है। यह आत्मीयता (इन्टमसी) के बारे में भी है, उन समुदायों के बीच यौन और प्रजनन संबंधी स्वतंत्रता के ख़ामोश क्षरण के बारे में भी है जो पहले से ही बुनियादी ज़रूरतों के लिए संघर्ष करने के लिए मज़बूर हैं। ऐसी दुनिया में जहाँ पानी पीना भी एक विशेषाधिकार लगता है, इच्छाओं का क्या मोल है?
भारत में ज़मीन कभी भी निष्पक्ष नहीं रही। इस पर जाति का भार – यह तय करना कि इसका मालिक कौन है, इस पर कौन काम करता है, और किसे बाहर निकाला जाएगा – हमेशा बना रहा है। दलित और आदिवासी समुदायों के लिए, ज़मीन से वंचित होना सिर्फ़ आर्थिक असुरक्षा का मामला नहीं है; यह उन परिस्थितियों से वंचित होने का मामला है जो जीवन को जीने योग्य बनाती हैं। जब सूखा फसलों को नष्ट कर देता है या पानी के स्रोत सूख जाते हैं, तो सबसे पहले और सबसे ज़्यादा असर इन्हीं समुदायों पर पड़ता है! इसके परिणाम बाहर तक फैलते हैं: जब कोई स्थिर आय या भोजन तक पहुँच नहीं होती, तो लोग सिर्फ़ स्थिरता ही नहीं खोते, वे निजता, नियंत्रण और अपने शरीर के बारे में फ़ैसले लेने की आज़ादी भी खो देते हैं। जो अगली बार भोजन मिलेगा या नहीं की चिंता में रहते हों या पानी भरने के लिए मीलों पैदल चलते हों, उनके पास सुरक्षा या इच्छा के बारे में सोचने की गुंजाइश नहीं होती।
ये नुकसान सिर्फ़ संख्याएं नहीं हैं; ये इस बात का निर्णायक कारक हैं कि किसी परिवार को दिन के अंत में खाना मिलेगा या नहीं। ज़मीन और पानी के लिए लड़ाई न केवल यह तय करती है कि भोजन मिलेगा या नहीं, बल्कि यह भी तय करती है कि क्या वह भोजन लोगों की पसंद से पकाया जाएगा या फिर जो भी कचरा इकट्ठा किया जा सकता है, उससे पकाया जाएगा। कई दलित और आदिवासी परिवारों के लिए इसका मतलब है कि उन्हें ऐसी चीज़ों से खाना पकाना पड़ता है, जिन्हें दूसरे लोग बेकार / अयोग्य मानते हैं।
दलित किचन्स ऑफ मराठवाड़ा (हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर्स इंडिया, 2024) में, शाहू पटोले उन खाने के बारे में लिखते हैं जो दूसरों द्वारा फेंकी गई चीज़ों – मछली की हड्डियाँ, बासी रोटी, कुचली हुई सब्ज़ियाँ – से बनते हैं। उनकी कहानियाँ सिर्फ़ भूख के बारे में नहीं हैं; वे इस बारे में हैं कि एक ऐसी दुनिया में जीने का क्या मतलब है जो आपको लगातार कहती है कि आपकी ज़रूरतें मायने नहीं रखतीं। इस तरह का सफ़ाया सिर्फ़ रसोई तक ही सीमित नहीं है। यह जीवन के हर पहलू में, यहाँ तक कि यौनिकता में भी, घुसपैठ करता है। जलवायु परिवर्तन सिर्फ़ घर या आजीविका ही नहीं छीनता, बल्कि उन परिस्थितियों को भी ख़त्म कर देता है जहाँ आत्मीयता (इन्टमसी) संभव है। जब आप लगातार अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हों, तो चुनाव की गुंजाइश कहाँ है? कोमलता की गुंजाइश कहाँ है? किसी भी ऐसी चीज़ के लिए गुंजाइश कहाँ है जो दिन काटने के बारे में नहीं है?
विस्थापन इसे और भी मुश्किल बना देता है। बाढ़, सूखा और ज़मीन अधिग्रहण लोगों को उनके घरों से बाहर निकलने पर मज़बूर कर देते हैं, और अक्सर वे भीड़-भाड़ वाले शिविरों या अस्थायी आश्रयों में पहुँच जाते हैं जहाँ कोई वास्तविक निजता (प्राइवसी) नहीं होती। परिवारों को एक ही कमरे में या तंबुओं में ठूँस दिया जाता है, जहाँ नहाना भी एक बड़ी बात हो जाती है। इन जगहों पर, यौन अधिकार का विचार ही बेमानी लगता है। क्वीयर लोगों के लिए, या ऐसे किसी भी के लिए जो तथाकथित “सामान्य” पारिवारिक ढाँचे में फिट नहीं बैठते, ये जगहें और भी ज़्यादा प्रतिकूल हो सकती हैं, जहाँ दृश्यता (विजिबिलिटी) अक्सर छानबीन को बुलावा देती है, और सुरक्षा की गारंटी नहीं होती। राहत कार्य में विषमलैंगिक पारम्परिक परिवार के बाहर के किसी को शायद ही कभी शामिल किया जाता है। अगर आप किसी ख़ास तरह के परिवार से नहीं हैं, तो आपके मुश्किल में पड़ने की संभावना ज़्यादा होती है।
लेकिन जलवायु हिंसा की आवाज़ हमेशा ज़ोर से नहीं होती। कभी-कभी, यह हिंसा लोगों को रातोंरात जो कुछ खोना पड़ता है, उससे कहीं ज़्यादा, बिना आवाज़ उनके साथ होने वाले वंचन से महसूस की जाती है। स्वच्छ हवा, स्थिर आवास, काम करने वाले शौचालय और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच – ये बुनियादी ज़रूरतें अभी भी कई दलित और आदिवासी समुदायों की पहुँच से बाहर हैं, जो कूड़े के ढेरों, कारखानों या सीवेज से जाम नालों के पास रहते हैं। उनके घर अक्सर गर्मी या बाढ़ से बहुत कम सुरक्षा प्रदान करते हैं। हालाँकि ‘ऊँची’ जातियों के मोहल्ले वर्षा जल के टैंक लगाते हैं या ठंडी जगहों पर चले जाते हैं, लेकिन अंत में, एक ढहती जलवायु में जीवित रहने का बोझ उन लोगों पर पड़ता है जिनके पास सहारे के लिए कुछ भी नहीं है। और किसी तरह, वे अभी भी “अशुद्ध” के रूप में चिह्नित हैं, और घृणा के साथ देखे जाते हैं और उन पर पुलिस की निगरानी की जाती है कि वे उन परिस्थितियों में कैसे रहते हैं जिन्हें उन्होंने पैदा नहीं किया है।
जब लोगों को साफ पानी, सुरक्षित आश्रय या स्वास्थ्य सेवा से वंचित किया जाता है, तो उन्हें अपने शरीर पर नियंत्रण से वंचित करना भी आसान हो जाता है। लोग जिन भौतिक वास्तविकताओं में रहते हैं, यौन और प्रजनन स्वास्थ्य को उनसे अलग नहीं किया जा सकता। कई ग्रामीण या विस्थापित इलाक़ों में गर्भनिरोधक या मासिक धर्म संबंधी उत्पादों जैसी बुनियादी चीज़ों तक पहुँच पाना भी एक चुनौती बन जाता है। क्वीयर लोगों, ट्रांस लोगों, या अविवाहित महिलाओं के लिए, स्थिति और बदतर है – या तो कोई स्वास्थ्य सेवा है ही नहीं या सक्रिय रूप से प्रतिकूल है, लोगों को चुप्पी में और आगे धकेल रही है।
निजता (प्राइवसी), सुरक्षा और संसाधनों के बिना, कोई भी सेक्स, रिश्तों के बारे में या माता-पिता बनने के बारे में स्वतंत्र चुनाव कैसे कर सकते है? और फिर भी, ज़्यादातर जलवायु संबंधी बातचीत कार्बन फुटप्रिंट और टेक्नालजी पर ही केंद्रित रहती है, बिना यह पूछे कि कौन सम्मान के साथ जी सकता है और कौन नहीं। अगर जलवायु न्याय, जाति को केंद्र में नहीं रखता, तो यह उन्हीं पदानुक्रमों को मज़बूत करने का जोख़िम उठाता है जिन्हें चुनौती देने का दावा किया जाता है।
विस्थापन के बाद सिर्फ़ जगह या सुरक्षा ही नहीं, बल्कि भावनात्मक स्थिरता का एहसास भी गायब हो जाता है। जब लोग लगातार अनिश्चितता में जीते हैं, तो आत्मीयता (इन्टमसी) एक जोख़िम जैसी लगने लगती है। चाहत एक ऐसी चीज़ बन जाती है जिसे आप टाल देते हैं, जो आपके जैसे लोगों के लिए नहीं होती। एक तरह की थकान होती है जो लंबे समय से चली आ रही असुरक्षा से आती है, ऐसी थकान जो स्पर्श को भी दूर धकेल देती है और भरोसा बनाना और भी मुश्किल बना देती है। ऐसे पलों में, किसी के क़रीब महसूस करने का, बिना किसी डर के चाहने का अधिकार, जलवायु और जाति, दोनों का एक और ख़ामोश शिकार बन जाता है।
जलवायु परिवर्तन के प्रति न्यायोचित प्रतिक्रिया केवल हरित नीतियों और स्वच्छ ऊर्जा से कहीं आगे होनी चाहिए। इसमें इस बारे में गहन प्रश्न पूछे जाने चाहिए कि कौन पीछे छूट रहा है, और हम किस प्रकार के भविष्य को संभव बना रहे हैं। यौन और प्रजनन अधिकार कोई गौण चिंताएं नहीं हैं जिन पर स्थिरता लौटने के बाद ध्यान दिया जाना चाहिए; ये तो जीवन को जीने लायक बनाने वाली चीज़ों का हिस्सा हैं। चाहने, ना कहने, रिश्ते बनाने, बच्चे पालने या न पालने की स्वतंत्रता इस बात पर निर्भर नहीं होनी चाहिए कि आप कहाँ रहते हैं या आप किस जाति में पैदा हुए हैं।
अंत में, जलवायु संकट केवल ज़मीन और संसाधनों को ही नहीं छीनता; यह उस जगह को भी सीमित कर देता है जहाँ लोग सपने देख सकते हैं, जुड़ सकते हैं, या बस आराम कर सकते हैं। और यह संकीर्णता अचानक नहीं आई है। यह जाति, बहिष्कार के इतिहास और आपके जीवन की कोई अहमियत न होने की धीमी हिंसा से आकार लेती है। इसलिए, जलवायु न्याय की बात करना इस बारे में बात करना है कि कौन सुरक्षित महसूस करेंगे, कौन चुनने का अधिकार पाएंगे, कौन चाहने का अधिकार पाएंगे। जीवित रहना ही एकमात्र लक्ष्य नहीं होना चाहिए। इच्छा रखने का अधिकार – महसूस करना, स्पर्श करना, एक अलग जीवन की कल्पना करना, एक विलासिता (लक्जरी) की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। यह तो सब के लिए निश्चित होना चाहिए।
References
- Patole, Shahu. (2024) Dalit Kitchens of Marathwada. Translated by Bhushan Korgaonkar, HarperCollins India.
- Kumar, M., and Jena, A. Environmental Burden in Everyday Lives of Dalits: A Case Study of Sanand, Gujarat. Sociological Bulletin, vol. 73, no. 1, 2023, pp. 65–83. SAGE Publications, https://doi.org/10.1177/00380229231212894. Original work published 2024.
- Mehta, Lyla. (2009) Displaced by Development: Confronting Marginalisation and Gender Injustice. Sage Publications.
सुनीता भदौरिया द्वारा अनुवादित।
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Cover image by Mihály Köles on Unsplash