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तारशी के अंकित गुप्ता के साथ एक संवाद में – बलबीर कृषन

Photo of activist balbir krishan against a blue background. he is wearing a grey suit and has short black hair and a stubble

बलबीर कृषन भारत के उन समकालीन कलाकारों में से एक हैं जिन्होंने  सांप्रदायिक हिंसा, आपदाओं, जेन्डर आधारित हिंसा, यौनिकता और विकलांगता सहित अनेक विषयों को अपनी कला की विस्तृत श्रृंखला में दर्शाया है। यह लेख तारशी के ब्लाग इन प्लेनस्पीक के लिए बलबीर की अंकित से हुई बातचीत के अंशों पर आधारित है। बलबीर के समय के लिए हम उन्हें धन्यवाद देते हैं और हम उनके साथी माइकल से उनकी शादी के लिए उनको बधाई देते हैं।

बलबीर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव से आए हैं। बलबीर के अनुसार वहाँ कला एक बड़े रूप में स्थापित न होकर छोटी-छोटी चीजों में बसती है। बलबीर का कला से पहला साक्षात्कार बहुत ही कम उम्र में हुआ जब सातवीं कक्षा में उनकी दोस्ती एक कुम्हार के बेटे से हुई। कुम्हार की उंगलियों के बीच जादू की तरह उभरती मिट्टी की कलाकृतियों ने बलबीर का कला से परिचय करवाया और वे कहते हैं कि कहीं न कहीं आज भी वह चाक उनके अंदर घूम रहा है।  एक छोटे से गांव से जीवन की शुरुआत और फिर जीवन के अनेकानेक उतार-चढ़ावों ने बलबीर की कला को निखारा,  संवारा और उनकी कला पर एक अमिट छाप छोड़ी। वे स्वयं मानते हैं कि उनके जीवन की घटनाओं ने उनकी कला को आकार दिया और इन्हीं घटनाओं के कारण उनकी कला का यह रूप है जो हम देखते हैं।

बलबीर कला को एक माध्यम के रूप में देखते हैं और मानते हैं कि कला ने हमेशा तत्कालीन मुद्दों को उठाया है। हालांकि उनके अनुसार पश्चिमी देशों की तुलना में भारत जैसे देश में चित्रकारों को अपनी कला द्वारा सक्रियतावाद के कम मौके मिल पाते हैं। और इसका एक बड़ा कारण है कि पश्चिमी देशों में चित्रकार अपनी लोकप्रियता और आर्थिक फायदों से ऊपर उठकर काम करने में सक्षम हैं। इसी संदर्भ में, मायना मुखर्जी द्वारा शुरु की गई ‘एनजेंडर्ड गैलरी’ के बारे में बताते हुए बलबीर कहते हैं कि ये गैलरी उन गिने चुने स्थानों में से है जो यौनिकता, जेन्डर एवं समानता पर आधारित विषयों को समर्पित है। राजधानी दिल्ली में सन् 2012 में हुई निर्मम सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद जब एनजेंडर्ड गैलरी ने महिलाओं पर हो रहे यौन अत्याचार एवं अन्य अत्याचारों पर देश भर में चित्रकला प्रदर्शनी का प्रायोजन किया तो उसमें बलबीर की चित्रकारी भी शामिल थी।

अपनी यौनिकता और उससे जुड़े अनुभवों पर प्रकाश डालते हुए बलबीर कहते हैं कि उन्हें हमेशा से पता था कि उनके अंदर कुछ है जो अगर लोगों को पता लग गया तो वे उन पर हसेंगे। तो शुरु में ही समाज ने अदृश्य रूप से यह बात बता दी थी कि वे गलत हैं और उन्हें अपनी यौनिकता को दूसरों से छिपाने की आवश्यकता है। बचपन में अपने साथ हुए यौन शोषण को याद करते हुए बलबीर कहते हैं कि वे लोग जो मेरा शोषण करते थे, कभी भी यह जताना नहीं भूलते थे कि गलत मैं हूँ, वे कुछ गलत नहीं कर रहे हैं।  इन घटनाओं ने और कहीं न कहीं उनकी यौनिकता ने उन्हें एकाकी होने पर मजबूर कर दिया था। वे बताते हैं कि वे अपने जीवन में बहुत पहले ही जान गए थे कि वे भिन्न हैं, अलग हैं। वे आगे कहते हैं कि ‘ऐसा नहीं कि मैं महिलाओं को पसंद नहीं करता, उनकी इज़्ज़त नहीं करता या उनकी खूबसूरती की सराहना नहीं करता पर मैं उन्हें अपने अंदर जी नहीं सकता, ऐसा मैं सिर्फ पुरुषों के साथ ही महसूस कर सकता हूँ।

एक दुखद हादसे में बलबीर के दोनों पैर कट गए। अपनी इस विकलांगता के लिए वे अपनी यौनिकता के प्रति समाज के रवैये को ही ज़िम्मेदार मानते हैं। समाज का वह अप्रत्याशित व्यवहार जो बलबीर को बचपन से ही झेलना पड़ा और जिसके कारण उन पर संभावनाओं के दरवाजे बंद किए गए। और इसी सामाजिक रवैये के कारण होने वाले शोषण, पीड़ा, समाज के प्रति,  लोगों के प्रति उनके गुस्से ने बलबीर को आत्महत्या की कोशिश जैसा बड़ा कदम उठाने पर मजबूर कर दिया, जिस हादसे में उन्होंने अपने दोनों पैर खो दिए। इस हादसे के बाद से ही उनकी यौनिकता उनकी विकलांगता के साथ जुड़ कर रही है जिसका प्रभाव हम उनकी कला पर भी देख सकते हैं।

बलबीर के जीवन में कला ने बहुत छोटी उम्र में ही दस्तक दे दी थी। मिट्टी की मूर्तियाँ  और साझिंया बनाते हुए उन्होंने अपने कला जगत के लम्बे सफ़र की शुरुआत की। बीते हुए समय को याद करते हुए वे बताते हैं कि जब शुरु में अपनी पढ़ाई के सिलसिले में उन्होंने अजन्ता की गुफाओं की मूर्तियों की तस्वीर बनानी शुरु की तो गांव के बड़े बुज़ुर्गों ने उन्हें हेय दृष्टि से देखा। इससे उन्हें एक स्पष्ट संदेश मिला कि शायद कला का जो रूप वे दिखाना चाहते हैं, वो समाज में वर्जित है। फिर इन्हें सही प्रोत्साहन मिला और उन्होंने उन सभी चीजों को अपनी कला के माध्यम से जीना शुरु किया जिनको जीने या महसूस करने की इजाज़त समाज ने उन्हें कभी नहीं दी। अपने कला के इस सफ़र की शुरुआत के लिए बलबीर भूपेन कक्कर को श्रेय देते हैं और कहते हैं कि उनकी कला ने ही बलबीर को वो हिम्मत दी जिसने बलबीर को उनके खुद के शोषण से रोका और उनके अंदर बंद तालों को खोलने की हिम्मत दी। इसी के बाद बलबीर ने अपनी ‘इंसल्टेड एंजेल’ सीरीज बनाई जिसमें पहली बार उन्होंने उन सभी चीजों को उभारा जिन  पर वे काम करना चाहते थे। बाद में उन्होंने ‘आउट हियर एण्ड नाव’ नामक एक प्रदर्शनी का आयोजन किया जिसे उन्होंने भूपेन कक्कर को समर्पित किया।

अपने अन्य प्रेरणास्रोतों के बारे में ज़िक्र करते हुए बलबीर माइकल एन्जेलो के काम की सराहना करते हैं, डाली, रामेश्वर बारूटा और अम्रिता शेरगिल का उल्लेख करते हैं। विकलांग शरीर का ज़िक्र करते हुए बलबीर अपनी ‘ड्रीम्स आफ माइ हैंडीकैप्ड लाइफ’ नामक सीरीज़ का उल्लेख करते हैं जिसमें उन्होंने उन सपनों की झलक दिखाने की कोशिश की है जो वो विकलांग होने के बाद नहीं जी सकते थे। विकलांगता और यौनिकता के समागम को दर्शाने वाली उनकी पेंटिंग ‘विद ट्यूलिप’ के बारे में बात करते हुए बलबीर कहते हैं कि इस पेंटिंग के ज़रिए वे दर्शाना चाहते हैं कि विकलांग शरीर होने के साथ भी वे अपनी भावनाओं को जी सकते हैं। कला जगत और विकलांगता पर प्रकाश डालते हुए बलबीर विनोद बिहारी मुखर्जी, सतीश गुजराल, प्रभा साहा जैसे कलाकरों का उल्लेख करते हैं। बलबीर के अनुसार विकलांगता किसी की कला की स्वीकृति या अस्वीकृति में कोई अड़चन नहीं होती है। कला को उसके अच्छे या बुरे होने के पैमाने पर परखा जाता है। बलबीर को कभी उनकी विकलांगती के कारण किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा पर यदि यौनिकता की बात करें तो हाँ यौनिकता चुनौतियों का एक बड़ा कारण रही है।

उन्हें कला जगत के अंदर एवं बाहर दोनों ही तरफ के लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा। उनके चित्रों को नष्ट किया गया, उनके साथ हिंसा हुई जिसने उन्हें आर्थिक एवं रचनात्मक दोनों स्तरों पर प्रभावित किया। पर इन सब के बीच उन्हें जनता से बहुत सराहना मिली, प्यार मिला और प्रोत्साहन मिला। ऐसी ही एक अविस्मरणीय घटना के बारे में बताते हुए बलबीर अपनी आउट हियर एण्ड नाव प्रदर्शनी में आए एक 83 वर्षीय बुज़ुर्ग का ज़िक्र करते हैं। बलबीर बताते हैं कि बहुत चाहने के बाद भी वे बुज़ुर्ग बलबीर की एक पेंटिंग खरीद नहीं पाए थे क्योंकि उनके परिवार ने उन्हें ‘ऐसी पेंटिंग’ घर में लगाने की इजाज़त नहीं दी थी। प्रदर्शनी के आखिरी दिन वे बुज़ुर्ग बलबीर को यह बताते हुए रो पड़े और बोले कि उन्होंने इन पाँच दिनों में बलबीर के चित्रों के माध्यम से अपनी ज़िंदगी जी है।

बलबीर यह स्पष्ट कहते हैं कि हालांकि समलैंगिकता उनकी कला की विषय वस्तु रही है पर वे अपनी पहचान समलैंगिक चित्रकार के रूप में नहीं करते हैं। उनके अपने शब्दों में ‘हमेशा से मेरे काम को लोगों ने बहुत पसंद किया है, मैंने बहुत तारीफ़ सुनी है, कला के स्तर पर भी और सामान्य समाज में भी। जब तक मेरी कला इस चीज़ से नहीं जुड़ी थी कि ये समलैंगिक है और जैसा वे कहते हैं कि ये समाज के लिए घातक है, हमारी संस्कृति के खिलाफ़ है और जब तक कि मुझे लोगों ने ये ठप्पा नहीं दिया था कि ये गे आर्टिस्ट है, जो कि मैं नहीं हूँ। मैं उस विषय को संबोधित करता हूँ, जैसे बहुत सारे विषयों को पेंट करता हूँ वैसे ही इस विषय को पेंट करता हूँ, मैं बस आर्टिस्ट हूँ।‘

अंत में बलबीर अंकित का और तारशी की टीम का धन्यवाद देते हुए कहते हैं कि वे आभारी हैं कि उन्हें ये मौका मिला कि वे अपनी बात इस इंटरव्यु के ज़रिए उन लोगों तक पहुंचा सकें जो अकेले रहते हुए और किसी के साथ में रहते हुए भी एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसके बारे में उनको पता नहीं है कि वे जीत पाएंगे लेकिन वे फिर भी लड़ रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनको लड़ना और बस। युवा लोगों को अपने संदेश में बलबीर कहते हैं कि सबसे बड़ी चीज़ यही है कि जो भी आप हैं, जैसे भी आप हैं, अपनी सच्चाई को स्वीकार कीजिए और उसके साथ ही जीवन जीने का प्रयास कीजिए। अपना सम्मान कीजिए और यदि आप ऐसा कर सके तो बाकी चीज़ें आपके लिए आसान हो जाएंगी।

Pic Source: Balbir Krishan