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किशोर यौनिकता – सामाजिक मूल्य और व्यावहारिक मतभेद

किशोरों में यौनिकता विषय पर चर्चा करना आरंभ करने पर कानून, आयु, मान्यताएँ व स्वास्थ्य जैसे अनेक ऐसे मुद्दे भी उठ खड़े होते हैं जो बहस की विषयवस्तु हैं। इसके साथ जुड़ा एक और मुद्दा यह भी होता है कि क्या किशोरों को, उनकी आयु को ध्यान में रखते हुए, यौनिक समझा जाए अथवा नहीं। किशोरावस्था जीवन का ऐसा नाज़ुक पड़ाव होता है जिस समय कम आयु के इन लोगों का व्यक्तित्व निखर रहा होता है, उनकी पहचान बननी शुरू ही हुई होती है और वे वयस्क जीवन में कदम रखने को होते हैं। दक्षिण एशियाई देशों में सरकारों द्वारा किशोरों के लिए यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराए जाने की कोशिश की जाती है। सरकार द्वारा इन किशोरों की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए हालांकि योजनाएँ चलायी जाती हैं, फिर भी इन सेवाओं की गुणवत्ता और आसानी से इनकी उपलब्धता सुनिश्चित करा पाना एक चुनौती बना रहता है। स्वास्थ्य सेवाप्रदाता और डॉक्टर किशोरों को, खासकर अविवाहित किशोरों को गर्भनिरोधन सेवाएँ देने में हिचकिचाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि इस तरह की सेवाएँ पाने के लिए आए किशोरों के प्रति उनका रवैया आदरपूर्ण नहीं होता और वे इनकी आवश्यकताओं की ओर ध्यान देने की बजाए इन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगते हैं।         

समुदाय में लड़कियों के अधिकारों और उनकी शारीरिक स्वायत्ता को बढ़ावा देने वाले सकारात्मक जेंडर और सामाजिक मानकों के रोल मॉडेल समझे जाने वाले कर्मियों के लिए आयोजित एक प्रशिक्षण में मैं कार्यक्रम का समन्वय कर रही थी। इस कार्यक्रम के दौरान यह बात खुल कर सामने आई कि लोगों के व्यक्तिगत विचारों, उनकी मान्यताओं का सीधा प्रभाव उनके व्यावसायिक जीवन पर भी पड़ता है। प्रशिक्षण में भाग ले रहे ये कर्मी उन्हीं समुदायों से थे जिनके बीच हम भी Tipping Point Initiative पहल के तहत सामाजिक और व्यावहारिक बदलाव लाने की कार्ययोजनाएँ तैयार करने का काम करते हैं। इस टिपिंग पॉइंट इनिशिएटिव कार्यक्रम का उद्देश्य नेपाल और बांग्लादेश में बालविवाह, छोटी आयु में विवाह और जबरन विवाह किए जाने के मूल कारणों का पता लगाना और इनके समाधान खोजना है। हमने यह देखा है कि बदलाव लाने की प्रक्रियाओं में सबसे महत्वपूर्ण काम केवल लड़कियों के अधिकारों पर ध्यान देना ही नहीं है बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस काम को कर रहे स्टाफ़ और कर्मी भी, बदलाव के एजेंट की भूमिका में, खुद अपने जीवन में इन दृष्टिकोण और व्यवहारों को अपनाए ताकि उनके प्रयासों के सकरात्म्क परिणाम मिल सकें। 

स्टाफ के लोगों के लिए आयोजित प्रशिक्षण के दौरान, हम आगामी ऐक्टिविस्ट लड़कियों के प्रशिक्षण और समन्वयकों की चिंताओं पर बात कर रहे थे। इसी बातचीत के दौरान, फील्ड में समन्वय करने वाली शर्मिला* बोलीं, “मैं इस प्रशिक्षण के दौरान रीमा की ज़िम्मेदारी बिलकुल नहीं ले सकती, वो बहुत ही शैतान लड़की है और मुझसे बिलकुल नहीं संभलती। अगर वो इस आवासीय प्रशिक्षण में आई तो मैं पक्का कह सकती हूँ कि ज़रूर कुछ न कुछ ऐसा हो जाएगा जिससे की पूरा प्रशिक्षण कार्यक्रम ही चौपट हो जाए”। शर्मिला के इस डर को देख मैं हैरान रह गयी, मैंने जानना चाहती थी कि आखिर यह शैतान लड़की कौन थी और कार्यक्रम में उसकी मौजूदगी से किस तरह की ‘परेशानी’ खड़ी हो सकती थी। मुझे पता चला की रीमा एक किशोरी थी जिसका एक बॉयफ्रेंड था। मैंने शर्मिला से पूछा कि उसे इस बात की जानकारी कैसे हुई, तो शर्मिला ने बताया, “रीमा बहुत चालाक है, मैं जब भी उससे मिलती हूँ, वो मेरा फोन लेकर गायब हो जाती है। मुझे पक्का लगता है कि वो फोन पर किसी लड़के से बातें करती है। वो बस फोन से किसी को एक मिस्ड कॉल देती है और फिर दूसरी ओर से किसी का फोन आ जाता है। मुझे डर यह है कि उसके माता-पिता को पता चल जाएगा कि वो मेरे फोन का इस्तेमाल कर किसी से बात करती है। अगर वो इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में आती है तो पक्की बात है कि कोई न कोई अनहोनी ज़रूर घटेगी और पूरे कार्यक्रम पर इसका बुरा असर पड़ेगा।“ अब मैं शर्मिला के मन में बसे इस डर को समझ सकती हूँ; शर्मिला बिलकुल सच कह रही थी और शायद दूसरी समन्वयक भी इसी तरह से सोच रही होंगी। लेकिन यहाँ सवाल यह उठ खड़ा होता है कि दक्षिण एशिया के ग्रामीण इलाकों के रूदीवादी समुदायों में, हम लड़कियों के अधिकारों के बारे में कैसे बात कर सकते हैं अगर जेंडर भेद को हल करने के लिए प्रेरित ये समन्वयक, इन लड़कियों के यौन अधिकारों के बारे में अपने खुद के विचारों और भेदभावपूर्ण सामाजिक मान्यताओं के बीच तालमेल ही न बैठा पाएँ?   

शर्मिला फील्ड में काम करने वाली समन्वयक हैं जो लड़कियों के उस समूह की सलाहकार हैं जिसे अपनी हमउम्र 85 दूसरी लड़कियों के साथ ज़िला मुख्यालय स्तर पर आयोजित होने वाले एक आवासीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेना था। इस प्रशिक्षण के लिए रीमा को उसके समूह ने चुना था और रीमा खुद भी इस प्रशिक्षण में भाग लेने के लिए ख़ासी उत्साहित थी। जब शर्मिला ने, अपने ही मन में बैठे डर के कारण रीमा को इस प्रशिक्षण में भाग लेने से रोकना चाहा तो रीमा ने भी घोषणा कर दी, “अगर आप मुझे इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में नहीं ले गईं, तो मैं जान दे दूँगी”। हैरान परेशान शर्मिला ने जब मुझे इसकी जानकारी दी तो मैंने पूछा, ‘क्या वो सच में ऐसा करेगी’? इस पर शर्मिला ने बताया, “रीमा बातचीत कर अपनी बात मनवाने में माहिर है, वो किसी न किसी तरह पक्का करा ही लेगी कि उसे इस प्रशिक्षण में शामिल किया जाए, इसीलिए मैं अपनी परेशानी से बचने के लिए यह बात यहाँ उठा रही हूँ।“ शर्मिला के मन में सबसे बड़ा डर यही था कि अगर कहीं रीमा इस कार्यक्रम के दौरान उस लड़के से साथ कहीं भाग गयी तो इसकी पूरी ज़िम्मेदारी उसी पर आ पड़ेगी और उसे रीमा के परिवार और समुदाय के लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ेगा।

तो ऐसी परिस्थिति में, जब स्टाफ़ का ही कोई सदस्य, जो अन्यथा यौनिकता और अधिकारों के मुद्दों पर चर्चा करने में सहज महसूस करता हो, किसी किशोर उम्र की लड़की का कोई बॉयफ्रेंड होने पर परेशान हो जाए तो क्या किया जाए? हमें यह देखना और समझना होगा कि अगर सामाजिक मान्यताओं से स्टाफ़ के लोगों के विचार भी प्रभावित हों तो समूह की दूसरी लड़कियों पर इसका क्या प्रभाव होगा और किस तरह से यह पूरी परियोजना में उनके काम को प्रभावित करेगा। इस विषय पर हमारे बीच विस्तारित चर्चा से शर्मिला को भी इस मुद्दे पर गहराई से सोचने का मौका मिला। इस दौरान रीमा ने शर्मिला को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वो रीमा के पिता से बात करे और उनसे रीमा को प्रशिक्षण के लिए भेजने की इजाज़त ले। रीमा ने पूरा उत्साह से प्रशिक्षण शिविर में भाग लिया और ज़िला स्तर पर हुए कार्यक्रम के दौरान दूसरे गांवों की लड़कियों के साथ मेल-जोल बढ़ाया। पूरे प्रशिक्षण में रीमा में एक अच्छी और अग्रणी नेता होने के सभी गुण देखने को मिले।      

दक्षिण एशियाई देशों में किशोरों की जरूरतों को ध्यान में रखकर उनके लिए परिवार नियोजन सहित दूसरी यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता बढ़ाने के लिए नीतियाँ लागू की गयी हैं। लेकिन फिर भी सेवाएँ पाने वाले की उम्र और वैवाहिक स्थिति को ध्यान में रखकर किशोरों को बहुत बार उनकी भलाई के लिए ही बनाई गयी ये सेवाएँ नहीं दी जाती हैं। सरकार द्वारा यह दावा किया जाता रहा है कि किशोरों के लिए यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाएँ और किशोरों के अधिकार उन्हें दिए जा रहे हैं लेकिन वास्तविकता यही है कि यह केवल नीतिगत फैसले ही बन कर रह जाते हैं और किशोरों को ये सेवाएँ मिल ही नहीं पातीं।

विकास लाने के लिए कार्यरत हम विशेषज्ञों का यह दायित्व है कि उन सामाजिक मान्यताओं और विचारों के बारे में सोचें जो हमारे साथी सेवा प्रदाताओं, सहकर्मियों और फील्ड में काम कर रहे लोगों के मन में इतने गहराई से घर कर चुके हैं। कार्यक्रम चलाते हुए किस तरह से सेवाप्रदाताओं की व्यावसायिक और व्यक्तिगत मान्यताओं के बीच सामंजस्य बैठाया जाए जिससे कि ये लोग इन सामाजिक मान्यताओं को खुद अपने ही घर-परिवार में भी चुनौती दे सकें और लोगों के प्रति पूर्वानुमान लगा पहले से ही किसी नतीजे पर न पहुँचने के व्यवहार को बदल सकें? 

अगर किसी किशोर या किशोरी को यौन स्वास्थ्य से जुड़े अधिकार दिए जाते हैं, तो उन्हें इन अधिकारों के तहत केवल कुछ ही सेवाएँ क्यों मिल पाती हैं, उन्हे सभी सेवाएँ क्यों नहीं दी जाती? माहवारी के दौरान स्वास्थ्य से संबन्धित जानकारी देना एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन यौन संचारित संक्रमण के बारे में जानकारी देने अथवा गर्भनिरोधन उपायों की जानकारी दिए जाने के लिए ज़रूरी है कि समुदायों और सेवाप्रदाताओं, दोनों के दृष्टिकोण में बदलाव लाने की दिशा में काम किया जाना ज़रूरी है ताकि सेवाप्रदाता किशोरों को इन सेवाओं के दिए जाने को ज़रूरी समझें और लड़कियों द्वारा सभी प्रकार की यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएँ पाने के अधिकार का समर्थन करें। 

हमें खुद में बदलाव लाना होगा, हमें अपनी कथनी और करनी को एक जैसा बनाना होगा और किशोरों के अधिकारों को समर्थन देने के लिए खड़े होना पड़ेगा। किशोर भी देश के नागरिक हैं। वे भले ही अभी वयस्क न हुए हों, लेकिन उनके पास भी शरीर है जिसे वे प्यार करते हैं और सुरक्षित, स्वस्थ, प्रसन्न व सहेज कर रखने के इच्छुक होते हैं। उन्हें ज़रूरत है जानकारी और सेवाओं कि, उन्हें ज़रूरत है प्रेम की न कि उनके बारे में कोई राय बना लिए जाने की! यह उनका अधिकार है और उनके इस अधिकार को भी मानव अधिकारों की तरह ही समझा जाना चाहिए। 

कवर चित्र : (CC BY-SA 2.0)

सुमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित 

To read this article in English, please click here.

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