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Interview: Pinki Pramanik

In Plainspeak English Audit In Plainspeak English Audit 100% 10 A picture of athlete Pinki Pramanik. Her hair is tied in a ponytail and she is looking away to her right Screen reader support enabled. A picture of athlete Pinki Pramanik. Her hair is tied in a ponytail and she is looking away to her right

संपादक की ओर से पिंकी प्रमानिक एक भारतीय ट्रैक एथेलीट हैं जो ४०० मीटर एवं ८०० मीटर दौड़ में विशेषज्ञ हैं। प्रमानिक ने राष्ट्रीय ४ x ४०० मीटर रिले टीम के साथ सफलता प्राप्त की है, उन्होंने २००६ के राष्ट्रमंडल खेलों में रजत, २००६ के एशियाई खेलों में स्वर्ण और २००५ के एशियाई इंडोर खेलों में स्वर्ण पदक जीते हैं। पिंकी प्रमानिक जून २०१२ से एक कानूनी लड़ाई लड़ रही थीं। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने १२ सितम्बर, २०१४ को पिंकी प्रमानिक के खिलाफ़ तय किए सभी आरोपों को खारिज कर दिया और धारा 417/376/325/493/420/506 आईपीसी के तहत कथित अपराधों से उन्हें मुक्त कर दिया। अन्य अपराधों के साथ, उन पर गंभीर चोट और आपराधिक धमकी देने, बलात्कार करने एवं धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया था। श्री आनंद ग्रोवर, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में पिंकी प्रमाणिक के लिए बहस की।

Anisha Dutt: आपने कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रतिष्ठित पुरस्कार जीते हैं, एक भारतीय ट्रैक एथलीट के रूप में अपनी यात्रा के बारे में हमें कुछ बताएँ।

Pinki Pramanik: मैं आपको अपनी यात्रा के शुरुआत का एक वाक़या बताती हूँ। मैं पहली बार कलकत्ता आई थी खेलने के लिए और जिस दिन मैं फाइनल के लिए दौड़ने वाली थी, मेरे दौड़ने से पहले मेरे जूते चोरी हो गए थे। मेरे पास कोई और उपाय नहीं था और मैंने बिना जूतों के ही दौड़ने का फ़ैसला किया। तभी किसी ने मुझे जूते उपहार के रूप में दिए और उन्हीं जूतों को पहन कर मैंने दौड़ में हिस्सा लिया और रिकॉर्ड भी बनाया। मेरे खेल जीवन का ये एक सुखद अनुभव था। और भी बातें हैं जो इतनी सुखद नहीं थीं। शुरुआत में एक बार मैं एक कैंप में थी और वहाँ लोग मुझे अजीब तरह से देखते थे। वे मेरे पहनावे पर टिप्पणी कर रहे थे और कहते थे कि मैं गाँव से आई हूँ। वो बातें उस वक्त बहुत बुरी लगती थीं।

जब पहली बार मैं एशियाई जूनियर एथलेटिक चैंपियनशिप में हिस्सा लेने बैंकॉक जाने वाली थी तब मेरे पास पासपोर्ट भी नहीं था। तब मेरे पापा मेरे कागज़ात देने के लिए आए थे। वापस जाते समय मेरे पिताजी की जेब काटने के लिए उन्हें ट्रेन में किसी ने कुछ खिला कर बेहोश कर दिया था। बेहोशी की हालत में मेरे पिताजी ट्रेन के आख़िरी स्टेशन तक चले गए। वहाँ पर जब ट्रेन के टीटी ने मेरे पिताजी के बैग में कुछ पहचान पत्र ढूंढने की कोशिश की तो मेरी फोटो और अखबार की खबरें आदि देखकर उन्होंने मेरे पापा को घर के पास वाले स्टेशन पर उतार दिया। तब मुझे पहली बार एहसास हुआ कि आज मेरे खेल की वजह से मेरी पहचान है और उसी वजह से मेरे पापा को घर तक छोड़ा गया नहीं तो शायद आज वो कहाँ होते ये किसी को पता नहीं होता।

अपने खेल जीवन की सबसे दुखद बात जो मुझे लगती है वह ये है कि मैंने इतने सारे पदक जीते, अपने देश का नाम ऊँचा किया, फिर भी मुझे इतनी परेशानियाँ झेलनी पड़ी। भारत में एथलीट्स को इतना महत्व नहीं दिया जाता है जितना बाहर के देशों में धावकों को दिया जाता है। मुझे भी बार-बार इन सब परीक्षणों से गुजरना पड़ा। पर इन सब के बाद भी आज मुझे इतनी इज़्ज़त मिलती है, मुझे एक अंतराष्ट्रीय खिलाड़ी के रूप में जाना जाता है, यह मेरे लिए गर्व की बात है। इन्हीं सब कारणों की वजह से मैं अपने खेल के जीवन को इतना ज़्यादा याद करती हूँ।

AD: भविष्य में हाइपरएन्ड्रोजेनिस्सीम या सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट को विभिन्न खेलों के तंत्र या सिस्टम से हटाकर सभी जेंडर के लोगों को स्वतंत्र रूप से प्रतिस्पर्धा करने के लिए अनुमति देना और उनके प्रदर्शन / क्षमताओं का विश्लेषण करने के लिए एक मानक प्रणाली के होने के विषय में आपके क्या विचार हैं?

PP: मुझे लगता है कि ऐसे नियमों को बिलकुल खत्म कर देना चाहिए, और ऐसा कोई सिस्टम नहीं होना चाहिए। जब कोई भी खिलाड़ी ठीक से खेल रहे हैं, तो हमें उनकी प्रतिभा की सराहना करनी चाहिए न कि उनके खेल पर सवाल खड़ा करना चाहिए। कभी-कभी हम खिलाड़ी के हॉर्मोन्स के स्तर को लेकर सवाल उठाते हैं, जो मेरे हिसाब से गलत है। मुझे इस बात का पहली बार एहसास तब हुआ जब मैं अपने स्कूल की तरफ़ से खेलती थी, उस वक्त लम्बाई (हाइट) के आधार पर चयन होता था। सभी छात्र अपनी-अपनी कक्षा की लाइन में खड़े हो जाते थे और फिर लम्बाई के आधार पर छात्रों का चुनाव किया जाता था। अब यदि कोई छात्र किसी कक्षा में दो या तीन बार फेल हो गए हों तो स्वाभाविक रूप से अन्य छात्रों से बड़े होंगे पर उन्हें अपने क्लास के बच्चों के साथ ही खेलना पड़ेगा।

मैं सोचती हूँ कि यदि हम सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट की बात करते हैं तो फिर हमें लम्बाई या हाइट के स्तर की भी बात करनी पड़ेगी और उसके लिए भी कोई मानक सिस्टम बनाना होगा क्योंकि जब कोई अधिक लम्बाई वाले धावक किसी कम लम्बाई वाले धावक के साथ दौड़ते हैं तो लम्बे खिलाड़ी को बड़े कदमों का फ़ायदा मिलता है। और जो खिलाड़ी लम्बाई में कम होंगे फिर उनके लिए समस्या होगी, ये सब कोई नहीं सोचता इसलिए मेरे हिसाब से ऐसा कोई रूल नहीं होना चाहिए।

सबके लिए एक सिस्टम नहीं होना चाहिए, क्योंकि यदि हम ऐसे किसी सिस्टम को लाने की कोशिश करेंगे तो हमें बहुत सारी बातों के बारे में सोच-समझ कर आगे बढ़ना होगा। यदि मान लीजिये कि कोई खिलाड़ी बहुत लम्बे हैं तो अन्य खिलाडियों के स्तर पर आकर खेलने के लिए वे क्या करेंगे जिससे वे सभी खिलाड़ी एक ही स्तर पर खेल सकें? तो मुझे नहीं लगता कि स्पोर्ट्स में ऐसे नियम होने चाहिए।

AD: महिला टीम के लिए खेलने पर बहुत प्रकार के  दबाव एवं भेदभाव होते हैं ; ‘महिला खिलाड़ीइंटरसेक्स लोगों को प्रतिद्वन्दी के रूप में देखती हैं और इस तरह लिंग परिक्षणके  माध्यम से भेदभाव को मान्य बना देती हैं। आपके टीम में खेलने से जुड़े अनुभव कैसे रहे हैं?

PP: महिला एथेलीट ऐसे सोचती हैं पर मुझे लगता है कि उन्हें ऐसा ही सिखाया गया है। मेरा मानना है कि इसका सबसे बड़ा कारण है आधी-अधूरी जानकारी का होना एवं विज्ञान का अनावश्यक हस्तक्षेप। पहले जब लोगों को हॉर्मोन्स या उनके प्रभावों के बारे में जानकारी नहीं थी तो वे इन बातों के बारे में नहीं सोचते थे। जब विज्ञान की मदद लेकर लोगों ने अध्ययन के नाम पर यह साबित करना शुरू किया कि हॉर्मोन्स की वजह से इंटरसेक्स लोगों को फ़ायदा मिल रहा है तभी ये व्यवहार शुरू हुआ। मैं इस बात को नहीं मानती हूँ, आप मेरा उदहारण ही ले लीजिये, मेरे हॉर्मोन्स का स्तर भी असंतुलित है। अब इस हिसाब से मुझे हर स्पर्धा में प्रथम आना चाहिए, पर कई बार मैं राष्ट्रीय स्तर की स्पर्धाओं में प्रथम ६ में भी स्थान नहीं बना पाई। यह बात सही है कि कई महिला धावक इंटेरसेक्स धावकों को प्रतिद्वन्द्वी की तरह ही देखती हैं। कई धावक जो अपनी पहचान इंटेरसेक्स महिला के रूप में करते हैं, उनकी शारीरिक बनावट को देख कर अन्य खिलाड़ी टिप्पणी करते हैं। इस तरह की टिप्पणियाँ परेशान करने वाली होती हैं। अक्सर कैंप में उन्हें ऐसा व्यव्हार झेलना पड़ता है जिसके कारण एक तनाव का माहौल बन जाता है जो किसी भी खेल या खिलाड़ी के लिए सही नहीं है। मुझे भी अपने जीवन में कई बार इस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ा है।

AD: खेल में जेंडर भेदभाव आमतौर पर पुरुष और महिला खिलाड़ियों के बीच खेल से होने वाली आमदनी में एक बड़े अंतर के रूप में प्रकट होता है; क्या आप भारत में एथलेटिक्स के संबंध में इस मुद्दे पर कुछ प्रकाश डाल सकती हैं?

PP: असल में, मैं जिस खेल में धावक के रूप में खेलती थी उसमें ऐसा नहीं था, जो रकम एक महिला खिलाड़ी को मिलती थी वही पुरुष खिलाड़ी को भी मिलती थी। पर हाँ मैं मानती हूँ कि फुटबॉल एवं क्रिकेट जैसे खेलों में ऐसा सुनने को मिलता है। उन खेलो में ज़्यादातर प्रायोजक या स्पॉंसरशिप्स भी लड़कों की टीम को मिलती हैं। जब पैसे की बात होती है तो लड़कियों की टीम को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है।

उदहारण के लिए टेनिस के खेल में एक महिला खिलाड़ी और एक पुरुष खिलाड़ी की आमदनी में बहुत बड़ा अंतर दिखता है। मुझे लगता है कि जिस स्तर के खिलाडी हैं, उस स्तर के लिए एक ही धनराशि होनी चाहिए, और उस स्तर के सभी खिलाड़ियों को उपयुक्त स्पॉन्सरशिप भी मिलनी चाहिए। भारत में स्पॉंसरशिप्स के मामले में ज़्यादातर वरीयता क्रिकेट को ही दी जाती है। क्रिकेट जैसे खेलों में स्पॉंसरशिप्स मंडल स्तर पर खेलने के बाद ही मिल जाती है। पर अन्य खेल जैसे कि वॉलीबॉल, कबड्डी, एथलेटिक्स आदि, इन सब में स्पॉंसरशिप सर्वोत्तम या चैंपियन खिलाड़ी बनने के बाद ही मिलती है। जिस तरह क्रिकेट या टेनिस जैसे खेलों को आर्थिक मदद मिलती है अगर बाकी खेलों में भी उतना ही समर्थन मिले तो मुझे लगता है कि हमारा देश आने वाले दिनों में सभी खेलों में बेहतर प्रदर्शन कर सकेगा।

AD: अपने खेल करियर में आप किस चीज़ को अपनी सबसे बड़ी सफलता मानती  हैं?

PP: अपने खेल जीवन में मैं अपनी सबसे बड़ी सफलता कॉमन वेल्थ गेम्स में अपनी भागीदारी को मानती हूँ। जब मैं सन २००६ में कॉमन वेल्थ गेम्स में हिस्सा लेने मेलबर्न गई थी और वहाँ जब मैंने मारिया मुतोला और उसैन बोल्ट जैसे विश्व प्रसिद्ध धावकों के साथ दौड़ में हिस्सा लिया तो वह अनुभव मुझे बहुत अच्छा लगा था। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी कि मैं इन लोगों के साथ दौड़ रही थी और फिर जब उस दौड़ में मैंने दूसरा स्थान प्राप्त किया तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। उस दिन को याद करके आज भी मुझे बहुत अच्छा लगता है। बाकी, मैंने मेडल तो बहुत जीते हैं, पर वो दिन मेरे लिए सबसे खास था, इसलिए मैं आज भी वो दिन याद करती हूँ।

AD: क्या आप अन्य युवा महिला एथलीटों को कोई संदेश देना चाहती हैं?

PP: मैं यह सन्देश देना चाहूंगी कि सब अच्छे से खेलें, देश के लिए पदक जीत कर लाएँ और अपनी ट्रेनिंग पर अच्छे से ध्यान दें। हम शुरू से यहाँ जेंडर के बारे में चर्चा कर रहे हैं तो मैं अपनी साथी धावकों को भी सन्देश देना चाहूंगी कि वे हमें स्वीकार करें और लोग हमारे बारे में जो कहते हैं उन बातों पर ध्यान न दें। जेंडर के मुद्दे पर मैं यही बोलना चाहुँगी कि जेंडर भेदभाव को हटा दिया जाना चाहिए। हर किसी का एक सपना होता है, इंटेरसेक्स लोग भी खेलना चाहते हैं और उनके मन में भी भावनाएँ होती हैं। पर अक्सर हम उनके सपनों के बारे में नहीं सोचते, उन पर क्या बीतती है, वे क्या सोचते हैं इस बात की हम परवाह नहीं करते। एक इंसान होने के नाते मैं उनके लिए कुछ करना चाहती हूँ। और मैं सभी से प्रार्थना करती हूँ कि वे इस भेदभाव को हटाने में मदद करें क्योंकि वे लोग भी इंसान हैं और उनके भी वही मानवाधिकार हैं जो किसी अन्य व्यक्ति के हैं।

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