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सेक्सलेस इन द सिटी (जिसमें मेरी कोई गलती भी नहीं)

Malini Chib

संपादक की ओर से – जब शरीर और यौनिकता के बीच के रिश्ते की बात की जाती है तो ये चर्चा बहुत जटिल हो जाती है। यहाँ यह कहना आवश्यक नहीं है कि शरीर और यौनिकता में एक गहरा रिश्ता रहा है और समाज ने उन लोगों को हमेशा ही हाशिए की ओर धकेला है जो समाज की बनाई स्वस्थ/सम्पूर्ण शरीर’ की परिभाषा में फिट नहीं होते। मालिनी छिब का यह लेख इसी  ‘संपूर्णता’’ को संबोधित करता है एवं शरीर और यौनिकता के इसी गहन रिश्ते की परतें खोलने की कोशिश करता है। हाल ही में रिलीज़ हुई शोनाली बोस की फिल्म मार्गरिटा विथ अ स्ट्रॉ’ मालिनी के जीवन से प्रेरित है और उनकी किताब वन लिटिल फिंगर’ पर आधारित है।

अगर किसी औरत को कोई आदमी पसंद हो तो वो अपनी अदाओं, अपनी बुद्धि और दिल्लगी से उसे लुभाती है। मैंने देखा है यह हर बार काम आता है। चलो कह सकते हैं कि ‘लगभग’ काम आता है। क्योंकि यह मेरे साथ कभी काम नहीं किया। ऐसा नहीं है कि मुझमें अदाएँ, बुद्धि या दिल्लगी करने की क्षमता नहीं है। बल्कि, उल्टा लोग मुझे बोलते हैं कि भगवान ने यह सब चीज़ें मुझे अति में दी हैं। लेकिन इतनी अति से भी मुझे कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि मैं विकलांग हूँ। आख़िरकार, व्हीलचेयर पर जीने वाली औरतों को सेक्स के सपने देखने की इज़ाज़त जो नहीं।

सेक्स और किसी के नज़्दीक आने के बारे में हर प्रकार के विचार आपके दिमाग में भरे रहते हैं, चाहे आप कोई भी हों। आपको सचेत रूप से उसके बारे में सोचने की ज़रुरत नहीं पड़ती। क्या आपको सेक्स के बारे में कहा जाए तभी आप सोचेंगे? उसी तरह हमें भी किसी के कहने की ज़रुरत नहीं पड़ती। तो क्या हुआ अगर हमारे हाथ-पाँव ठीक से नहीं चलते, या हमारे पास देखने के लिए आँखे नहीं हैं, या फिर हम अपना सारा दिन व्हीलचेयर पर गुज़ारते हैं या फिर हमारे हाथ में जकड़ नहीं है जो अगर कोई हाथ हमारी ओर बढ़े भी तो हम उसे थाम सकें। पता है, लोग अक्सर भूल जाते हैं कि हमारे शरीर में सबसे ज़रूरी सेक्स अंग है हमारा दिमाग। और अगर वो सही है, तो हम चाहें या न चाहें, हम सेक्स के बारे में सोचेंगे।

लेकिन आप अपनी कल्पना को तो नहीं रोक सकते, रोक सकते हैं? आप एक औरत हैं, आपका शरीर है, आपकी भावनाएँ हैं। चाहें या न चाहें, भगवान ने आपको कामना दी है। समस्या इन कामनाओं को पूरा करने में नहीं है। समस्या तब आती है जब आप इनके बारे में बात करना शुरू करते हैं।

तो फिर सेक्स पर पाबंदी एक विकलांग व्यक्ति की कहानी की अंतिम चुनौती बन जाती है। किसी भी बारे में बात करो, लेकिन अगर आप विकलांग हो तो सेक्स के बारे में मत बात करो। आज भी कई समाजों में तो औरत होना अपने आप में एक विकलांगता है। आदमी जो चाहें वो कर सकते हैं, लेकिन औरत को तब भी समाज की ज़रूरतों को ही पूरा करना पड़ता है। औरतों को समाज के बनाए गए अखण्डनीय डब्बों में फिट होना पड़ता है। एक औरत एक परिवार की देखरेख करने वाली, एक माँ, आदमी के साथ सेक्स करने वाली एक ऐसी प्राणी है जिसे खुद कुछ मिले न मिले, लेकिन उसे दूसरों की ज़रुरत को पूरा करते रहना है। एक विकलांग औरत इन भूमिकाओं में से किसी में भी कैसे फिट हो सकती है?

मतलब कि व्हीलचेयर पर जीने वाली औरत होना दोहरी विकलांगता होने जैसा है। क्या कोई ऐसा आदमी जो खुद विकलांग नहीं है, ऐसी औरत के बारे में सोचेगा? क्या वो ऐसी औरत के साथ रिश्ते में जेंडर भूमिकाओं के बदलाव को स्वीकार कर सकेगा? क्या वो अपनी सीमाओं को चुनौती देने के लिए तैयार होगा, क्या वो एक ऐसे शरीर के साथ सेक्स कर पाएगा जो ‘साधारण’ की परिभाषा से कोसों दूर है? क्या उससे यह उम्मीद रखना भी उचित होगा?

तो जहाँ एक साधारण औरत के लिए सेक्स इन द सिटी’ आम बात हो सकती है, एक विकलांगता के साथ जी रही औरत के लिए इसका मतलब है सेक्सलेस इन द सिट’। और इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मैं कौन से शहर में रहती हूँ या जाती हूँ। इसमें वे दोनों शहर भी शामिल हैं जिनमें मैंने अपना अधिकांश जीवन बिताया है – मुंबई और लंदन। मेरा रंग गोरा है और त्वचा चिकनी है, मेरा बौद्धिक स्तर (आई.क्यू.) सामान्य से ऊँचा है, मैंने दो एम. ए. किए हैं, जिसमें से एक मैंने लंदन से किया है। मैं सुन्दर हूँ, विनोदपूर्ण हूँ और आपके साथ तर्क-वितर्क भी कर सकती हूँ। लकिन फिर भी मेरे जीवन में कभी प्रेम का रिश्ता नहीं रहा।

लकिन इसके बारे में मैं उदास नहीं हूँ। चीज़ें बदल रही हैं और तेज़ी से बदल रही हैं। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जो इन सब विषयों पर लिख रहे हैं, जिनपर पहले कभी पाबन्दी हुआ करती थी। वो चुप्पी तोड़ रहे हैं और इसके ज़रिए अन्य लोगों को भी मुक्ति मिल रही है। समस्या यह नहीं है कि मेरे जैसे लोग, जिनकी संख्या लाखों में है, प्रेम या सेक्स के रिश्ते नहीं बना सकते। समस्या यह है कि हम इसके बारे में कल्पना करने से भी डरते हैं। अन्य लोगों के मुकाबले, सामाजिक पाबंदियाँ, विकलांग लोगों को ज़्यादा प्रभावित करती हैं।

लेकिन जैसा कि मैंने कहा, चीज़ें तेज़ी से बदल रही हैं। लोग भी तेज़ी से बदल रहे हैं। विकलांगता के साथ रह रहे लोग भी तेज़ी से बदल रहे हैं। अब उन्हें किसी भी बात से शर्मिंदगी महसूस नहीं होती, फिर चाहे वो उनकी सेक्स की ज़रुरत ही क्यों ना हो। मैंने ऐसी किताबें पढ़ी हैं और ऐसी फिल्में देखी हैं जिसमें विकलांगता के साथ जी रहे लोगों की सेक्स ज़रूरतों को पूरा करने वाले यौन कर्मियों के बारे में बताया गया है। अब हमारी अपनी एक अलग श्रेणी है, और मेरा दिल इस बात से खुश है।

लेकिन अभी और बदलाव आना ज़रूरी है। लोगों की मनोवृत्ति में और ज़्यादा बदलाव की ज़रुरत है, और तेज़ी से बदलाव की। अभी बहुत लम्बा सफ़र बाकि है जब हम सब सच के अपने शिकंजे से बाहर निकल पाएँगे और समाज का एक हिस्सा बन पाएँगे – थोड़े अलग ज़रूर लेकिन फिर भी समाज का एक हिस्सा।

लेकिन हर गैर विकलांग व्यक्ति के मन में यह बात ज़रूर रहती है, ख़ासकर आज के युवाओं के मन में, दया और रहम की भावना, कि ‘हम कितने महान हैं, हम एक विकलांग व्यक्ति की देख रेख कर रहे हैं’ या फिर हो सकता है कि किसी विकलांग व्यक्ति के लिए कोई रिश्ता इतना आरामदायक हो जाए कि वो अपने पार्टनर को ही सब कुछ करने दें। इन दोनों ही स्थितियों में रिश्ता बहुत जल्दी ख़त्म हो जाएगा क्योंकि दोनों ही व्यक्ति एक दुसरे के सही महत्व को नहीं समझते।

सेक्स या भावनात्मक जुड़ाव के लिए दोनों तरफ़ से जुड़ाव होना ज़रूरी है। विकलांगता के साथ जी रहे व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से थोड़ा ज़्यादा देना होगा जिससे कि रिश्ता चल सके। विकलांगता के साथ जी रहे व्यक्ति को ज़्यादा सरलता से समझौता करना होगा।

यह बात नहीं है कि हमें सेक्स मिलता है या नहीं। बात यह है कि हमारे उसके बारे में सोचने या बात करने पर भी पाबन्दी है। जैसे कि अचानक हम अछूत और तुच्छ प्राणी हो गए हैं क्योंकि हम सेक्स के बारे में सोचते हैं, बात करते हैं और उसकी अपेक्षा करते हैं।

मालिनी छिब भारत की एक विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता हैं, जिन्हें सेरिब्रल पाल्सी है। उन्होंने मुंबई के ज़ेवियर कॉलेज से बी.ए. किया है। लंदन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑफ़ एजुकेशन से जेंडर स्टडीज में एम.ए. की डिग्री भी प्राप्त की है। उन्होंने ‘वन लिटिल फिंगर’ किताब भी लिखी है – इसे एक ऊँगली से टाइप करते हुए लिखने में उन्हें दो साल लगे। २०११ में भारतीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय ने मालिनी को विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के सशक्तिकरण पुरुस्कार की ‘रोल मॉडल’ श्रेणी में राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित किया। वर्त्तमान में वे टाटा कंसल्टैंसी सर्विसेज, लंदन में सलाहकार के रूप में काम कर रही हैं।

निधि अग्रवाल द्वारा ‘यौनिकता, जेन्डर एवं अधिकार अध्ययन बाइन्डर, CREA, नई दिल्ली’, के लिए हिन्दी में अनुवादित

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