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बदलती छवियों के साथ बदलती पोशाके

Artwork showing two women sitting, both wearing saree and heavy jewellery. Screen reader support enabled. Artwork showing two women sitting, both wearing saree and heavy jewellery.

उन्हें कपड़ों से कुछ खासा लगाव था! उनके पास उनकी जरूरत और गिनती से ज्यादा कपड़े थे, लेकिन फिर भी, जब उन्हें किसी ख़ास मौके पर जाना होता था तो उन्हें लगता था कि उनके पास एक भी ढंग की पोशाक नहीं है।

वह एक ऐसे परिवार में बड़ी हुई थीं जहाँ बनने संवरनें की सराहना की जाती थी, इसलिए कपड़ों के प्रति उनकी चाहत को कभी भी विलासिता की तरह नहीं देखा गया। उनकी माँ की शख्शियत की एक विशिष्ट पहचान, उनकी बड़ी सी बिंदी और सूती साड़ी हमेशा अपनी जगह पर रहती थी, चाहे दिन का कोई भी समय हो, चाहे वो खाना बना रहीं हों, धूप या बारिश में बाहर गई हों, सो रहीं हों या बस अभी ही जागी हों, हंस रहीं हों, या रो रहीं हों। उनकी और उनकी बहन के लिए, उनकी माँ की फैशन को लेकर एक ही सलाह थी, “हमेशा ऐसे तैयार होकर रहो जैसे आप बाहर जा रहे हों, भले ही आप सारा दिन घर पर ही हों।” अपनी माँ की सलाह के बावजूद, वह घर पर ‘गुदड़ी के लाल’ की तरह और बाहर जाते वक़्त ‘सिंडरेला’ की तर्ज़ पर चलने वाली बनी।

वे दक्षिण भारत के एक छोटे शहर से थीं, और दक्षिण भारतीय प्रचलन के अनुसार, स्कूल और कॉलेज के दिनों में वे आधी साड़ी में सजी हुई गुडिया जैसी ही दिखती थीं। उनके पारंपरिक कॉलेज में पोशाक से सम्बंधित अनिवार्य नियम थे – आधी (हाफ) साड़ी या साड़ी। इसलिए साड़ी के अलावा कोई और चारा तो था नहीं! जाहिर तौर पर यह उनकी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने के लिए एकदम सही पोशाक थी। आख़िर, सलवार कमीज़ तो उत्तर भारत का पहनावा था, तो फिर वह ‘दक्षिण भारतीय पारंपरिक पोशाक’ कैसे हो सकती थी। लड़कियों को बहुत ही छोटी उम्र से यह सिखाया गया था कि उनके पहनावे के ज़रिए वे अपनी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण सन्देश देती हैं।

अपने क्षेत्र और देश की संस्कृति और अपने देशवासियों के गौरव की बड़ी ज़िम्मेदारी उनके निर्बल कन्धों पर थी। इस जिम्मेदारी ने उनके अस्तित्व को कहीं अधिक महत्वपूर्ण बना दिया था। उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी दृढ़ता के साथ निभाई। वे अपने शरीर के किसी भी हिस्से को खुला छोड़कर किसी पुरुष का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर अपनी पवित्रता को मलिन नहीं कर सकती थीं। वे अपने शरीर के हर एक इंच को अच्छी तरह ढककर महान संतोष का अनुभव करतीं और किसी भी हिस्से को अन्य व्यक्ति का ‘शिकार’ न बनने देकर गर्व महसूस करतीं। वे मानतीं थी कि उनका शरीर पूरी तरह से उनका है और बाद में यह उसका होगा जिससे वे शादी करेंगी। वे अपने इस विचार से बहुत रोमांचित होती थीं कि वे अपने शरीर को संभाल कर रख पाने में सक्षम थीं (जैसे कि वह किसी तरह का अचार हो) और इस शरीर को वे उस व्यक्ति को न्यायसंगत रूप से सौपेंगी जिससे वे शादी करेंगी, उनसे उन्हें प्यार हो या ना हो ये अलग बात है।

वे अपनी कलफ़ लगी सूती साड़ी में दिखाई पड़ने वाले नितम्बों के आकार को ढकने के लिए किसी भी हद तक जाती थीं; और उनकी साड़ी को अपनी जगह पर बनाए रखने वाले वे दर्जनों पिन, उनकी पवित्रता को भी बनाए रखते। अपनी पूरी शीलता के बावजूद, वे जानतीं थीं कि उनकी त्रुटिहीन पोशाक की समझ लोगों को पलटकर देखने पर मजबूर कर देती थी। अपने कॉलेज में उनके प्रशंसकों का एक बहुत ही बड़ा समूह था (ध्यान दें!, वह सिर्फ महिलाओं का ही कॉलेज था), और वे लड़कियां भी, जो उनकी सहेलियाँ नहीं थीं, उनकी सूती साड़ी और सादगी के लिए उनकी तारीफें करनें आतीं थीं। वे जानती थीं कि उनकी लोकप्रियता उनके सटीक पल्लू के साथ बंधी है और अब उन्हें उस छवि को बरकरार रखना है, और इसीलिए उन्होनें अपने सूती वस्त्रों में और अधिक कलफ़ लगाया शुरू कर दिया, और ‘सीधी-सादी अच्छी लड़की’ दिखने के लिए उन्होनें अपनी प्लीट और चौड़ी कर ली! न तो कभी उन्होनें अपने कन्धों से साड़ी गिरने दी और ना ही अपनी छवि का ताज!

फिर एक ऐसा समय आया जब वह छोटे शहर की सती सावित्री सरीखी लड़की एक बड़े शहर में गई।  वो शहर के फैशन की ओर खिंची चली गईं और छोटी लम्बाई वाली स्कर्ट और टी-शर्ट की टेपेस्ट्री के जाल में फंसने से खुद को बचा नहीं पाईं। समय के साथ कपड़ों और ‘पवित्रता’ से जुड़े वे सभी सिद्धांत कचरे के डिब्बे में चले गए। इस प्रक्रिया में, उन्होनें अपनीं साड़ी के साथ बड़ी खुशी से अपने देसी अवतार को भी त्याग दिया और गर्व से ‘आधुनिक’ पोशाक को अपना लिया। उन्होंने ‘जैसा देश वैसा भेश’ वाली कहावत को सच करते हुए अपने आपको शहरी मांगों और शैली के अनुसार ड्रेस और धूप के चश्में के साथ सुसज्जित कर लिया। आख़िर अब वे छोटे-शहर-की-लड़की के नाम से नहीं पहचानी जाना चाहती थीं। उन्हें अपने नए उपनामों ‘युवा, निडर, आधुनिक (मॉडर्न) महिला’ आदि से प्यार था और उन्होनें सोचा कि वह अपने कपड़ों के ज़रिए इन उम्मीदों पर खरी उतर सकतीं थीं। अपनी साड़ी के साथ ही (हालांकि, उसकी वजह से नहीं), धीरे-धीरे उन्होनें अपने कुछ संकोच भी छोड़ने शुरू किए, और उन्हें यह एहसास होने लगा कि उनका शरीर पूरी तरह से सिर्फ उनका है और उन्हें दूसरों से किसी प्रकार के संरक्षण की आवश्यकता नहीं है।

उन्हें यह भी समझ आया कि वस्त्र ‘पवित्रता’ को ढंकने में सक्षम नहीं हैं। महिलाएँ चाहे साड़ी पहने या स्कर्ट या बुरखा या बिकिनी, उनके साथ बलात्कार, दुर्व्यवहार, यौन उत्पीड़न, ज़बरदस्ती छूना या घूरना ज़ारी रहता है। जब दुनिया को लगता है कि एक महिला का शरीर आम संपत्ति है तो इस बात से कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता था कि उन्होंने अपने शरीर पर अपना हक जताने के लिए क्या पहना है। उन्हें लैंगिकवाद (सेक्सिस्म) के साथ पूंजीवाद (कैपिटिलिस्म) की बदबू मिश्रित होती हुई सी महसूस होने लगी थी। वह पूरे धैर्य और हिम्मत के साथ इस सबसे लड़ना चाहती थीं। समय के साथ ही नारीवाद (फेमिनिस्म) उनका नया फैशन कोड बन गया। यह, भी, उन्होनें गर्व के साथ पहना।

उन्होंने एक सुविचारित तरीके से नए कपड़ों का चयन किया जिसमें गुलाबी, फूलोंवाली, लटकने वाले बो या रेशमी साटिन, झालर वाली फ्रॉक या ऊँची हील वाली सेंडिल, शरीर से चिपके हुए ब्लाउज़ या टॉप, चमकने या झिलमिलाने वाली, कपड़ों से मेल खाते सजावटी पिन, ब्लश या नेल पेंट वगैरह की कोई जगह नहीं थी। उन्होंने सोचा ये सभी बहुत ही ‘स्त्रियोचित (फेमिनीन)’ थे और वे उन्हें एक ‘नाजुक प्यारी लड़की’ की तरह दिखाएँगे। उन्होंने तय किया कि उन्हें एक ‘नारीवादी महिला’ की तरह दिखना था, नाकि लैंगिकता के झालर और रोमांच के बीच फंसना था। उन्होनें प्रयास किया कि जब वो तैयार हों तो बस किसी ‘सुन्दर चीज़’ की तरह ना दिखें, वो विश्वास रखती थीं ‘आडंबरहीन’ तरह से तैयार होने में, जिससे उन्हें गंभीरता लिया जाए।

उन्हें इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था, कि जब वह पित्रसत्ता को मुंहतोड़ जवाब देने और इन्द्रधनुष के रंग बिखेरने में व्यस्त थीं, तब वे अनुराग के रंगों में बह जाएँगी। उनके जीवन में उलझन अचानक तब आई जब वे एक ऐसे व्यक्ति से मिलीं जिसने उनका ध्यान आकर्षित किया। उन्हें इस व्यक्ति के साथ बातचीत और उनके प्रति अपना लगाव अच्छा लगने लगा। उन्हें लगा कि वे अपनी ज़िन्दगी में अपना प्यार पाने के करीब आ चुकी हैं, या शायद, लगभग करीब। लगभग, जब तक एक दिन उन्हें इस व्यक्ति के महिलाओं के लिए फ़ैशन मंत्र का पता चला। इस व्यक्ति को पूरी तरह से ‘लड़कियों के जैसी’- मुकम्मल, सजी-धजी और मखमली लड़कियाँ पसंद थीं। उसे करीने से, साफ सुथरे, पेडीक्योर, मैनीक्योर किये हुए हाथ पैर, सेक्सी अन्तःवस्त्र और चमकीली ऊँची हील वाली सेंडिल को लेकर फेटिश (निर्जीव वस्तुओं की ओर यौनिक रूचि) थी, इस हद तक कि वह महिलाओं को सेक्सी अन्तःवस्त्र और चमकीली ऊँची हील वाली सेंडिल पहने अपने बिस्तर पर बैठे होने की कल्पना करता था! यह अश्लील साहित्य का भयावह प्रभाव था शायद, और उनके अनुसार यह पूरी तरह से लैंगिकवादी (सेक्सिस्ट) था।

इस भयावह अंधभक्ति के अलावा, वह एक प्यारा इंसान था। तो उन्होंने उस व्यक्ति की  इस पसंद (जो उन्हें विचित्र सनक लगती थी) से जुड़ी बातचीत से बचने की कोशिश करनी शुरू कर दी। लेकिन फिर उस व्यक्ति के द्वारा उनपर ‘लड़कियों के पसंद के’ तोहफों की बौछार होने लगी। उन्हें पता नहीं था वे उन तोहफ़ों का क्या करें। वे उन्हें पहनकर किसी रैंप पर विक्टोरिया सीक्रेट मॉडल के जैसी लगतीं (वैसे, शायद नहीं!)। उन्हें लगा कि इस तरह के कपड़े पहनना पूरी तरह से ‘नारीवाद विरोधी’ था, क्योंकि वे कपड़े सुन्दरता के पित्रसत्तात्मक आदर्शों की पुष्टि करते थे। उन्होनें स्पष्ट रूप से उनके लिए मना कर दिया और उस व्यक्ति के दिल को थोड़ा सा तोड़ भी दिया।

फिर उस व्यक्ति ने उनसे पूछा, “तो फिर नारीवादी क्या पहनते हैं?”

इस सवाल ने उन्हें सोच में डाल दिया!

क्या सेक्सी कपड़े पहनने वाली महिलाओं के मुकाबले आडंबरहीन कपड़े पहनने वाली महिलाएँ ज़्यादा नारीवादी कहलातीं हैं? क्या मेकअप करना और मुख्यधारा सौंदर्य मानदंडों के अनुसार रहना महिला को कम नारीवादी बनाता है? क्या फैबइंडिया का कुरता पहनने वाली महिला, सर पर पल्लू रखे साड़ी पहनने वाली किसी महिला से ज्यादा नारीवादी होने का दावा कर सकती है? क्या कपड़े की एक अनिवार्य शैली किसी को अधिक नारीवादी दिखने के सक्षम बनाती है?

अपनी पूरी ज़िन्दगी, उन्होनें पोशाक के द्वारा एक ऐसी छवि पर खरा उतरने की कोशिश की थी जिस पर उनके अनुसार वे उचित बैठती थीं। एक सीधी-सादी लड़की, एक आधुनिक लड़की, एक नारीवादी। अनजाने ही, वे एक तरह की पोशाक को एक अमुक छवि के प्रारूप में ढालती चली गयीं और उस छवि की तरह बनने के लिए उसके अनुसार पोशाकें पहनती रहीं। पुरानी छवि को त्यागते हुए एक नयी छवि के लिए पोशाकें बदलती रहीं।

उन्होंने सोचा कि भले ही लोग कपड़ों और दिखावट के अनुसार ही दूसरों को जानते और आकलन करते हैं, यह दूसरों को समझने का कोई तरीका नहीं होना चाहिए, या ना ही हमें अपने आपको इस सोच के साथतैयार करना चाहिए। उन्होंने महसूस किया कि किसी ख़ास तरह से दिखने का मतलब, जरूरी नहीं, यह हो कि वह व्यक्ति उसी तरह के हैं, और किसी को उनकी पोशाक के आधार पर परिभाषित करना न्यायसंगत नहीं और अपने आपको भी, उस तरह से परिभाषित कराना न्यायसंगत नहीं।

कैसे कपड़े पहनना है यह एक निजी चुनाव है, और इसे ऐसे ही रहना चाहिए। किसी भी तरह से इसे शासित नहीं किया जा सकता। इन बहुस्तरीय धारणाओं को हिलाने के लिए, किसी भी व्यक्ति को वही पहनना चाहिए जो वह व्यक्ति पहनना चाहते हों नाकि वह जो उन्हें पहनना चाहिए।

श्रद्धा माहिलकर द्वारा अनुवादित

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