जलवायु परिवर्तन का नाम सुनते ही हमारे मन में केवल पर्यावरण और अर्थव्यवस्था का विचार आता है, लेकिन इसका ग़हरा संबंध हमारी मानसिक सेहत और यौनिकता से भी है। जलवायु परिवर्तन मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चुनौती बन चुका है अत्यधिक गर्मी, बाढ़, सूखा और आपदाएं न केवल चिंता, डिप्रेशन और PTSD बढ़ाती है बल्कि लोगों के रिश्तों और यौन जीवन को भी प्रभावित करती हैं।
मौसम में अचानक बदलाव से शरीर पर पड़ने वाला दबाव यौन स्वास्थ्य पर असर डालता है। उदाहरण के लिए, अत्यधिक गर्मी से नींद की कमी, थकान और चिड़चिड़ापन बढ़ता है, जो यौन इच्छा (libido) और अंतरंगता (intimacy) पर सीधा असर डालता है। मानसिक अस्थिरता और तनाव भी यौन संतुष्टि और रिश्तों की गुणवत्ता को कमज़ोर करते हैं। इसके अलावा, जलवायु आपदाओं के समय LGBTQIA+ समुदाय और महिलाएँ अधिक असुरक्षित हो जाते हैं। विस्थापन या राहत शिविरों में यौन हिंसा, भेदभाव और असुरक्षित माहौल मानसिक तनाव को और ग़हरा करते हैं। SRHR (Sexual and Reproductive Health and Rights या यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार) सेवाओं तक पहुँच भी सीमित हो जाती है, जिससे गर्भनिरोधक साधनों की कमी, असुरक्षित गर्भपात और यौन स्वास्थ्य संबंधी जटिलताएं बढ़ जाती हैं।
अत्यधिक तापमान, रक्तचाप, मानसिक अस्वस्थता और यौनिकता
उत्तर अमेरिका में हुए एक बड़े अध्ययन के मुताबिक, जब किसी क्षेत्र का औसत मासिक अधिकतम तापमान 30°C से ऊपर चला जाता है, तो वहां लोगों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं (जैसे चिंता, डिप्रेशन, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, आत्महत्या की प्रवृत्ति) का जोख़िम कम से कम 1 प्रतिशत अंक तक बढ़ जाता है। इसी तरह, ताइवान में प्रत्येक 1°C तापमान वृद्धि से डिप्रेशन की दर में 7% की वृद्धि पाई गई। दक्षिण कोरिया की (जौरनल ऑफ़ अफ्फेक्टिवे डिसऑर्डर्स में) एक हालिया स्टडी के अनुसार, 1°C वार्षिक तापमान वृद्धि से मध्यम-गंभीर डिप्रेशन के लक्षणों में लगभग 13% की वृद्धि होती है।
लेकिन इन आंकड़ों का एक और पहलू है, जो अक्सर अनदेखा रह जाता है – यौनिकता और SRHR – मानसिक अस्थिरता और डिप्रेशन सीधे-सीधे यौन स्वास्थ्य पर असर डालते हैं। लंबे समय तक बनी रहने वाली मानसिक अस्वस्थता यौनिक संतुष्टि को कम करती है और कई बार यौन समस्याएं (sexual dysfunction) भी पैदा कर सकती है।
हाशिए पर खड़े समुदाय और महिलाएँ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं और सुरक्षित SRHR सेवाओं की अनुपलब्धता उन्हें दोहरी हाशिये पर धकेलती है। अत्यधिक गर्मी और आपदाओं के समय प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच बाधित होती है। गर्भनिरोधक साधनों की कमी, सुरक्षित प्रसव सेवाओं का संकट और यौन हिंसा का खतरा बढ़ जाता है।
जलवायु आपदाएं, मानसिक आघात और यौनिकता
जैसा कि हम देख रहे हैं, जलवायु आपदाएं केवल घर या आजीविका को नहीं, बल्कि मानसिक और यौनिक स्वास्थ्य को भी गहराई से प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, एक यूके के अध्ययन में पाया गया कि बाढ़ के छह से बारह महीने बाद प्रभावित लोगों में PTSD की दर सामान्य से कई गुना अधिक (30% बनाम 7%) थी। यानी आपदा का असर लंबे समय तक मानसिक आघात के रूप में बना रहता है। बार-बार आने वाले तूफान और विस्थापन केवल ढांचागत नुकसान नहीं करते, बल्कि रिश्तों और सामाजिक जीवन में असुरक्षा और तनाव बढ़ा देते हैं।
प्रौद्योगिकीय, सामुदायिक और दूरस्थ उपचार की आवश्यकता
भारत दुनिया का सातवाँ सबसे जलवायु-असुरक्षित देश है और इसका असर मानसिक स्वास्थ्य और यौनिकता दोनों पर गहराई से दिखता है। 2019 के चक्रवात फानी और महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे सूखा-प्रभावित राज्यों में PTSD, डिप्रेशन और आत्महत्याओं की दर बढ़ी। इन परिस्थितियों ने न केवल मानसिक संतुलन को प्रभावित किया, बल्कि महिलाओं और हाशिए पर समुदायों के लिए यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच को भी सीमित कर दिया।
इसके बावजूद, राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (NMHP, NSPS) और जलवायु कार्य योजनाएं (NAPCC, NAPCCHH) अभी तक मनोवैज्ञानिक और यौनिकता से जुड़े पहलुओं को पर्याप्त रूप से शामिल नहीं करतीं। आपदाओं के समय सुरक्षित प्रसव सेवाओं, गर्भनिरोधक साधनों और यौन हिंसा से सुरक्षा जैसे मुद्दों को मानसिक स्वास्थ्य के साथ समान रूप से प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
ईको-एंग्ज़ाइटी – जलवायु चिंता का नया रूप
वैश्विक सर्वेक्षणों से पता चलता है कि लगभग 60 प्रतिशत युवा जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर रूप से चिंतित हैं, विकिपीडिया के अनुसार, 2021 में किए गए एक अध्ययन में दस देशों के दस हज़ार युवाओं में से करीब 60 प्रतिशत ने जलवायु परिवर्तन को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की।
दिलचस्प बात यह रही कि इस सर्वे में महिलाओं में यह चिंता पुरुषों की तुलना में कई अधिक पाई गई। जहाँ 45 प्रतिशत महिलाएं गंभीर रूप से चिंतित थीं, वहीं पुरुषों में यह अनुपात 36 प्रतिशत रहा। इसका सीधा संबंध यौनिकता और जेंडर भूमिकाओं से भी जुड़ता है क्योंकि महिलाएं और हाशिए पर खड़े समुदाय न केवल जलवायु आपदाओं में अधिक असुरक्षित होते हैं, बल्कि मानसिक दबाव के कारण उनकी यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच भी प्रभावित होती है।
यह प्रवृत्ति बताती है कि विश्व स्तर पर महिलाएं जलवायु संकट से जुड़ी मानसिक बेचैनी और ईको-एंग्ज़ाइटी अधिक गहराई से अनुभव करतें हैं। यही बेचैनी यौनिक रिश्तों की स्थिरता, प्रजनन निर्णयों और SRHR अधिकारों पर असर डालती है। इसलिए जेंडर दृष्टिकोण से मानसिक स्वास्थ्य और यौनिकता पर पड़ने वाले प्रभावों को समझना और भी ज़रूरी हो जाता है।
जलवायु परिवर्तन – एक उभरता हुआ शारीरिक और यौनिक स्वास्थ्य संकट
जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख प्रभाव हमारे नींद पर देखा गया है। जब रात का तापमान सामान्य से अधिक बढ़ जाता है, तो नींद की अवधि और गुणवत्ता दोनों प्रभावित होती हैं। गरीब देशों में, जहाँ एसी या उचित वेंटिलेशन जैसी सुविधाएँ नहीं होतीं, वहाँ यह समस्या और भी गंभीर हो जाती है। वृद्ध लोगों और महिलाओं पर इसका प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक पाया गया, क्योंकि उनका शरीर तापमान में बदलावों के प्रति अधिक संवेदनशील होता है। लगातार बाधित नींद न केवल थकान और चिड़चिड़ापन बढ़ाती है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य और यौनिक जीवन दोनों पर असर डाल सकती है; डिप्रेशन, चिंता और रिश्तों में तनाव इसका परिणाम बनते हैं।
नींद के साथ-साथ तंत्रिका तंत्र पर भी जलवायु परिवर्तन का ग़हरा प्रभाव दिखता है। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) का बढ़ा हुआ स्तर हमारे मस्तिष्क की कार्यक्षमता को सीधा प्रभावित करता है। अध्ययनों से पता चला है कि जब हवा में CO₂ का स्तर अधिक हो जाता है, तो बुनियादी निर्णय लेने की क्षमता लगभग 25% तक घट जाती है। वहीं, जटिल रणनीतिक सोच और समस्या-समाधान की क्षमता में यह गिरावट लगभग 50% तक पहुँच सकती है। यह केवल हमारे काम या पढ़ाई की दक्षता को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि यौनिक और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़े निर्णय जैसे परिवार नियोजन, सुरक्षित यौन व्यवहार या स्वास्थ्य सेवाओं की तलाश को भी कठिन बना सकता है।
विशेष चिंता – मानसिक रोगियों और यौनिक स्वास्थ्य की उच्च जोख़िम स्थिति
जलवायु संकट के बढ़ते प्रभावों के बीच मानसिक रोगियों की स्थिति विशेष चिंता का विषय है। ब्रिटिश कोलंबिया सेंटर फॉर डिजीज कण्ट्रोल की एक स्टडी में पाया गया कि स्किट्ज़ोफ्रेनिया से जूझ रहे लोगों की हीट वेव के दौरान मृत्यु दर सामान्य लोगों की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक होती है। इसके पीछे कई कारक ज़िम्मेदार हैं, सामाजिक अलगाव, दवाइयों के दुष्प्रभाव, तथा शरीर की गर्मी को सहन न कर पाने की क्षमता। यह स्थिति दर्शाती है कि मानसिक रोग केवल मानसिक स्तर तक सीमित नहीं रहते, बल्कि वे जलवायु संकट जैसी बाहरी परिस्थितियों में जीवन और मृत्यु का सवाल भी बन सकते हैं। यही असुरक्षा महिलाओं और हाशिए पर खड़े समुदायों में यौनिक और प्रजनन स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी दिखाई देती है, जहाँ सुरक्षित सेवाओं तक पहुँच संकट के समय और कठिन हो जाती है।
इंडियन जर्नल ऑफ़ साइकाइट्री में प्रकाशित शोध इस ख़तरे को और गहराई से उजागर करता है। इसमें पाया गया कि तापमान में केवल 1°C की वृद्धि आत्महत्या की घटनाओं को लगभग 1 प्रतिशत तक बढ़ा देती है। इसके अलावा, मानसिक रोगों में बदलाव, अस्पतालों में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी आपात स्थितियों की बढ़ोतरी और हीट से संबंधित मौतों का जोख़िम तीन गुना तक बढ़ सकता है।
जलवायु आपदाओं के दौरान यौन हिंसा का बढ़ना और SRHR सेवाओं तक सीमित पहुँच इस बोझ को और बढ़ा देती है। जलवायु आपदाओं के दौरान यौन हिंसा का बढ़ना एक गंभीर लेकिन अक्सर अनदेखा पहलू है। बाढ़, चक्रवात या सूखे जैसी परिस्थितियों में लोग विस्थापित होकर अस्थायी शिविरों और भीड़भरे आश्रयों में रहते हैं, जहां सुरक्षा और गोपनीयता का अभाव होता है। ऐसे हालात में महिलाओं और किशोरियों पर यौन हिंसा का ख़तरा कई गुना बढ़ जाता है। संसाधनों की कमी, सामाजिक ढाँचे और कानून व्यवस्था का कमज़ोर होना, तथा मानसिक तनाव और असुरक्षा, इस समस्या को और ग़हरा बना देते हैं। शोध से पता चलता है कि आपदा और विस्थापन की परिस्थितियाँ न केवल यौन हिंसा की घटनाओं को बढ़ाती है बल्कि पीड़िताओं को न्याय और सहायता तक पहुँचने से भी रोकती हैं।
कुछ प्रमुख निष्कर्ष
जलवायु परिवर्तन सीधे मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है – तापमान वृद्धि से डिप्रेशन और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती है, आपदाओं से PTSD होता है, नींद और संज्ञानात्मक क्षमताओं पर असर पड़ता है। यह प्रभाव यौनिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है – चिंता और अवसाद से यौनिक रिश्तों में तनाव और SRHR सेवाओं से दूरी बढ़ती है।
महिलाएं, युवा और हाशिए पर खड़े समुदाय सबसे अधिक प्रभावित होते हैं – मानसिक और यौनिक स्वास्थ्य दोनों में समानताएं स्पष्ट होती हैं। उन्हें सुरक्षित मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं और SRHR संसाधनों तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए विशेष नीतिगत और सामुदायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
जलवायु आपदाओं और चरम मौसम घटनाओं का दीर्घकालिक प्रभाव – बाढ़, तूफान और हीट वेव जैसी घटनाएँ केवल भौतिक नुकसान नहीं करती, बल्कि मानसिक आघात, यौनिक असुरक्षा और SRHR सेवाओं तक बाधित पहुंच जैसी गंभीर चुनौतियां भी उत्पन्न करती हैं।
प्रौद्योगिकी और सामुदायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता – टेली-साइकेट्री, एआई-आधारित उपकरण, हाइपर-लोकल डेटा और ग्रामीण मानसिक-स्वास्थ्य फर्स्ट-रिस्पॉन्डर्स जैसी पहल से मानसिक स्वास्थ्य और यौनिक स्वास्थ्य दोनों को आपदा-प्रबंधन और जलवायु नीतियों में प्रभावी रूप से जोड़ा जा सकता है।
समग्र नीति और दृष्टिकोण – राष्ट्रीय स्वास्थ्य और जलवायु कार्यक्रमों में मानसिक स्वास्थ्य और SRHR सेवाओं को समान प्राथमिकता देना अनिवार्य है। विशेष ध्यान महिलाओं, LGBTQIA+ समुदाय और अन्य हाशिए पर खड़े समूहों की सुरक्षा और स्वास्थ्य तक पहुँच सुनिश्चित करने पर होना चाहिए।
References
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