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घर पर मुझे कभी अपने शरीर को लेकर किसी तरह की टोकाटाकी का सामना नहीं करना पड़ा। मेरे पिता को मेरे मासिक धर्म के बारे में पता था और वो इसके प्रति संवेदनशील थे – हमारे यहां यह कोई छिपाने की बात नहीं थी |

पहले जिन स्त्रीसुलभ व्यवहारों के कारण मुझमें वो मेएलीपन दिखाई देता था, अब वो मेरे जीवन का हिस्सा बन चुका है। वह अब उन सब कपड़ों में जो मैं पहनती हूँ, जिस अंदाज़ में मैं चलती, सोचती और बात करती हूँ या लोक चर्चाओं में भाग लेती हूँ, परिलक्षित होता है।

जीवन में उम्र बढ़ने के साथ, खासकर किशोरावस्था पार होने पर, यौनिकता पर चर्चा में हमेशा ‘सुरक्षित रहने’ पर ही बात होती है – और इसी नज़रिये से यह माना जाता है कि हमारी सुरक्षा इसी बात पर निर्भर करती है कि हम एक विषमलैंगिक-पितृसत्तात्म्क व्यवस्था के अनुरूप किसतरह से व्यवहार करते हैं।

अब समय आ चुका है जब हमें रजोनिवृत्ति (मेनोपॉज़) को लेकर भी एक मी टू आंदोलन की शुरुआत कर देनी चाहिए। अब समय आ गया है कि हम चुप्पी तोड़कर, अपनी यौनिकता, अपनी इच्छाओं, अपनी उम्र का उत्सव बिना किसी ग्लानि या शर्म के मनाना शुरू कर दें। जी बिलकुल, अभी ही वह समय है जब हमें चाहिए कि हम अपने घरों की छतों पर जा चढ़ें और चिल्ला-चिल्ला कर लोगों के सामने ये घोषणा करें, “मूर्खों, मेरा मेनोपॉज़ शुरू हो चुका है लेकिन सेक्स तो मैं अब भी करना चाहती हूँ।

जहाँ तक मुझे याद है, मुझे हमेशा से गुलाबी रंग नापसंद रहा है। बचपन से ही हमेशा मैं कोई भी गुलाबी कपड़ा पहनने या कुछ भी गुलाबी खरीदने से साफ़ इंकार कर देती थी। मुझे कभी यह समझ नहीं आता था कि क्यों मुझे एक खास रंग की चीज़ें सिर्फ इसलिए दिलवाई जाती हैं क्योंकि मैं एक लड़की हूँ।

नेटफ्लिक्स ब्राउज़ करते हुए अनायास ही मेरी निगाह में एक फिल्म आई, वॉट विल पीपल से ? मैं एक ऐसे सामाजिक माहौल में पली-बड़ी हूँ जहाँ हर किसी को दूसरों की, कि लोग क्या कहेंगे की, बहुत परवाह रहती है (अपना क्या विचार है, इसकी परवाह उतनी नहीं होती) और शायद इसीलिए फिल्म के शीर्षक के कारण मेरा ध्यान बरबस इसकी ओर गया और मुझे इसे देखने की उत्सुकता हुई।

मेरे लिए हैरानी की बात यह है कि मुझे कुर्तियाँ पहनने में उतनी घबराहट कभी नहीं हुई जितनी कि मुझे तब होने लगती है जब मुझे अपने कपड़ों की अलमारी में टंगे हुए किन्ही खास मौकों (आम तौर पर मेरी माँ इसका फैसला लेती हैं) पर पहने जाने वाले महिला परिधानों को पहनने के लिए कहा जाता है। बाकी आम दिनों में मैं पुरुषो से संभंधित जो पहनावा जाना जाता है वैसे कपड़े पहनना पसंद करती हूँ।

अपने बालों से मेरा संबंध हमेशा से ही उलझन भरा रहा है। मुझे याद है बचपन में मेरे बाल बहुत ज़्यादा घने और बिखरे हुए भी थे और मुझे और मेरी माँ को रोज़ इन्हे सँवारने में मशक्कत करनी पड़ती थी। मुझे जानने और मिलने वाली ज़्यादातर लड़कियों के बाल सीधे, नरम और रेशमी हुआ करते थे और उससे मेरी तकलीफ़ें कम होने की बजाए बढ़ जाती थीं।

सरपट दौड़ी चली जा रही ट्रेन से बाहर की ओर झलक कर, मैं अंधेरे में पीछे छूटी जा रही रेल की पटरियों को देखती हूँ। चलती ट्रेन से अंधेरे में डूबा मुंबई शहर नज़र आ रहा है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से पनवेल जा रही आख़री लोकल के सेकंड क्लास के महिला कम्पार्टमेंट के जिस डिब्बे में मैं सफर कर रही हूँ, वह पूरी तरह से खाली है। तीन सालों से दिन में लोगों की भीड़ से खचाखच भरे स्टेशन और लोकल ट्रेन के शोर भरे माहौल में सफर करते रहने से शोर-ओ-गुल की इतनी ज़्यादा आदत हो चुकी है कि खाली डिब्बे में अकेले सफर करना भयावह सा लगता है। मैं जो गाना सुन रही थी वो अब खत्म हो चुका है और अगला गाना शुरू होने से पहले के सन्नाटे में मुझे ट्रेन के चलने की ताल सुनाई दे रही है।

2006 में जब पहले-पहल मैं दिल्ली आई, उस समय मेरी उम्र 22 वर्ष की थी और मुझे यौनिक व्यंग्य या कटाक्षों के बारे में बिलकुल भी जानकारी नहीं थी। उन दिनों एफ़एम रेडियो पर ‘Fropper’ नाम की एक मशहूर डेटिंग/’दोस्ती’ करने की साइट का विज्ञापन चला करता था, और मैंने एक बार कॉल सेंटर की अपनी नौकरी के लिए कैब में सफर करते हुए इसके बारे में सुना था। मैं ऑनलाइन डेटिंग की दुनिया से थोड़ी अनजान थी (ईमानदारी से कहूँ तो ये ऑनलाइन डेटिंग उन दिनों बहुत नई चीज़ थी, ये बात ऑर्कुट ओर फेसबुक के पहले के दिनों की है)। अपनी पहली ब्लाईंड डेट पर मेरी मुलाक़ात एक 44 साल के आदमी से हुई, जिसने अपने प्रोफ़ाइल में खुद को 22 का बताया था। हम कनाट प्लेस में मिले थे।  

इस सहस्त्राब्दी के आरंभिक वर्षों में नई पीढ़ी के अधिकांश लोगों नें शायद अपनी पहली ईमेल आइडी बनाई होगी या अकाउंट तैयार किया होगा। वर्ष 2004 आते-आते ऑर्कुट की सोशल नेटवर्किंग वेबसाईट शुरू हो चुकी थी जो अब शायद चलन में नहीं रही है। उस समय कंप्यूटर स्क्रीन के सुरक्षा घेरे के पीछे सेअपने सभी नए व पुराने दोस्तों, मित्रों और स्वजन स्नेही जनों से संपर्क कर पाना कितना सुखद लगता था। उम्र के दूसरे दशक में प्रवेश पाने वाली मैं, उस समय अपने दोस्तों के सामने अपने मन के भावों को प्रकट नहीं कर पाती थी।

एक और सच ये भी है की यौनिकता सम्बंधित सहयोग देना जटिल है। नैतिकता, सामाजिक परिवेश, स्वीकार्यता, मौजूद रिश्तों की सामाजिक सीमाएं, इन सब को ध्यान रखते दोस्तों तक से यौन विमर्श, या यौनिकता के बारे में साधारण बातचीत भी, मुश्किल हो जाती है। ऐसे में सहयोग माँगना तो और भी मुश्किल है। 

यौनिकता में नूतनता और इनोवेशन की बात करते समय मैं लोगों के अनुभवों की बात कर रही हूँ।लोगों के जीवन की बात कर रही हूँ। चाहे वह कार्यक्षेत्र हो, शिक्षा, परिवार, समाज, अध्यात्म, भोजन, BDSM, खेल, बहुप्रेमी प्रथा, संगीत, या उनके यौन सम्बन्ध; जो लोग अपने अनुभवों को एक दूसरे सेजोड़ते हैं, वे अपना एक व्यक्तिगत, निजी, विशिष्ट प्रकार का यौन अनुभव बना पाते हैं।

जब कभी भी यौनिकता के संदर्भ में जोखिम की बात होती है, तो प्राय: लोग ऐसे लोगों के बारे में ही सोचते हैं जिनके एक से ज़्यादा यौन साथी हो। यौनिकता के ही संदर्भ में, अगर थोड़ा और अधिक खुले मन से विचार किया जाये तो शायद जोखिम को सेक्स के लिए सहमति के अभाव के साथ या सुरक्षित सेक्स न अपनाए जाने के संदर्भ में भी समझा जा सकता है। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ होगा की सिस जेंडर (वे व्यक्ति जिनकी व्यक्तिगत जेंडर पहचान उनके जन्म के समय दिए गए जेंडर से मेल खाती है) विषमलैंगिक लोगों के वैवाहिक जीवन के संबंध को भी जोखिम के रूप में देखा गया हो।

बहुत बार मैंने अपने चेहरे को पूरी तरह से शेव किया है लेकिन ऐसा करना मुझे खुद को अच्छा नहीं लगता। ऐसा करके फिर मेरे मन में एक सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या मुझे अपने चेहरे को पूरी तरह से शेव करना इसलिए पसंद नहीं है क्योंकि मुझे स्त्रीत्व के गुण दर्शाने का डर सताता है जो बचपन से ही मेरे मन में भर दिया गया था जब मैं लड़कियों कि तरह व्यवहार करती थी, बातें करती थी या लड़कियों की तरह चलती थी। मेरी शकल-ओ-सूरत के बारे में लोगों की टिप्पणी सुन कर मैं बहुत ज़्यादा सचेत हो जाती हूँ, और फिर घंटों तक मुझे अपने से ही घृणा होने लगती है।

जाति और यौनिकता के बीच सामाजिक तौर पर स्वीकृत प्रथाओं के माध्यम से निभाए जाने वाले संबंध हमेशा से ही बहुत जटिल रहे हैं और इन प्रथाओं के चलते जहाँ समाज के प्रभावी वर्ग को इनका लाभ मिलता है, वहीं कमजोर वर्ग इनसे और अधिक वंचित किया जाता है। भारत में, दमन करने की ब्राह्मणवादी प्रथाएँ अनेक रूपों में लागू की जाती हैं। सामाजिक समावेश और अलगाव के आधुनिक तरीकों से पहचान को कैसे दबाया जाता है, यह समझने के लिए हमें बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं होती।

मुझे लगता है कि बहुत से लोगों ने मेरे बारे में कई तरह के अंदाजे इसलिए लगाए होंगे क्योंकि शायद वे किंक को भी LGBT का भाग समझते हैं। मुझे व्यक्तिगत तौर पर उनकी इस जानकारी और इस तरह के निष्कर्ष निकाल लेने से फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें यह चाहिए कि वे किंक को LGBT से अलग करके देखना शुरू कर दें।

अगर दलित नारीवादी दृष्टिकोण से देखा जाए तो हमारा ध्यान निश्चित ही जाति, यौनिकता और श्रम करने वालों के बीच इस तरह दिखाए जाने वाले इस संबंध की ओर आकर्षित होगा। चाची 420 फ़िल्म तो केवल एक उदाहरण है कि किस तरह समाज में जाति के आधार पर सामाजिक वर्ग अनुक्रम में स्त्रीत्व गुणों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया जाता है और सिनेमा का माध्यम भी इसे चित्रित कर मजबूती देता है।

मंजुला प्रदीप एक वकील हैं और नवसरजन ट्रस्ट की कार्यकारी निदेशक रह चुकी हैं। नवसरजन ट्रस्ट जमीनी स्तर पर दलितों के सशक्तिकरण के लिए काम कर रही एक अखिल भारतीय संस्था है। इस समय मंजुला, पुणे की संस्था मानुस्की में फ्रीलान्सर आधार पर बतौर वरिष्ठ कंसल्टेंट काम करती हैं। मानुस्की संस्था भारत में “उपेक्षित समुदायों में नेतृत्व विकास के क्षेत्र में काम करती है।” इस इंटरव्यू में मंजुला ने अलग-अलग दृष्टिकोणों से जाति, यौनिकता और जेंडर के बीच के सम्बन्धों पर हमसे बात की।

इन प्लेनस्पीक के लिए 2 भागों में लिए गए इस इंटरव्यू के लिए शिखा आलेया ने कुछ ऐसे लोगों से बातचीत की जो अपने काम, अपनी कला के माध्यम से लगातार नए मानदंड स्थापित करते रहे हैं और जिन्होंने सामाजिक मान्यताओं और विविधता व यौनिकता के बारे में अपनी समझ और जानकारी को बढ़ाने के प्रयास लगातार जारी रखे हैं। प्रस्तुत है इस इंटरव्यू का दूसरा भाग।

इन प्लेनस्पीक के लिए 2 भागों में लिए गए इस इंटरव्यू के लिए शिखा आलेया ने कुछ ऐसे लोगों से बातचीत की जो अपने काम, अपनी कला के माध्यम से लगातार नए मानदंड स्थापित करते रहे हैं और जिन्होंने सामाजिक मान्यताओं और विविधता व यौनिकता के बारे में अपनी समझ और जानकारी को बढ़ाने के प्रयास लगातार जारी रखे हैं। प्रस्तुत है इस इंटरव्यू का पहला भाग।

स्वाधीनता मिलने पर जहाँ भारत को यह सभी जटिल ज्ञान और जानकारी विरासत में मिलीं, वहीं एक नए देश के निर्माण का दायित्व भी इसे विरासत में ही प्राप्त हुआ। इस नए स्वाधीन हुए देश को पहले ही इसकी विविधता की जानकारी दे दी गयी थी, लेकिन अब इसके सामने संगठित बने रहना सीखने की भी चुनौती थी।

लेकिन, केवल डिजिटल मीडिया को ही दोष देते रहने से छोटी उम्र में प्रेम विवाह किए जाने के वास्तविक कारणों पर पर्दा पड़ा रहता है। छोटी उम्र में प्रेम विवाह किए जाने के अनेक और विविध कारण होते हैं। मोबाइल फोन या इंटरनेट के प्रयोग पर पाबंदी लगा कर छोटी उम्र में विवाह के होने की समस्या का हल खोजने की कोशिश करना दरअसल इस कोशिश को सही साबित करने का एक सरल तरीका है। 
तारशी द्वारा वर्ष 2010 में ‘भारतीय संदर्भ में यौनिकता और विकलांगता’ कार्यशील परिपत्र (वर्किंग पेपर) निकाला गया था। इस पेपर को वर्ष 2018 में भारत में यौनिकता और विकलांगता के समकालीन परिदृष्य से पुनः देखा गया और नए कानून और नीतियों के साथ-साथ बदलाव की अन्य कहानियों को शामिल कर इसी शीर्षक के साथ अपडेट करके इसे दोबारा प्रकाशित किया गया है।…यौनिकता और विकलांगता एक ऐसा अन्तःप्रतिच्छेदन (इंटरसेक्शन) है जो नया तो नहीं है लेकिन जिस पर ज़्यादा बातचीत भी नहीं हुई है। तारशी के वर्किंग पेपर के ज़रिए इसी संबंध को समझने की कोशिश कि गई है; प्रस्तुत हैं उसी पेपर के कुछ अंश और उसपर आधारित विचार।
यदि आप स्वयं की देखभाल के विषय में चर्चा करें तो इसके महत्व को स्वीकार करने में किसी को भी ज़्यादा वक़्त नहीं लगता है, पर जब स्वयं की देखभाल के तरीकों को अपनाने या उनके लिए समय निकालने की बात होती है तो हम सभी थोड़े कंजूस हो जाते हैं। अक्सर हमें लगता है कि ये तकनीक या तो बहुत समय लेने वाली या बहुत खर्च वाली होंगी। प्रस्तुत है, शेरिल रिचर्डसन की लिखी किताब ‘द आर्ट ऑफ़ एक्सट्रीम सेल्फ-केयर’ (The Art of Extreme Self-Care) का एक सारांश जिसमें उन्होंने स्वयं की देखभाल से जुड़ी कुछ सरल तकनीकों के बारे में बताया है। इस लेख में मैंने शेरिल की बताई बातों को अपने परिवेश में ढालकर देखने की कोशिश की है, इसलिए आपको इस लेख में, किताब को पढ़ने के दौरान, मेरी मनःस्थिति की झलक भी मिलेगी। 
…अगर हम देखभाल और यौनिकता के संयोजन को देखें तो देखभाल में विचार-विमर्श (यौनिकता में इच्छा की सहजता के विपरीत) और इसमें नियमितता (यौनिकता में जुनून की ताज़गी के विपरीत) का अर्थपूर्ण होना ही एक अकेला विरोधाभास नहीं है। देखभाल आमतौर पर किसी दूसरे (युवा, वृद्ध, बीमार) के लिए अनुकूलन, स्वयं की तबाही का प्रतीक भी है। यहाँ पर देखभाल को आसानी से उन कामों में मान लिया जाता है जिन्हें औरतों के कार्य कहा जाता है।
…मैंने समझ लिया है कि ब्यूटी पार्लर ऐसे स्थान हैं जहाँ उपभोक्तावाद, पूंजीवाद और पितृसत्ता सबसे क्रूरतापूर्ण तरीके से घुलमिल जाते हैं। एक बुराई न निकालने वाले, खुशनुमा और सकारात्मक जगह की तलाश में मैं एक पार्लर से दूसरे में जाती रही। एक जगह जो मुझे कम बदसूरत दिखने के लिए ज़्यादा पैसे खर्च करने की सलाह न दे। निस्संदेह, मुझे अपने पैसे खर्च करने या न खर्च करने का निर्णय लेने का उतना विशेषाधिकार तो प्राप्त है। 
…बड़े होते समय, मुझे लगता था कि यह प्रबलता एक दिन कम हो जाएगी; लेकिन यह कभी नहीं ख़त्म हुई। असल में, यह हर दिन बढ़ती गई। बचपन में इसने मुझे बहुत अकेला बना दिया था। मुझे लगता था जैसे पूरे ब्रह्मांड में मैं अकेला ही था जिसे इस तरह महसूस होता था। स्कूल में, मेरी भावनाओं और संघर्षों के बारे में बात करने के लिए कोई नहीं था। मैंने स्कूल में पैंट और शर्ट पहनने के लिए अधिकारियों के साथ कड़ी लड़ाई की। मेरे टीचर इसके बारे में बिल्कुल भी नहीं समझ रहे थे। और मेरे कोई दोस्त नहीं थे। मैंने अपने जेंडर के बारे में अपने परिवार से भी बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया।
ट्रांसजेंडर लोगों से सम्बंधित विषयों पर यूं तो अनेक संगठन काम कर रहे हैं लेकिन फिर भी, बहुत कम महिला से पुरुष ट्रांसजेंडर व्यक्ति समाज के सामने अपनी पहचान उजागर कर पाते हैं… विकलांगता, यौनिकता, जाति और वर्ग भेद के चौराहे पर खड़े किरण इस बारे में अपना नज़रिया और अपने अनुभव साझा करते हैं। वे ज़मीनी स्तर पर यौनिकता और विकलांगता से जुड़े विषयों पर काम करने वाले अनेक संगठनों के संस्थापक हैं। शिखा अलेया ने किरण के साथ अंग्रेजी और हिंदी में कई इंटरव्यू किए और इन्हीं चर्चाओं के आधार पर इस इंटरव्यू में किरण के विचार और उनका नज़रिया प्रस्तुत है।

ज़ाम्बिया में विकलांगता के साथ रह रहे लोगों की संख्या लगभग 20 लाख है और देश के किसी भी अन्य नागरिक की तरह उनमें भी एचआईवी संक्रमण होने का खतरा है। पिछले एक दशक के दौरान ज़ाम्बिया में एचआईवी की रोकथाम और इसके उपचार करने के प्रयासों में बहुत प्रगति हुई है लेकिन एचआईवी के विरुद्ध इस लड़ाई में विकलांग लोग अभी भी सम्मिलित नहीं किए गए हैं।

विकलांगता क साथ रहने वाले बच्चों और युवाओं को यौनिकता के बारे में शिक्षा देने के कार्यक्रमों में शामिल ना किए जाने का मुख्य कारण यही होता है कि हम उन्हें या तो ‘सेक्स-विहीन’ मानते हैं और इस कारण से यह समझ लेते हैं कि इन्हें यह जानकारी देने की कोई ज़रुरत नहीं है। या फिर इसके ठीक विपरीत अक्सर इन्हें ‘यौन रूप से आवेगी’ और ‘नियंत्रण से बाहर’ मान लिया जाता है और समझा जाता है कि ऐसे लोगों को ये जानकारी नहीं दी जानी चाहिए। दोनों ही विचार वास्तविकता से दूर हैं और सही तरीके से जानकारी और अवसर दिए जाने में बाधक हैं क्योंकि हर युवा व्यक्ति का यह मौलिक अधिकार है कि उन्हें अपने विकास की प्रक्रिया के बारे में सही और सकारात्मक जानकारी मिले, भले ही उनका बौद्धिक स्तर कुछ भी क्यों न हो।

यौनिकता और स्वयं की देखभाल (सेल्फ केयर) अपने आप में दो व्यापक अवधारणाएं हैं। यौनिकता, जैसा कि हम जानते हैं, सेक्स से कहीं ज़्यादा है और कई पहलुओं से संबंध रखती है जिसमें शारीरिक छवि, आत्म-छवि, भावनाएँ, यौनिक पहचान आदि शामिल हैं। स्वयं की देखभाल भी एक व्यापक शब्द है, लेकिन सरल शब्दों में कहें तो, यह दर्शाता है कि व्यक्ति स्वयं की देखभाल करने और खुशहाली प्राप्त करने के लिए क्या करते हैं।…

…स्वयं के बारे में मेरे दृढ़ विश्वास ने मेरी वांछनीयता के यकीन पर भी असर किया। क्या आपने कभी ये पुरानी कहावत सुनी है, “कोई और आपसे प्यार कर सके उससे पहले आपको खुद से प्यार करना होगा”? खैर, जब मैं बड़ी हो रही थी तो शायद इस बात के सही मतलब से कोसों दूर थी। मुझे इतना बुरा, इतना बदसूरत, इतना घृणित महसूस होता था कि मैं खुद को प्यार करने के लिए भी कभी प्रेरणा नहीं जुटा पाई। कोई भी, कभी भी, कैसे मुझसे प्यार कर सकता है? जब मैं खुद को ही कभी खुद की देखभाल करने के लिए तैयार नहीं कर सकी, तो कोई और मेरी देखभाल क्यों करेगा?

… अधिकाँश लोगों को लगता है कि विकलांगता और यौनिकता के बीच कोई सम्बन्ध नहीं होता – सिवाय तब जब वे हिंसा के मामलों के बारे में सुनते हैं। उन्हें लगता है कि विकलांग लोगों को अपनी यौनिकता, इच्छाओं, ज़रूरतों या रुझानों के बारे में ज़्यादा जानने की ज़रुरत ही नहीं होती क्योंकि वे तो मूल रूप से यौन-रहित होते हैं। अगर ऐसे विकलांग लोग किसी तरह जीवित रह पाते हैं, उन्हें भरपेट भोजन मिल जाता है और वे कुछ कमा भी लेते हैं तो उनका जीवन तो वैसे ही उनकी अपेक्षाओं से कहीं अधिक सफल हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में आनंद पाना एक बहुत ही अलौकिक वस्तु हो जाती है क्योंकि विकलांग होकर केवल जीवित रह पाना ही अपने आप में बड़ी बात है, आनंद के बारे में सोचना तो बहुत अधिक की आशा करने जैसा है!

… एक अन्य बात जिसे विकलांगता के साथ रह रहे व्यक्ति अक्सर अनदेखा कर देते हैं वह यह कि दिल टूटना और अस्वीकार कर दिया जाना हर सम्बन्ध में होता है भले ही आप विकलांगता के साथ रह रहे हों या नहीं। दुनिया भर में सैंकड़ों लोग, जो किसी भी तरह से विकलांग नहीं होते, हर साल केवल इसीलिए आत्महत्या करते हैं क्योंकि उन्हें तिरस्कार मिला होता है या उन्हें कोई धोखा देता है। इसलिए अस्वीकार किया जाना या दिल टूटना कोई ऐसी घटना नहीं है जो केवल विकलांग लोगों के साथ ही होती हो।

… विकलांगता के साथ रह रहे लोगों की समस्याओं को सामने लाने की वर्तमान प्रक्रिया में केवल विकलांगता को ही प्रमुख माना जाता रहा है और विकलांगता के साथ रह रहे लोगों में जेंडर विशेष की समस्याओं, खासतौर पर विकलांग महिलाओं की तकलीफ़ों को नज़रंदाज़ किया जाता रहा है। यह चिंता का विषय है और इस समस्या के समाधान के प्रयास किए जाने चाहिए। किसी विकलांग महिला को अपने जेंडर या यौनिकता के कारण दुगने या तगुने भेदभाव और अलगाव का सामना करना पड़ता है लेकिन इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं जाता।

… ये यादें उस समय की हैं जब मैं किशोरावस्था और यौवन के बीच की देहलीज़ पर खड़ी थी जब दोस्तों के बीच आमतौर पर प्रेम, आकर्षण जैसे विषयों पर ही बातचीत होती है। लेकिन मैं अपने उस अनुभव के बारे में और उस लड़के के बारे में किसी को भी नहीं बता सकी और इसका कारण यह था कि वह लड़का, जिससे मेरे सम्बन्ध रहे थे, डाउन सिंड्रोम के साथ रह रहा था जो कि एक तरह की बौद्धिक विकलांगता है।

… सुश्री रत्नम आगे बताती हैं कि देवदासी प्रथा के समाप्त होने के बाद, देवदासियों के जीवन की समझ न रखने वाले दर्शकों के बीच भरतनाट्यम नृत्य को स्वीकार्य बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी था कि इस शैली में से श्रृंगार रस को कम कर इसे भक्ति उन्मुख किया जाए। एक तरह से देवदासी प्रथा अब प्रासंगिक नहीं रह गयी थी और स्टेज पर नृत्य के माध्यम से इसके चित्रण को केवल आंशिक रूप से ही पुन: शुरू किया जा सकता था। नृत्य में से श्रृंगार को कम करने से इसे फिर प्रचलित करने में सहायता मिली और अब कलाकार को इस नृत्य शैली को नए नज़रिए से देखने और जेंडर व यौनिकता की नयी समझ से अनुरूप प्रस्तुत करने का अवसर मिलने लगा।

… यह लेख हिजड़ा समुदाय पर शोध करते हुए इस बात को समझने का प्रयास है कि हिजडों की भूमिका पर अपना मत रखने के क्या अर्थ हैं और हिजड़ा बनने की प्रक्रियाएँ क्या हैं। यह अध्ययन दिल्ली, भारत, में रहने वाले हिजड़ा समुदाय के नृजातीय (Ethnographic) अध्ययन पर आधारित है और सामाजिक अंग के रूप में हिजड़ा समुदाय के जन्म का अन्वेषण करता है। समाज में प्रचलित अनेक तरह के पूर्वाग्रहों और असहिष्णुताओं के कारण हिजड़ा समुदाय हमेशा से समाज के हाशिए पर घोर गरीबी में जीवन व्यतीत करता रहा है, जिसे सामान्य जीवन की सभी प्रक्रियाओं से बाहर रखा गया।

… विवाह के बाद कनाडा में रहने वाली अपनी बड़ी बहन को पहला पत्र लिखते हुए (फिल्म इसी सीन से शुरू होती है) वह अपने इस नए घर और ससुराल के लोगों के बारे में बताती हैं, ख़ास तौर पर, अपने घर में इस खुली जगह के बारे में जहाँ से, वह घंटों तक, अपने जन्म-स्थान, अपने शहर को देख सकती हैं। लेकिन, फिल्म में आगे चलकर, बालकनी की यही छोटी सी जगह – जो घर के बाहर और भीतर, निजी और सार्वजनिक तथा स्वतंत्रता व् घुटन की अनिश्चितता के बीचों-बीच टिकी है – रोमिता और उनके पति पलाश के बीच घरेलु कलह में, विवाद का एक मुद्दा बन जाती है।

… ‘परिवार’ और ‘यौनिकिता’ शब्द एक साथ लिख कर खोजने पर गूगल पर कुछ दिखाई नहीं देता। हालांकि यहाँ ‘बाल यौन शोषण’, ‘किशोर एवं यौनिकता’, ‘यौन साथी की अदला-बदली करने वाले दम्पति’ और ‘ऐतिहासिक काल से संस्कृतियों में यौनिकता’ जैसे विषयों पर अनेक अकादमिक अध्यनन दिखाई पड़ते हैं। थोड़ा और ढूँढने पर किसी व्यक्ति की यौनिकता के विभिन्न पहलुओं और उन व्यक्ति के अपने परिवार और दुनिया के साथ संबंधों पर कुछ फिल्में भी दिखाई पड़ती हैं। संभव है कि कुछ पुस्तकों की जानकारी भी यहाँ हो।

… ‘परिवार’ और ‘यौनिकता’ दोनों की ही किसी भी व्यक्ति के निजी जीवन में बहुत जटिल भूमिका होती है। ये दोनों ही किसी व्यक्ति के जीवन में अनेक तरह की भावनात्मक उलझने पैदा करते हैं और वास्तविकता यही है कि इनके कारण व्यक्ति को अनेक बार दिल टूटने के अनुभव से गुजरना पड़ता है। इसलिए इसमें कोई हैरानी नहीं कि इन दोनों के बारे में लोगों के मन में केवल एक ही दुविधा होती है कि इन्हें स्वीकार कैसे किया जाए – जैसे परिवार द्वारा यौनिकता को स्वीकार किया जाना; परिवार के प्रत्येक सदस्य के विचारों और तरीकों को दुसरे सदस्यों द्वारा स्वीकार किया जाना, ख़ासकर तब जब सबके विचार एक दुसरे से अलग हों; एक पारंपरिक परिवार के परिप्रेक्ष्य में अपनी खुद की यौनिकता को स्वीकार कर पाना आदि-आदि।

… आज हम ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहाँ रोज़ ही अलग-अलग तरह की परिवार व्यवस्थाएँ बन रही हैं। अब वे दिन नहीं रहे जब जन्म देकर ही संतान पायी जा सकती थी या विवाह केवल परिवार की रजामंदी से ही होते थे या परिवार की उत्पत्ति केवल विवाह के आधार पर ही होती थी। लोगों के व्यवहार करने के तरीके में, एक दुसरे के साथ, जो उनके अन्तरंग हैं उनके साथ, दुनिया के बारे में जिनके साथ साझी सोच है उनके साथ और जो स्वीकृत सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को बदलने के लिए तैयार हैं, उनके साथ अब बदलाव आया है।

… मुझे अपने शोध के दौरान मिली जानकारी से यही पता चला है कि किशोरों में रोमांटिक प्रेम संबंधों को उनके माता-पिता अक्सर ‘ध्यान भटकाने वाला’ करार देते हैं जिससे पढाई पर ‘बुरा असर’ पड़ता है, जो ‘जोखिम से भरा’ है और एक ऐसा काम है ‘जिसे नहीं किया जाना चाहिए’। प्रेम करने के बारे में सिर्फ़ पढाई ख़त्म हो जाने के बाद ही सोचना चाहिए। लेकिन यह सोच इस सत्य को मिटा नहीं सकती कि किशोर प्रेम सम्बन्ध बनाते हैं और यौन सम्बन्ध भी!

… देश में मानसिक स्वास्थ्य की सार्वजनिक सेवायों की दुर्दशा और अत्यंत महंगे निजी मानसिक उपचार, जो केवल कुलीन वर्ग के लिए सीमित है, के चलते इस तरह के अधिकाँश लोगों को किसी भी तरह की मदद या सेवा नहीं मिल पाती है। हमारे देश में मनोसामाजिक विकलांगता के बारे में जानकारी का अभाव है और इससे जुड़े ज़्यादातर अनुभव देश में विद्यमान जादू-टोने या धार्मिक अंधविश्वासों के माध्यम से दिखाई पड़ते हैं।