कृष्णा सोबती अपने उपन्यासों में महिला–यौनिकता की बात बेझिझक उठाती हैं। सन् 1972 ई. में प्रकाशित ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ उपन्यास में कृष्णा सोबती ‘रत्ती’ के माध्यम से महिला–यौनिकता की बात करती हैं। यौनिकता से जुड़ा एक प्रमुख अधिकार है अपने शरीर और जीवन के बारे में फैसले करने की छूट, जिसके तहत हमें अपनी पसंद–नापसंद को व्यक्त करने की आज़ादी है, वह काम नहीं करने की आज़ादी है जिसे करने में हम असहज महसूस करें। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को अपनी यौनिकता की अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं दिया जाता, इसका कारण है – लैंगिक भेदभावपूर्ण सामाजिक मानदंड – जिसके कारण महिलाओं के हाथ में उनकी ‘एजेंसी’ ही नहीं होती। उनकी यौनिकता, शारीरिक स्वायत्तता, सहमति अक्सर दूसरों के अधीन होती है। हमारी संस्कृति में जहाँ असहमति को अनादर का पर्याय माना जाता है, वहाँ सहमति को एक महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य की तरह कभी स्थापित नहीं किया गया। और महिलाओं के मामले में तो यह स्थापित है कि उनकी सहमति का कोई महत्त्व नहीं होता, न दिया जाना चाहिए। सहमति की अवहेलना का ही एक सबसे हिंसक रूप है यौन शोषण। यहाँ उल्लिखित उपन्यास की मुख्य किरदार ‘रत्ती’ ने अपनी सहमति की अवहेलना का त्रास जीवन भर झेला। यौन शोषण से गुज़रने के कारण रत्ती के लिए किसी भी संबंध में सहमति का बहुत महत्त्व है। इसलिए अपने किसी भी संबंध में उसने, अपनी सहमति को प्राथमिकता देते हुए, अपने चुनाव करने के अधिकार को नहीं छोड़ा तथा अपनी स्वायत्तता और अपने अस्तित्व से कभी समझौता नहीं किया। उसने अपने शरीर और जीवन के फ़ैसले ख़ुद लिए और कभी अपनी एजेंसी किसी दूसरे के हाथ में नहीं दी। रत्ती की यह कहानी सहमति के धरातल पर अपनी यौनिकता की खोज तथा उसकी अभिव्यक्ति की कहानी है।
रत्ती के साथ बचपन में यौन शोषण किया गया था जिससे वह आजीवन आघातग्रस्त रहती है। अपने जीवन की तमाम जटिलताओं से संघर्ष करते हुए रत्ती हमारे सामने एक समझदार, आत्मविश्वास से लैस, और सशक्त महिला के रूप में प्रस्तुत होती है। यौन शोषण से गुज़रने वाली महिलाओं के लिए समाज द्वारा स्थापित मानदंड के प्रतिकूल वह अपनी यौनिकता को अनुभव करना चाहती है। वह सेक्स की चाहत रखती है, बराबरी और आपसी सहमति के स्तर पर। पितृसत्तात्मक समाज में यौन शोषण का मतलब मृत्यु से भी भयावह होता है। यौन शोषण के पश्चात् महिलाओं के लिए सामान्य जीवन जी पाना असंभव हो जाता है। इस प्रकार महिलाओं को दोहरे उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है – एक तो यौन शोषण के कारण, दूसरा उससे उपजे दोष, शर्म और अविश्वास के कारण। लेकिन रत्ती अपने साथ हुए यौन शोषण को अपने जीवन का अंत नहीं बनने देती। ऐसा समाज जो महिला–यौनिकता से डरता है, जो महिलाओं के हाथ में उनकी ख़ुद की एजेंसी होने से डरता है – उस समाज के समक्ष लेखिका ने रत्ती जैसे किरदार को प्रस्तुत किया। और यह स्थापित किया कि यौन शोषण से गुज़रने के पश्चात् किसी महिला के जीवन का अंत नहीं होता, न ही उसकी कामना या इच्छाओं का अंत होता है।
यहाँ यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि यौन शोषण से गुज़रने के बाद और उसके कारण रत्ती का मानसिकता किस प्रकार बनती है। यौन शोषण की घटना से रत्ती निश्चित रूप से आघातग्रस्त रहती है। और स्वाभाविक रूप से उसे इस बात की खीज है, गुस्सा है। वह ख़ुद को ‘सिर्फ चिथड़ा’ समझती है। उसकी ऐसी सोच का कारण बचपन में उसके साथ हुआ यौन शोषण ही है। उत्पीड़क ने उसके अस्तित्व को एक देह या योनि तक ही सीमित कर दिया था। उत्पीड़क के लिए रत्ती की मर्ज़ी/सहमति का कोई महत्त्व नहीं था। उत्पीड़क ने रत्ती की सहमति की अवहेलना कर उसकी स्वायत्तता को कुचला था। वह अपने बारे में सोचती है कि “वह कोई औरत नहीं, सिर्फ गीली लकड़ी है। जो जलने पर केवल धुआँ देगी।” वह ऐसा इसलिए सोचती है कि अब उसे किसी के साथ शारीरिक संबंध बनाने में कठिनाई महसूस होती है। इसका कारण उसके अतीत के आघात से तो जुड़ा हुआ है ही लेकिन साथ ही साथ उसके अस्तित्व के प्रश्न से भी जुड़ा है। सिर्फ सेक्स की चाहत की पूर्ति के लिए किसी के भी साथ संबंध बनाना उसे मंज़ूर नहीं है। वह बहुत सावधान और सचेत रहती है कि कोई उसका फ़ायदा न उठा सके। यौन संबंध बनाने के लिए उसे ऐसे किसी की तलाश है जो उसे सिर्फ एक देह के रूप में न देखे, बल्कि जो उसकी मर्ज़ी का सम्मान करे, जो उसे समझे। उसे इस बात का दुःख रहता है कि उसे एक बार भी ‘समूची औरत’ बनने नहीं दिया गया। क्योंकि उसे एक देह से ज़्यादा किसी ने कभी कुछ समझा ही नहीं है। उसको उसके पूरे अस्तित्व के साथ ग्रहण करने की किसी ने कोशिश ही नहीं की है। इसलिए जिसके साथ उसे ऐसा महसूस होता है कि उसके लिए वह केवल एक देह है वह उससे अलग हो जाती है।
यौन शोषण से गुज़रने के कारण स्वाभाविक पीड़ा, गुस्सा और खीज का अनुभव तो वह करती है लेकिन इसके कारण वह कभी भी शर्मिंदगी महसूस नहीं करती। लेखिका ने रत्ती के किरदार को एक दीन–दुखियारी के रूप में प्रस्तुत नहीं किया बल्कि एक मज़बूत किरदार के रूप में प्रस्तुत किया है। उसके संघर्ष को रेखांकित करते हुए वे लिखती हैं – “तुमने सिर उठा अपने लिए अपनी लड़ाई लड़ी है। कड़वाहट के ज़हर से अपने को अपना दुश्मन नहीं बनाया।” स्कूल में किसी से उसकी दोस्ती नहीं थी इसलिए वह ख़ुद में ही रहती, किताबें पढ़ा करती। लेकिन सहपाठीगण उसके साथ किए गए यौन शोषण की घटना को लेकर उसे भला–बुरा कहते – “तुम अच्छी लड़की नहीं हो”, “और लड़कियाँ तुम्हारी तरह बेशर्म नहीं”, उस पर फब्तियाँ कसते – “उसे लड़कियों से ज़्यादा लड़के भाते हैं”, “उसे जो चाहिए… वह कहाँ से देंगी!” तो उनकी इन हरकतो का विरोध करने के लिए वह हिंसा का सहारा लेती है। उसके साथ बदतमीज़ी करने वालों को वह खूब पीटती है और उन्हें चेतावनी देती हुई कहती है –“फिर कभी ऐसा हुआ तो फाड़ डालूँगी… अब छेड़छाड़ की तो छोडूँगी नहीं।” दूसरों की बातें सुन वह रोती भी है लेकिन अपना जी कड़ा कर ख़ुद को चुप भी कराती है। अपने जीवनानुभवों से उसने (केवल) ख़ुद पर भरोसा करना सीखा इसीलिए किसी के सहारे के बिना चलने की आदत डाली। उसने ख़ुद अपना अस्तित्व बनाया और इस बात का हमेशा ध्यान रखा कि उसके अस्तित्व के साथ किसी भी कीमत पर समझौता न हो। उसने ख़ुद को इतना समर्थ बनाया है कि वह अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ सके। इसी से उसके भीतर अदम्य साहस और आत्मविश्वास का वास है।
रत्ती की यौनिकता की तलाश को इस प्रकार लिखती हैं लेखिका “एक लंबी लड़ाई। हर बार बाज़ी हार जाने वाली और हर बार हार न मानने वाली। हर बार अकेले जूझना। हर बार सिर उठा आगे देखना।पितृसत्ता के बुनियादी विचारों में एक यह है कि महिलाओं की एजेंसी कभी उनके हाथ में न रहे बल्कि हमेशा नियंत्रण में रहे! क्योंकि पितृसत्ता “आतंकित होती है एक स्वच्छंद स्त्री” से। यहाँ आलोक धन्वा की पंक्तियाँ याद आती हैं
“कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेख़ौफ़ भटकती है
ढूँढती हुई अपना व्यक्तित्व”
इसलिए पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं की सहमति को कोई महत्त्व नहीं देता। ऐसे समाज में न पुरुषों को यह सिखाया जाता है कि महिलाओं के इनकार को कैसे स्वीकारा जाए, न ही महिलाओं को यह समझाया जाता है कि उनकी सहमति ज़रूरी है और उनकी सहमति के बिना कोई उनके साथ कुछ करे तो यह ग़लत है। हमारी सहमति का सवाल हमारे अस्तित्व से जुड़ता है। रत्ती के लिए भी सहमति बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसलिए वह अपने जीवन की एजेंसी किसी दूसरे के हाथ में नहीं देती। वह किसी को न तो उसे नियंत्रित करने का अधिकार देती है न ही उसके अस्तित्व को दरकिनार करने का। इस मामले में रत्ती के विवेक की दाद देनी चाहिए कि वह अपने आप को कितनी अच्छी तरह समझती है कि उसे अपने जीवन में क्या चाहिए और क्या नहीं चाहिए। और अपनी समझ के आधार पर ही वह चयन करती है। अपने चयन करने के अधिकार को न कभी छोड़ती है न ही अपने चुनाव के लिए शर्मिंदा या क्षमाप्रार्थी ही होती है। रत्ती कई पुरुषों के साथ संबंध में आती है लेकिन उनसे शारीरिक संबंध नहीं बनाती। उसका शारीरिक संबंध नहीं बनाने के तार का एक सिरा भले यौन शोषण की घटना से जुड़ा हो लेकिन उसका मुख्य कारण है कि वह अपने अस्तित्व के साथ समझौता कर के किसी के साथ यौन संबंध नहीं बनाना चाहती। जैसे श्रीपत जब रत्ती को अपने और अपनी पत्नी ‘ऊना’ के कमरे में लेकर जाता है तो वह (उसकी मर्ज़ी पूछने के बजाय) यह मान लेता है कि रत्ती उसके साथ यौन संबंध बनाने को तैयार है। लेकिन रत्ती उसे यह कह कर इनकार कर देती है –“तुम दोनों का यह कमरा हम दोनों के लिए नहीं है… कैसे तुमने यह सोच लिया कि एक–दूसरे को चाहने के लिए हमें ऊना के कमरे का झूठ जीना है?… जिस श्रीपत को मुझे जानना है, उसे इस कमरे से बाहर होना चाहिए था!” रोहित से वह संबंध तोड़ती है क्योंकि वह उसके जीवन को नियंत्रित करना चाहता था जो उसे बिल्कुल भी मंज़ूर नहीं था। वह उसे सख़्त और साफ़ शब्दों में कहती है – “तुम मेरे गार्डियन नहीं हो। हम एक–दूसरे को नापसंद नहीं करते.. बस, इतना ही हक़ हमारा एक–दूसरे पर है।… मुझे किसके साथ कहाँ जाना चाहिए, यह मेरे सोचने की बात है, किसी और की नहीं।” जयनाथ उसके अस्तित्व को अपने पुत्र/ वारिस की माँ के रूप में सीमित कर के देखता है। तो वह उससे कहती है – “अपने बच्चों के लिए तुम्हें कोई और माँ ढूँढनी पड़ेगी। बेटे बनाने की कला तो इस औरत के पास है ही नहीं।” और फिर उससे भी संबंध तोड़ लेती है। राजन के साथ वह एक साल से संबंध में रहती है। इतने समय के पश्चात् राजन को ‘लगा होगा’ कि रत्ती अब शारीरिक संबंध बनाने के लिए तैयार है लेकिन बिस्तर पर जब रत्ती अपनी मनःस्थिति के कारण उसे इनकार करती है तो उसके अहंकार को धक्का लगता है। रत्ती की अस्वीकृति उसकी मर्दानगी को आहत करती है। रत्ती उसे समझाना चाहती है कि वह क्यों अभी यौन संबंध नहीं बनाना चाहती पर वह नहीं सुनता और अपने अहंकार में कहता है, “जो सालों–साल तुम्हारे कीमती हाथों को चूमता रहे, मैं वह नहीं हूँ।… मुझे हमेशा से शक था, तुम औरत हो भी कि नहीं!”
ज़ाहिर सी बात है कि ऊपर उद्धृत सभी संबंधों में पुरुष को रत्ती से ज़्यादा उसके शरीर में रुचि थी। और रत्ती को ऐसा कोई संबंध बनाने में दिलचस्पी नहीं थी जिसमें वह केवल एक देह के रूप में मौजूद हो। अपना जीवन अपने तरीके से जीने के लिए उसे ठंडी, मनहूस, अहंकारी तक कहा जाता है, लेकिन इस सब के बावजूद उसने अपना जीवन अपने शर्तों पर ही जिया। रत्ती अपनी चाहत के लिए न शर्म महसूस करती है और न ही कभी अपने अस्तित्व के साथ समझौता करती है। रत्ती ऐसे किसी के साथ यौन संबंध बनाना चाहती थी जो उसे उसके देह के इतर भी कुछ समझे, उसके अस्तित्व को केवल देह तक ही सीमित न कर दे तथा कोई ऐसा जो “उसके अंतरंग टेलीफ़ोन का नंबर ढूँढ निकाले”। दिवाकर के सिवा उसके अंतर्मन को समझने की कोशिश और किसी ने नहीं की थी। दिवाकर शुरू में ही यह स्पष्ट कर देता है “अपनी परिधि में आने दो रतिका! ऐसा कुछ न चाहूँगा जो तुम न देना चाहो।” वह उसे पहले जानना चाहता था, समझना चाहता था। यौन संबंध बनाने के लिए भी दिवाकर ने पहले उससे उसकी मर्ज़ी पूछी थी–“रतिका, तुम्हारे साथ सोना चाहता हूँ… क्या तुम…” और रत्ती की सहमति देने के बाद ही उनका यौन संबंध बना। यहाँ पहली बार रत्ती को अपने होने का महत्त्व, अपनी सहमति के महत्त्व का अहसास हुआ और दोनों का संबंध आपसी सहमति से बराबरी के धरातल पर बना। पहली बार रत्ती को एक देह से ज़्यादा उसके पूरे अस्तित्व के साथ ग्रहण किया गया। और इस तरह वह पहली बार किसी के साथ तन और मन से संबंध बना सकी। दिवाकर ने उसे ‘समूची औरत’ के रूप में स्वीकारा, उसको उसके पूरे अस्तित्व के साथ ग्रहण किया। इसलिए रत्ती कहती है,“तुमने मेरा शाप धो दिया है।”
Cover Image: Book cover of Krishna Sobti’s Surajmukhi Andhere Ke